दलितों का इस्तेमाल करती है राजनीतिक पार्टियां ?

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भारत अपनी आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, लेकिन यह विडंबना ही है कि आज भी भारतीय समाज में एक बड़ा तबका भेदभाव और बराबरी के लिए संघर्ष कर रहा है। जब हम भारतीय समाज की प्रवृति और उसकी दशा का विश्लेषण करते हैं तो एक तरफ़ यह पाते हैं कि संसाधनों और सत्ता पर कुछ लोगों का एकाधिकार है।

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दलित आबादी को संसाधनों और सत्ता में हिस्सेदारी से वंचित होता देख यह मालूम होता है कि, स्टेट ओर सेंट्रल दोनों सरकारों और राजनीतिक पार्टियों ने दलित तबके को  सिर्फ वोट बैंक के रूप में देखा है। भारत में अब तक की हर एक सरकार ने दलित हितैषी होने का खूब दिखावा किया है लेकिन हक़ीकत ये है कि आज भी सरकारें दलितों के हित में काम करने में दिलचस्पी नहीं रखती है। लेकिन वहीं अगर ये बात चुनावों के दौरान की जाए तो राजनीतिक पार्टियां दलित मुद्दों पर एजेंडा चलाने में पिछे नहीं हटती।

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हालिया मामला बिहार में देखा गया है जहां पहले तो जातिगत जनगणना करवा कर नीतीश सरकार ने दलित हितैषी बनने की कोशिश की और फिर एक दलित ईमानदार आईएएस ऑफिसर जी. कृष्णैया के हत्यारे आनंद मोहन को जेल से रिहा करवा दिया। यहीं नहीं बाकायदा आनंद मोहन को जेल से रिहा करवाने के लिए कानूनों में संशोधन भी किया गया।

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आनंद मोहन वही हत्यारा है जिसके हाथ दलित आईएएस अधिकारी के खून से रंगे हुए हैं। बात साल 1994 की है जब बिहार के मुज्फ्फऱपुर में एक स्वघोषित डॉन छोटन शुक्ला की हत्या हो जाती है, उसके समर्थक उसका शव हाईवे पर ऱखकर प्रदर्शन करते हैं और इसी दौरान हाज़ीपुर से गौपालगंज जा रही जी कृष्णैया की कार पर लोगों की नज़र पड़ती है। गुस्साई भीड़ कार पर हमला कर देती है, दलित IAS को गाड़ी से घसीट कर गोलियो से भून दिया जाता है। इसके बाद जब साल 2007 में इस मामले में पहली सुनवाई होती है तो लोअर सेशन कोर्ट बाहुबली नेता आनंद मोहन, छोटन शुक्ला के भाई मुन्ना शुक्ला और अखलाक अहमद औऱ अरूण ठाकुर को घटना के लिए दोषी ठहराते हुए फांसी की सज़ा सुनाती है। हालाँकि बाकियों को साबूतों के आभाव में बरी कर दिया गया लेकिन आनंद मोहन इस घटना में (लोगो को भड़काने के लिए) पूरी तरह जिम्मेदार माना गया।

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अप्रैल महिने की शुरूआत में जब आनंद मोहन को रिहा करने वाली खबर पहले सामने आई थी तब दलित चिंतको और BSP सुप्रीमों मायावती ने सबसे पहले इसका विरोध किया था।मायावती ने आनंद मोहन की रिहाई पर आपत्ति जताई थी। उन्होंने ट्वीट कर कहा था कि “बिहार की नीतीश सरकार दलित विरोधी है। गरीब दलित समाज से आईएएस बने बेहद ईमानदार जी. कृष्णैया की निर्दयता से हत्या करने के मामले में आनंद मोहन को रिहा करने के अपने फैसले पर नीतीश कुमार को एक बार फिर से सोचने की ज़रूरत है।

 

वहीं मिशन अंबेडकर के संस्थापक सूरज कुमार बौद्ध ने इसे बिहार सरकार का सीधे तौर पर राजपूत वोटो को साधने का सीधा तरीका बताते हुए लिखा, “सुनिए नीतीश-तेजस्वी जी, आनंद मोहन को रिहा करके 1% राजपूत वोटों को लेने के लिए आपने बिहार के SC समुदाय के 20% वोटों को नकारा है। हम इंसान हैं, भेड़-बकरी नहीं कि हमारे लोग काटे जाते रहें और हम तमाशबीन बनकर देखते रहें”

वहीं राजनीतिक विश्लेषक कुश अंबेडकरवादी ने आनंद मोहन की रिहाई का यह कहते हुए विरोध किया था कि, “दलितों के हत्यारे आनंद मोहन को रिहा करके बिहार की ओबीसी सरकार ने दलितों के साथ सामाजिक न्याय कर दिया है. वही तमिलनाडु की ओबीसी स्टालिन सरकार संविधान बदलकर श्रम के घंटे 8 से 12 कर  रही है ताकि बाबा साहेब अंबेडकर के विचारों को कुचलकर सामाजिक न्याय किया जा सके।”

