क्या प्रेस ने दलितों को अपनी आवाज़ उठाने की स्वतंत्रता दी है?

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आज विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस है, जिसे भारत में बड़े ही गौरव के साथ मनाया जा रहा है और मनाया भी क्यों न जाए आख़िर भारत जैसे विविधता वाले देश में प्रेस के अविष्कार ने ही, अभिव्यक्ति की आज़ादी को मजबूत किया है। लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि, क्या आज वास्तव में भारतीय प्रेस समाज के सभी वर्गों के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी का काम कर रहा है?

बता दें कि, समाज के शोषित पिछड़े दलितों की आवाज़ को प्रेस ने एक दिशा दी है, लेकिन आज 2023 में भी समाज के कई बड़े नामचीन प्रेस संस्थानों में दलित समाज से आए लोगों आसानी से नौकरी नहीं दी जाती। इसका सबसे बड़ा कारण है बड़े संस्थानों में बैठे कथित उच्च जाति के लोग, जिन्होंने दलितों की आवाज़ को हमेशा दबाया है। साथ ही कभी भी मीडिया या प्रेस में उनकी भागीदारी को दर्ज नहीं होने दिया। आज भी सिर्फ़ कुछ ही चुनिंदा दलित समाज से आने वाले पत्रकार हैं, जो बड़े प्रेस मीडिया संस्थानों में काम करते हैं।

 

शोषित पिछड़े दलितों की आवाज़ को प्रेस ने एक दिशा दी है (Image : google)

 

बाबा साहब अंबेड़कर ने कई मीडिया प्रकाशनों की शुरुआत की और उनका संपादन भी किया। वहीं, बाबा साहब ने सलाहकार के तौर पर भी काम किया। डॉ. आंबेडकर ने अपने सामाजिक, राजनीतिक आंदोलन को मीडिया के माध्यम से भी चलाया और अछूतों के अधिकारों की आवाज़ को बुलंद करने व न्याय दिलाने के लिए प्रेस माध्यम का खूब इस्तेमाल किया।

डॉ. अंबेड़कर के जमाने में प्रिंट यानी अखबार-पत्र-पत्रिकाएं और रेडियो ही जनसंचार के प्रमुख साधन थे। मीडिया पर ब्राह्मणों/सवर्णों का पारंपरिक प्रभुत्व तब भी था। इसलिए डॉ. आंबेडकर को प्रारंभ में ही ये समझ में आ गया कि वे जिस लड़ाई को लड़ रहे हैं, उसमें मेनस्ट्रीम मीडिया उनके लिए उपयोगी साबित नहीं होगा, बल्कि उन्हें वहां से प्रतिरोध ही झेलना पड़ेगा। वहीं, बाबा साहब अंबेड़कर को अपने विचार जनता तक पहुंचाने के लिए कई पत्र निकालने पड़े, जिनके नाम हैं – मूकनायक (1920), बहिष्कृत भारत (1924), समता (1928), जनता (1930), आम्ही शासनकर्ती जमात बनणार (1940), प्रबुद्ध भारत (1956). उन्होंने संपादन, लेखन और सलाहकार के तौर पर काम करने के साथ इन प्रकाशनों का मार्गदर्शन भी किया।

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बाबा साहब की बातों और गतिविधियों को उन के दौर का मीडिया प्रमुखता से प्रकाशित करता था, क्योंकि बाबा साहब ने समाज में एक कांति को जन्म दिया था और वो क्रांति थी, दलितो को समाज में सम्मान और अधिकारों के साथ रहने देने की आज़ादी। बाबा साहब अंबेड़कर ने एक सभा के दौरान दलितों की हित की बात करते हुए कहा था कि, दलितों के अधिकारों की मांग के लिए
दलितों के अपने ‘प्रेस मीड़िया संस्थान’ होने चाहिए क्योंकि, वे प्रेस की हक़ीकत को जानते थे।

बता दें कि, 18 जनवरी 1943 को पूना के गोखले मेमोरियल हॉल में महादेव गोविन्द रानाडे के 101वीं जयंती समारोह पर डॉ. अंबेड़कर द्वारा दिया गया व्याख्यान, मीडिया के चरित्र के बारे में उनकी दृष्टि को समझने के लिए महत्वपूर्ण है, उन्होंने कहा “मेरी निंदा कांग्रेसी समाचार पत्रों द्वारा की जाती है। मैं कांग्रेसी समाचार-पत्रों को भलीभांति जनता हूं। मैं उनकी आलोचना को कोई महत्त्व नहीं देता। उन्होंने कभी मेरे तर्कों का खंडन नहीं किया, वे तो मेरे हर कार्य की आलोचना, भर्त्सना व निंदा करना जानते हैं। वे मेरी हर बात की गलत सूचना देते हैं, उसे गलत तरीके से प्रस्तुत करते हैं और उसका गलत अर्थ लगाते हैं, न मेरे किसी भी कार्य से कांग्रेसी-पत्र प्रसन्न नहीं होते। यदि मैं कहूं कि मेरे प्रति कांग्रेसी पत्रों का यह द्वेष व बैर-भाव अछूतों के प्रति हिंदुओं के घृणा भाव की अभिव्यक्ति ही है, तो अनुचित नहीं होगा।”

 

बाबा साहब ने एक सभा में कहा, दलितों के अपने ‘प्रेस मीड़िया संस्थान’ होने चाहिए (Image : google)

