दलित समाज को क्यों है बुद्ध की जरूरत ? पढ़िए इस लेख में

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पूरा देश आज बुद्ध पूर्णिमा के दिन तथागत बुद्ध के विचारों को याद कर रहा है। भारत की धरती बुद्ध की धरती है। यहाँ हर जगह बुद्ध ही बुद्ध मिलेंगे। तो चलिए आज इस लेख के माध्यम से तथागत बद्ध के कुछ ओर पहलुओं को छूते हैं।

गौतम बुद्ध ने जातिवाद का हमेशा विरोध किया है, और मानवता को ही सर्वोपरि माना। गौतम बुद्ध सभी वर्गों को एक समान मानते थे। समाज में किसी भी समुदाय के साथ जातिगत भेदभाव को वे अभिशाप मानते थे। बता दें, गौतम बुद्ध के इन्हीं विचारों से प्रभावित होकर भीमराव अंबेडकर से लेकर बसपा सुप्रीमो मायावती तक ऐसे बहुत से दलित है, जिन्होंने जीवन के पड़ाव पर हिन्दू धर्म का त्याग करते हुए ‘बौद्ध धर्म’ को अपना लिया।

 

भीमराव अंबेडकर और मायावती ने हिन्दू धर्म का त्याग कर ‘बौद्ध धर्म’ को अपना लिया था।

गौतम बुद्ध का जातिवाद को लेकर यह विचार था कि, ‘न जन्म से कोई शूद्र होता है और कर्म से ही मनुष्य ब्राह्मण होता, बुद्ध ने भारतीय समाज में वर्ण एवं जाति व्यवस्था के कारण दलितों व पिछड़े वर्गों द्वारा दुखमय जीवन से मुक्ति दिलवाने हेतु भगवान भाग्य पुनर्जन्म तक आत्मा की सत्ता को अस्वीकार करने का संदेश दिया।’

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बता दें, मई के इस महीने में बुद्ध पूर्णिमा मनाई जाएगी, बौद्ध धर्म के मानने वालों के लिए बुद्ध पूर्णिमा सबसे अधिक महत्वपूर्ण दिन है क्योंकि वैशाख में पड़ने वाली इस पूर्णिमा के दिन ही शाक्य कुल के राजा शुद्धोधन के घर में सिद्धार्थ का जन्म हुआ था, इसी दिन लंबी तपश्चर्या के बाद सिद्धार्थ गौतम को ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे विश्व में बुद्ध के नाम से विख्यात हुए और इसी दिन उनका परिनिर्वाण हुआ था।

 

‘वैशाख पूर्णिमा के दिन बुद्ध का परिनिर्वाण हुआ था।’

 

बौद्ध दर्शन में जाति को लेकर कहा गया है कि, जाति प्रथा भारतीय समाज की एक विकट समस्या है, जिसने भारतीय समाज के सम्यक विकास को अति प्राचीन काल से अवरूद्ध किया है। इस प्रथा में कुछ विशिष्ट समुदाय के लोगों ने अपनी जन्म आधारित श्रेष्ठता के चलते समाज के अन्य लोगों को निकृष्ट और नीच दिखाकर शोषण किया। इस प्रथा के चलते समाज में अनेक प्रकार की गैरबराबरी का उदय हुआ, जिससे कुछ लोगों को अपने मूलभूत अधिकारों और सुख सुविधाओं से वंचित रहना पड़ा है।

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बुद्ध ने अध्यात्मिक क्रांति के साथ-साथ सामाजिक क्रांति भी की थी, लेकिन उनके इस पक्ष पर कम ज़ोर दिया गया है। बुद्ध द्वारा उत्पन्न की गयी सामाजिक चेतना के परिणाम स्वरूप ही समाज में हीन और दलित समझे जाने वाली जातियों के लोगों ने सामाजिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना प्रारम्भ कर दिया। गौतम बुद्ध ने प्रज्ञा और करूणा पर सबसे अधिक ज़ोर दिया था। प्रज्ञा में उनका अध्यात्मिक उपदेश और करूणा में उनका सामाजिक उपदेश है, जिसमें उस समय के प्रचलित सभी कुप्रथाओं का ज़ोरदार तर्कों से खण्डन किया था।

