क्यों स्कूलों से नदारद हैं सावित्रीबाई फुले ?

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अगर आप विकिपीडिया पर देखें तो पाएंगे सावित्रीबाई फुले को एक शिक्षाविद् के रूप में अंकित किया गया है। पर क्या उन्हें हमारे स्कूलों और विश्वविद्यालयों में उनके ओहदे और कद के मुताबिक तवज्जों दी जाती है? ये एक बड़ा सवाल है जिसका जवाब जानना हम सबके लिए बेहद जरूरी है..

आइए इस लेख में आज बात इसी पर करतें हैं कि आखिर क्यों  स्कूलों से नदारद हैं सावित्रीबाई फुले ?

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ब्रिटिश शासन के उस दौर में जब अंग्रेज भारत में क्रिस्टियन एडुकेशन को प्रमोट कर रहे थे और भारतीय पुरुष अपनी महिलाओं को केवल घर के चौका बर्तन तक सीमित रखना चाहते थे। ऐसे समय में सावित्रीबाई ने न केवल बालिका शिक्षा के लिए काम किया बल्कि विधवा विवाह, गर्भवती बलात्कार पीड़ितों और छुआ-छूत मिटाने के लिए भी योगदान दिया। पर महिला शिक्षा के क्षेत्र में इनका प्रयास अद्वितीय रहा हैं। सावित्रीबाई और ज्योतिबा फुले ने 1848 में पुणे में पहला स्कूल खोला और 1853 में गर्भवती बलात्कार पीड़ितों के लिए एक बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की भी शुरुआत की। इसके बाद 1857 में इन्होंने पहले बालिका विद्यालय की स्थापना भी की।

 

भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्री बाई फुले (image : google)

 

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वह एक शिक्षिका और समाज सुधारिका के साथ मराठी कवयित्री भी थी। ‘फुले काव्य’ उनकी प्रसिद्ध रचना है। फुले दंपति ने 1873 में सत्यशोधक समाज की शुरुआत की और 25 दिसंबर 1873 को पहला विधवा पुनर्विवाह भी करवाया। भारत में सावित्रीबाई फुले प्रमाण है वास्तविक नारीवादी और सशक्तिकरण की, पर आज हम देखते हैं उस दौर की ब्राह्मणवादी और पुरुष प्रधान सोच आज भी हमारे समाज में  मौजूद है आज भी स्कूली शिक्षा में सावित्रीबाई फुले का ज़िक्र तक नहीं किया जाता। अगर आप विकिपीडिया पर देखें तो पाएंगे सावित्रीबाई को एक शिक्षाविद् के रूप में अंकित किया गया है।

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पर भारतीय शिक्षा व्यवस्था में स्कूली पाठयक्रम से लेकर परास्नातक तक न कोई चैप्टर/पाठ उनके बारे में पढ़ाया जाता है और न ही उनको लेकर कोई स्पेशलाइज्ड पाठयक्रम बनाया गया है।हालांकि महाराष्ट्र के कुछ विश्वविद्यालयों में इन्हें कुछ हद तक तवज्जों ज़रूर दी गयी है, पर पूरे भारत के विश्वविद्यालयों में नहीं। इसका एकमात्र कारण जाति व्यवस्था का प्रभुत्व कहा जा सकता है क्योंकि सावित्रीबाई फुले किसी उच्च ब्राह्मण कुल से नहीं आती थी बल्कि यह महिला बहुजन समुदाय से ताल्लुक रखती थी और दलित पिछड़े समुदाय और महिलाओं के लिए काम करती थी।

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जिस तरह भारत में प्रभुत्वशाली उच्च वर्गों ने अपने व्यक्तिगत, सामाजिक और आर्थिक लाभ के लिए जाति व्यवस्था का गठन किया उसी तरह उन्होंने इतिहास भी अपने लाभ के हिसाब से गढ़ दिया है। अगर आप स्कूलों या स्नातक का इतिहास या राजनीतिक विज्ञान के सिलेबस देखें, तो ब्रिटिश शासन के दौरान सशक्त महिलाओं में मात्र पंडिता रमाबाई का इतिहास पाएंगे जबकि उनसे पहले सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख जैसी महिलाएं सामाजिक सशक्तिकरण के लिए काम करती रही थी। पर इन वीरांगनाओं के इतिहास से छात्रों को वंचित रखा जाता है। और हमारी शिक्षा व्यवस्था या सिलेबस बनाने वाली कमेटी इनका ज़िक्र तक नहीं करती हैं।

 

महात्मा ज्योतिबा फुले और माता सावित्री बाई फुले की प्रतिमा (image : google)

 

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सावित्रीबाई फुले को क्यों समर्पित नहीं है शिक्षक दिवस   ?

