बाबा साहेब अंबेडकर नहीं होते तो महिलाओं को अधिकार कौन देता ?

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कलमुँही, करमजली, अनचाही जैसे ना जाने कितने ही नाम भारतीय समाज की स्त्रियों को मिलते रहे है। ये नामकरण की प्रक्रिया पुरूषों के साथ भले एक बार ही होती हो लेकिन महिलाओं के साथ ये प्रकिया जीवन भर चलती है। जिसकी शुरूआत हमारे धर्म ग्रन्थों से ही हुई है। जिसका सबसे अच्छा उदहारण तुलसीदास द्वारा लिखित “रामचरितमानस”  है। जिसमें तुलसीदास ने महिलाओं और शूद्रों को पीटने का अधिकारी बताया है। रामचरितमानस में तुलसीदास लिखतें है, “ढोल, गँवार, शूद्र, पशु, नारी सकल ताङना के अधिकारी”

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महिलाओं की स्थिति को दयनीय बनाने में लोक-मान्यताओं ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। भारतीय समाज में आज भी ये माना जाता है कि, स्त्री की डोली उसके मायके से और अर्थी पति के घर से ही उठनी चाहिए। अगर स्त्री किसी कारणवश वापिस पिता के घर आ जाए तो उसे पाप समझा जाता है। फिर चाहे उसके पति के घर में उसे सांस तक लेने में तकलीफ़ हो लेकिन ‘पति देवता और उसका घर मंदिर ही माना जाना चाहिए।’

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ऐसे माहौल में नारीवादी रूपी पौधे को लगाना अपने आप में काबिलियत तारीफ़ है और इस पौधे को लगाने का काम बाबासाहेब ने किया और बाबा साहब ने महिलाओं के लिए क्रांति की शुरुआत कर दी।बाबासाहेब ने कहा – मैं किसी समाज की प्रगति को उसके समाज में होने वाली महिलाओं की प्रगति से मापता हूं। डॉ. अम्बेडकर उस समाज को लेकर बेहद चिंतित थे। जहां ये माना जाता हो कि ‘लड़कियां पढ़ लिखकर क्या करेंगी, आख़िर उन्हें तो करना चूल्हा चौका ही है।’

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क्योंकि ऐसे समाज में जहां महिलाओं के लिए शिक्षा का मतलब “काला अक्षर भैंस बराबर है” वहां शिक्षा का महत्व बताना बहुत कठिन है। लेकिन बाबासाहेब ने तूफ़ान को आड़े हाथ लिया और शिक्षा रूपी पंख महिलाओं को देकर उड़ान भरने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया। महिलाएं स्वतंत्र रूप से समाज में विचरण  कर सकती है,  भारतीय समाज के पितृसत्तात्मक ढांचे की बेड़ियों को तोड़ कर आसमां की ऊंचाइयों को छू सकती है। ये बाबासाहेब ने समाज के लोगों को समझाया।

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डॉ. आंबेडकर का मानना था– ‘सही मायने में प्रजातंत्र तब आएगा, जब महिलाओं को पिता की संपत्ति में बराबरी का हिस्सा मिलेगा। उन्हें पुरुषों के समान अधिकार मिलेंगे। महिलाओं की उन्नति तभी होगी, जब उन्हें परिवार–समाज में बराबरी का दर्जा मिलेगा। शिक्षा और आर्थिक तरक्की उनकी इस काम में मदद करेगी।’ डॉ. अम्बेडकर ने विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के अधिकारों को कानूनी रूप से संहिताबद्ध करने के लिए ‘हिंदू कोड बिल’ लागू करने पर बल दिया। लेकिन उस समय के अधिकांश शिक्षित लोग, जो प्रमुख जातियों के थे, उन्होंने ‘हिंदू कोड बिल’ के विचार का विरोध किया और अंततः इसे संसद में खारिज कर दिया गया था।

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 क्या था हिंदु कोड बिल ?

हिंदुओं में बहू विवाह की प्रथा को समाप्त करके केवल एक विवाह का प्रावधान, जो विधिसम्मत हो। जिससे महिला को कोई वस्तु न समझे उसे भी बराबर आदर – सम्मान मिल सके। महिलाओं को संपत्ति में अधिकार देना और बच्चे गोद लेने का अधिकार देना। जिससे महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाया जा सके।

 

 

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पुरुषों के समान नारियों को भी तलाक का अधिकार देना, हिंदू समाज में पहले पुरुष ही तलाक दे सकते थे। दंपत्ति अगर एक-दूसरे के साथ खुश नहीं है तो उनमें से कोई भी तलाक़ दे सकता है फिर चाहे वह स्त्री हो या पुरुष। आधुनिक और प्रगतिशील विचारधारा के अनुरूप समाज को एकीकृत करके उसे मजबूत करना। पूर्वधारणाओं, रूढ़िवादी मान्यताओं का त्याग करके प्रत्येक व्यक्ति अपने भले के लिए सोचे।

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लेकिन इन प्रावधानों का विरोध किया गया। लोग उन हिन्दू रूढ़िवादी मान्यताओं और परंपराओं को बनाए रखने के पक्ष थे। जिनसे महिलाओं के पैरों में बेड़ियां डाली जा सके और उनके गले को ऐसी रूढ़िवादी मान्यता से जकड़ा जा सके कि वो जीवन को घुट घुट कर जिए और वो मान्यताएं थी जैसे – महिलाएं तलाक नहीं दे सकती। विधवा महिलाएं विवाह नहीं कर सकती थी, महिलाओं का पैतृक संपत्ति में कोई अधिकार नहीं था।

लेकिन कालांतर में इन्हीं प्रावधानों को कई सारे अधिनियमों के जरिए लागू किया गया जैसे –

  1. हिंदू विवाह अधिनियम (1955)

हिंदू तलाक अधिनियम 1955

  1. हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (1956)
  2. हिंदू दत्तकगृहण अधिनियम (1956 )

 

इन्हीं प्रावधानों के कारण महिलाएं आज स्वतंत्र रूप से अपने हौसलों की उड़ान उड़ पा रही है और आसमां की ऊंचाइयों को छू रही है।

 

संपादक : Sushma Tomar

(यह लेख हमारी साथी दीपाली ने लिखा है, दीपाली दिल्ली के साउथ कैंपस से पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही हैं। )

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