 

‘बौद्ध धर्म’ में प्रज्ञा और करूणा को महत्त्व देते हुए बोधिसत्व की विचार धारा का उदय हुआ (Image : social media)

बाद में ‘बौद्ध धर्म’ में इस दोनों पक्ष प्रज्ञा और करूणा को महत्त्व देते हुए बोधिसत्व की विचार धारा का भी उदय हुआ जो महायान का मुख्य उद्देश्य था । जाति प्रथा का यदि सूक्ष्म अध्ययन किया जाय तो मालूम होता है कि इनके तीन मुख्य आधार है- ईश्वरीय, मूलोपत्ति और उत्तराधिकार में प्राप्त उच्चाता आदि। वहीं बुद्ध ने इन तीनों को अतार्किक, मानव कल्पित और स्वार्थ से प्रेरित बता कर आलोचना की है। बुद्ध का कहना तो यह था कि “मैं इंसानियत में बसता हूं और लोग मुझे मजहबों में ढूंढते हैं।”

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बौद्ध धर्म में ‘अत्त दीप भव:’ का मनुष्य के लिए महत्वपूर्ण अर्थ और पालन करना बताया है। ‘अत्त दीपो भव:’ का अर्थ है स्वयं प्रकाशित होना होता है, इसका मतलब है की मनुष्य ने अपने जीवन को प्रतिभाशाली बनाना है, जहां वह अपने जीवन में आने वाले हर कठिनाईका सामना करना और आगे बढ़ना।

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वहीं अगर समाज में जाति की बात करें तो, दलितों को हमेशा ही कथित उच्च जातियोंं ने ललकारा है, हमेशा जाति को लेकर उनके साथ असमान व्यवहार किया, यही नहीं बल्कि उच्च जाति के लोगों ने धर्म का मुखोटा पहन कर दलितों को बड़ी ही बेरहमी से मारा- पीटा भी है, जो आज भी जारी है। अगर समाज में धार्मिक पाखण्ड कर रहे अनेकों धर्मों को देखें तो मालूम होता है कि, ‘बौद्ध धर्म’ दलितों के हित की बात करता है। ‘मातंग जातक’ में भी जाति को लेकर कहा गया है कि “जाति-मद, अभिमान, लोभ, द्वैष तथा मूढ़ता ये सब अवगुण जहां हैं, वे इस देश में अच्छे स्थान नहीं हैं। जाति-मद, अभिमान, लोभ, द्वैष तथा मूढ़ता ये सब अवगुण जहां नहीं हैं, वे ही इस देश में अच्छे स्थान हैं।”

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वहीं, अगर हम दलितों के शोषण की जिम्मेदार राजनीतिक पार्टियों या सरकार की बात करें तो, जब से केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार आयी है, तब से देश भर में गौरक्षा के नाम पर मुसलमानों और दलितों पर हमले बढ़े हैं और इस कारण जातिगत एवं साम्प्रदायिक तनाव में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। ऐसा नहीं है कि इस सरकार के सत्तारूढ़ होने के पहले स्थिति बहुत बेहतर थी, लेकिन इतनी बत्तर भी नहीं थी, जितनी आज वर्तमान में है। हिन्दू समाज की सवर्ण जातियों में दलितों के प्रति स्वाभाविक रूप से हिकारत और नफरत का भाव रहता है, जिसके पीछे जातिगत श्रेष्ठता की भावना रहती है।

 

“मैं इंसानियत में बसता हूं और लोग मुझे मजहबो में ढूंढते हैं।” (गौतम बुद्ध )

 

बता दें कि, दलित लोग बाबा साहब अंबेडकर को अपना मसीहा मानकर भी ‘बौद्ध धर्म’ में परिवर्तित हुए है, क्योंकि बाबा साहब अंबेडकर को यह मालूम था, अस्पृश्यता और जाति व्यवस्था से छुटकारा तभी पाया जा सकता है, जब समाज से अंधविश्वास को खत्म कर समाज के सभी समुदाय के लोगों विशेषकर दलितों को शिक्षा और समाज में बराबरी का दर्जा दिया जाएगा। वहीं, गौतम बुद्ध के सिद्धांतो का पालन करके ही बाबा साहब ने दलितों के मंदिरों में प्रवेश करने जैसे आंदोलनों सहित कई सुधारवादी पहलों की शुरुआत की।