डॉ. राधाकृष्णन 1962 में भारत के राष्ट्रपति बनते है। उनके मित्रों और छात्रों द्वारा उनका जन्मदिन मनाने की अनुमति पर वे उन्हें सुझाव देते हैं कि वे इसे शिक्षक दिवस के रूप में मनाएं तो बेहतर होगा। और हर साल आधिकारिक तौर पर शिक्षक दिवस डॉ. राधाकृष्णन को समर्पित कर दिया गया। यह एक तरीका रहा है भारत में अपना इतिहास बनाने का और कुछ विशेषों के इतिहास को धूमिल करने का। हमारे आधुनिक इतिहास के नेताओं और क्रांतिकारियों ने मात्र अपना डोमिनेंस बनाया है, आप नहीं पायेंगे की किसी ने किसी महिला के कार्यों की सरहाना की हो या उन्हें अपने समान प्लेटफॉर्म पर बैठने का मौका दिया हो। भारत के संविधान के निर्माण में जिन महिलाओं ने कार्य किया या जुड़ी रही उनके बारे में आज भी कोई सिलेबस विस्तार से नहीं बताता है। संविधान निर्माण से और पीछे जाएं तो उच्च वर्गों की मानसिकता और पितृसता ने सावित्रीबाई और फ़ातिमा शेख जैसी महिलाओं को आज तक भी पाठ्यक्रमों में शामिल नहीं किया है।

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जातिवादी समाज और इतिहास की भूमिका ?

18वीं और 19वीं शताब्दीं के दौरान जब एक आधुनिक भारत बनाया जा रहा था, यहाँ की महिलाएं और दलित- शोषित समुदाय अभिजात वर्गों के शोषण का शिकार था। महिलाएं समाज की पितृसत्तात्मक मानसिकता के कब्ज़े में थी उनके लिए शिक्षा एक अभिशाप की तरह थी, समाज उनकी शिक्षा और जागरूकता के खिलाफ़ था। ग़रीब और शोषित तबके के लोगों के साथ और अधिक समस्याएं थी, वे स्कूलों और मंदिरों में प्रवेश नहीं कर सकते थे। यहाँ दो बातें मुख्यतः हावी थी ब्राह्मणवादी और  पितृसत्तात्मक मानसिकता जिसने इन तबकों को शताब्दियों तक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में प्रवेश से वंचित रखा।

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माता सावित्रीबाई ने उस दौर में जो निर्णय लिए उन्होंने बहुजन तबके के लोगों को आगे बढ़ने का मौका दिया, और एक नया इतिहास गढ़ दिया। वो इतिहास जिस से आज महिलाएं और दलित-बहुजन समुदायों से आने वाले छात्र ही परिचित नहीं हैं। यह प्रभुत्वशाली वर्गों के द्वारा बहुजन समुदाय या  निचले तबकों से आने वाले  छात्रों को उनके इतिहास से वंचित रखने का एक प्रयास भर है क्योंकि दलित-पिछड़े और महिला इतिहास की जानकारी निष्पक्ष रूप से छात्रों को विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में नहीं दी जा रही है। आज हम जो जागरूकता देखते है ये केवल सोशल मीडिया के माध्यम से आ सकी है। पर सवाल वही है आने वाली पीढ़ियों को इतिहास से मिलवाना शिक्षा व्यवस्था का दायित्व है सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का नहीं। इस लीक में ज़रूरी है की भारतीय शिक्षा व्यवस्था निष्पक्षता के साथ पाठयक्रम बनाए।

image : google

कैसे बेहतर किया जा सकता है ?

समावेशी शिक्षा व्यवस्था की जब बात की जाती है तो ज़रूरी है कि समावेशी इतिहास भी इसमें निष्पक्षता के साथ शामिल किया जाए। शिक्षा व्यवस्था की यूनिटस को पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय आधुनिक भारत के निर्माण में सम्मिलित हस्तियों का ज़िक्र ईमानदारी से करना की ज़रूरत है न कि किसी राजनीतिक दबाव या पक्ष में।

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अधिकतर हम पाते हैं की स्कूली पाठ्यक्रमों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व काफी कम है और अधिकतर उन्हें पारम्परिक भूमिकाओं में चित्रित किया गया है। स्वतंत्र और अपने काम में मुखर रही महिलाओं को अधिकतर सिलेबस में नहीं जोड़ा गया है।

इंस्टीट्यूट फॉर पॉलिसी रिसर्च द्वारा बनाई गई एक कमेटी “स्कूली पाठ्पुस्तकों की सामग्री और डिजाइन में सुधार” की एक रिपोर्ट के अनुसार, इसने NCERT को सुझाव दिया  कि (i)पाठ्यपुस्तकों को लैंगिक समावेशी बनाने (ii) उभरते व्यवसायों में महिलाओं को चित्रित करने (iii) भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की भूमिका का पर्याप्त प्रतिनिधित्व करने का प्रयास करना चाहिए। पर अभी तक इन्हें विस्तारित तौर पर स्कूली सिलेबस में प्रभावी नहीं किया गया है।

 

लेखिका : निशा भारती, पत्रकार और विद्यार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय 

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