दलित समुदाय के लगातार विरोध के बाद भी सोमवार 24 अप्रैल को बिहार सरकार एक नोटिफिकेशन जारी कर देती है। जिसमें आनंद मोहन की रिहाई पर सटेंप लग जाता है।रिहाई की खबर मिलते ही आनंद मोहन फिर अपने बाहुबली वाले अंदाज़ में दिखाई देता। मीडिया से बात करते हुए वह पूरे दलित समाज का अपमान करते हुए BSP सुप्रीमों मायावती पर टिप्पणी करते हुए कहता है कि “वो किसी मायावती को नहीं जानता, वह उस कलावती को जानता है जिसका जिक्र सत्यनारायण की कथा में होता है। यही नहीं वो अपनी रिहाई के लिए नीतिश कुमार को धन्यवाद कहते हुए नीतीश कुमार को अपना पुराना दोस्त बताता है और आगे कहता है कि उसकी रिहाई बहुत पहले हो जानी चाहिए थी लेकिन साज़िश के चलते उस पर कभी ध्यान नहीं दिया गया।

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लेकिन आनंद मोहन की रिहाई पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के बयान भी सुने जाने चाहिए। उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने इस पूरे मामले पर कहा की ” आनंद मोहन सिंह ने अपनी पूरी सजा काटी है. जो कानूनी तरीका था उसे पालन किया इसके बाद वह रिहा हो रहे हैं तो फिर इसपर सवाल क्यों उठ रहे हैं।” वहीं नीतीश कुमार ने आनंद मोहन की रिहाई को सही ठहराते हुए कहा कि, “वो 15 साल जेल में रहे, उन्हें उनकी सज़ा मिली और अब ये हो गया” बता दूं कि जब नीतीश से जेल नियमावली को बदले जाने पर सवाल किया गया तो नीतीश कुमार कहतें हैं कि जब ये नहीं था तब इसकी मांग की जा रही थी और अब जब ये हो गया तो लोग इसका विरोध कर रहें हैं।

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बता दूं कि बिहार में किसी लोकसेवक के हत्या के मामले को सामान्य हत्या की श्रेणी में नहीं बल्कि अपवाद श्रेणी में रखा जाता था। जिसमे बदलाव कर बिहार की नीतीश सरकार ने अब लोकसेक की हत्या के मामले को सामान्य श्रेणी के अंतर्गत कर दिया है। अब यहां एक चीज़ ये देखने वाली है कि अगले साल यानी 2024 में लोकसभा के चुनाव है। और उसके एक साल बाद 2025 में बिहार विधानसभा के चुनाव हैं। बिहार में 18 प्रतिशत दलित हैं वहीं राजपूत वोट 6 से 8 फीसदी हैं। जिन पर अब नीतीश सरकार की नज़र है। 2020 के चुनावों में आनंद मोहन को लेकर नीतीश कुमार का प्रेम पहले ही जगज़ाहिर हो चुका है। जिसका फल अब आनंद मोहन की रिहाई के रूप में देखने को मिला है। लेकिन सवाल ये है कि इस पूरे प्रकरण में दलित और दलित हित कहाँ आतें हैं।

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एक तरफ़ जहां आनंद मोहन की रिहाई के बाद दलित IAS जी कृष्णैया का न्याय अधूरा रह गया वहीं अब रिहाई के फैसले के ख़िलाफ़ मृतक दलित IAS कृष्णैया की पत्नी कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने को मजबूर हैं। आनंद मोहन की रिहाई से राजपूत वोटों को साध रहीं ये राजनीतिक पार्टियां चुनाव आते आते फिर कोई स्किम या योजना की लॉलीपॉप दलितों के हाथों में थमा देंगे और फिर दलित हितैषी बन सत्ता में काबिज हो जाएंगे। और आज जो दलित और गरीब लोग न्याय, समानता, रोज़ी रोटी और हक की लड़ाई लड़ रहे तब भी लड़ाई ही लड़ रहे होंगे। ये राजनीतिक पार्टियाँ दलितों को कठपुतली बनाए रखना चाहती हैं ताकि उन्हें वोट मिलता रहे और कोई इनके खिलाफ़ आवाज़ भी न उठा सके। इस पूरी घटना से दलित समाज, गरीब तबके और महिलाओं को ज़रूरत है ये समझने की कि कौन उनके हित की बात कर रहा है और कौन उन्हें लॉलीपॉप पकड़ा रहा है।

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