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वर्ष 1929 में जलगांव में अंबेडकर ने कहा था कि यदि अछूतों के साथ होने वाले भेदभाव को खत्म नहीं किया जाता है तो उन्हें हिंदू धर्म त्याग कर दूसरे धर्मों को अपना लेना चाहिए। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि बाबा साहब के ऐसा कहते ही, एक महीने के भीतर क्षेत्र के हज़ार लोगों ने अपना धर्म त्यागकर ‘बौद्ध धर्म’ को अपना लिया था। यह सत्य है कि, अंबेडकर के धर्म बदलने का फैसला भी बौद्धिक और भावनात्मक आधार पर किया गया था। यह फैसला एक ऐसे धर्म के विरुद्ध किया गया था, जिसने उन्हें समानता और आत्म-सम्मान देने से इंकार कर दिया था लेकिन, इसके साथ-साथ यह एक राजनीतिक इकाई के रूप में हिंदुओं और सहिष्णुता के संबंध में हिंदू धर्म की प्रतिष्ठा के लिए एक धमकी भी थी।

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1930 के दशक के दौरान अंबेडकर ने ज़ोर देते हुए ‘बौद्ध धर्म’ में धर्मांतरण को दलित मुक्ति के एकमात्र मार्ग के रूप में प्रस्तुत किया। बता दें कि, दादर में अखिल बॉम्बे ज़िला महार सम्मेलन (All Bombay District Mahar Conference) में बोलते हुए, उन्होंने यह स्पष्ट किया था कि वो क्यों धर्मांतरण को दलितों के लिए राजनीतिक और आध्यात्मिक कार्य के रूप में देखते हैं। उनके अनुसार किसी धर्म में एक व्यक्ति के उत्थान के लिए सहानुभूति, समानता और स्वतंत्रता तीन आवश्यक कारक होते हैं, जो कि अन्य किसी धर्म में मौजूद नहीं हैं।

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अंबेडकर ने तो अपनी मृत्यु से लगभग बीस वर्ष पहले घोषणा कर दी थी कि उनका जन्म भले ही एक हिन्दू के रूप में हुआ हो, उनकी मृत्यु हिन्दू के रूप में नहीं होगी। अपनी मृत्यु से दो माह पहले अक्टूबर 1956 में अपने हजारों अनुयायियों के साथ अंबेडकर ने हिन्दू धर्म त्याग कर ‘बौद्ध धर्म’ ग्रहण कर लिया था और तभी से प्रतिवर्ष दलित अपना असंतोष और विरोध व्यक्त करने के लिए धर्मांतरण का सहारा लेते हैं।

 

बाबा साहब बुद्ध के विचारों से प्रभावित होकर ‘बौद्ध धर्म’ में परिवर्तित हुए है। ( Image : google)

बाबा साहब ने कहा कि ‘धर्मांतरण अस्पृश्यों के लिये उसी तरह से ज़रूरी है जिस तरह से भारत वर्ष के लिये स्वयंशासन आवश्यक है। रूपांतरण और स्वयंशासन दोनों का अंतिम उद्देश्य स्वतंत्रता को प्राप्त करना है। अंबेडकर ने बुद्ध और उनके शिष्य आनंद के बीच बातचीत को याद करके अपने भाषण का निष्कर्ष निकाला और उसे प्रस्तुत करते हुए कहा कि “मैं भी बुद्ध के शब्दों में शरण लेता हूँ। स्वयं अपने मार्गदर्शक बनो। दूसरों की सलाह मत सुनो। दूसरों के लिये मत झुको। सच्चे बने रहो। सच्चाई के मार्ग में शरण लो। कभी भी, किसी भी चीज़ के सामने आत्मसमर्पण न करो।’

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अंबेडकर के लिए किसी धर्म में आत्म सम्मान और व्यक्तिगत आज़ादी का होना बहुत महत्त्वपूर्ण था और बौद्ध धर्म एक सच्चे धर्म के उस विचार के बहुत करीब था, जिसकी वो कल्पना करते थे, इसीलिए दलित समाज को बुद्ध की जरूरत है।

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