आज जिस तरीके से मीडिया के विभिन्न साधन व्यक्ति पूजा और सरकार की आलोचना को राष्ट्र की आलोचना साबित करने में लगे हैं या राजनीतिक दलों के प्रवक्ता की तरह काम कर रहे हैं, उसे देखते हुए डॉ. आंबेडकर के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। यदि आज डॉ. अंबेड़कर होते तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि, उनके निशाने पर कौन सी विचारधारा और पार्टी तथा नेता होते।

वहीं, राजनीतिक विश्लेषक कुश अंबेड़करवादी ने मीडिया के गिरते स्तर की हक़ीकत बयान करते हुए कहा कि, “वैश्विक मिडिया निगरानीकर्ता की रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय मीडिया का स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है। जनता की नज़र में पहले से नीचे गिरी हुई मीडिया को वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 180 देशों की मीडिया की सूची में 150वें नंबर पर रखा है। इससे पहले भी भारतीय मीडिया की स्थिति अच्छी नहीं थी। 2014 में भाजपा की सरकार आने से पहले 2012 में नंबर 131 था यानि की भारतीय मीडिया पहले घुटनों पर था और अब सीधा जमीन पर पेट के बल लेट गया है। भारतीय मीडिया के 150 नंबर पर आने पर काफी हाय तौबा मचाई जा रही है, काफी पत्रकार कह रहे है की 2014 के बाद मीडिया का गला घोंटा जा रहा है। पत्रकारों का कहना है कि साल 2014 से पहले 131 नंबर पर हांफ तो रहा ही था, हक़ीकत में समस्या वो नहीं होती जो बताई जाती है समस्या वो होती है जो छिपाई जाती है। सत्तापक्ष को दोष देकर आप अपने जातिवादी चरित्र को छिपा नहीं सकते हो, मीडिया के गिरते स्तर में समस्या ये नहीं है की भारतीय मीडिया 150 नंबर तक कैसे गिरा। समस्या ये है की आप पहले भी 131 नंबर पर ही क्यों थे।”

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साथ ही विश्लेषक कुश अंबेड़करवादी ने भारतीय मीडिया पर अपने विचार साझा करते हुए कहा कि, “भारत के संविधान निर्माता डॉ बी आर आंबेडकर की राय पढ़ लेते है डॉ आंबेडकर कहते है “भारत में पत्रकारिता पहले एक पेशा थी। अब वह एक व्यापार बन गई है। अख़बार चलाने वालों को नैतिकता से उतना ही मतलब रहता है, जितना कि किसी साबुन बनाने वाले को। पत्रकारिता स्वयं को जनता के जिम्मेदार सलाहकार के रूप में नहीं देखती। भारत में पत्रकार यह नहीं मानते कि बिना किसी प्रयोजन के समाचार देना, निर्भयतापूर्वक उन लोगों की निंदा करना जो गलत रास्ते पर जा रहे हों– फिर चाहे वे कितने ही शक्तिशाली क्यों न हों, पूरे समुदाय के हितों की रक्षा करने वाली नीति को प्रतिपादित करना उनका पहला और प्राथमिक कर्तव्य है। व्यक्ति पूजा उनका मुख्य कर्तव्य बन गया है। भारतीय प्रेस में समाचार को सनसनीखेज बनाना, तार्किक विचारों के स्थान पर अतार्किक जुनूनी बातें लिखना और जिम्मेदार लोगों की बुद्धि को जाग्रत करने के बजाय गैर–जिम्मेदार लोगों की भावनाएं भड़काना आम बात हैं। व्यक्ति पूजा की खातिर देश के हितों की इतनी विवेकहीन बलि इसके पहले कभी नहीं दी गई। व्यक्ति पूजा कभी इतनी अंधी नहीं थी जितनी कि वह आज के भारत में है।”

राजनीतिक विश्लेषक कुश अंबेड़करवादी आगे कहते हैं कि, “मुझे यह कहते हुए प्रसन्नता होती है कि इसके कुछ सम्मानित अपवाद हैं, परंतु उनकी संख्या बहुत कम है और उनकी आवाज़ कभी सुनी नहीं जाती” यानि की जिन्हे आज भारतीय मीडिया में व्यक्ति पूजा चरम पर लग रही है तो उन्हें ये समझ लेना चाहिए की ये समस्या कोई नई नहीं है। बाबा साहेब आंबेडकर ने 1951 में संसद से दिए अपने इस्तीफे के कारणों में भारतीय मीडिया को भी दोषी ठहराया था। भारतीय मीडिया को बाबा साहेब आंबेडकर ब्राह्मणों के वर्चस्व वाला मीडिया कहते थे जो की पूर्वाग्रह से ग्रसित और पक्षपाती,जातिवादी है। ये सब वो बाते है जिनसे भारत के संविधान निर्माता भारत की आज़ादी के तुरंत बाद आगाह कर रहे थे, जिस मीडिया पर डॉ आंबेडकर आज से 100 साल पहले जातिवादी, ब्राह्मणवादी होने का आरोप लगा रहे थे क्या वो भारतीय मीडिया आज बदल गया है।”

 

बाबा साहब अंबेड़कर ने पत्रिकाओं के माध्यम से अपने विचार जनता तक पहुंचाए (Image: social media)_

विश्लेषक कुश अंबेड़करवादी ने कई रिपोर्ट्स का हवाला देते हुए कहा कि ” तमाम मीडिया में जाति भागीदारी को लेकर हुए तमाम सर्वे देख सकते है, जो बताते है की भारतीय मीडिया में आज भी 90 प्रतिशत सवर्ण जाति के लोग है जो इसको चला रहे है। देश के 7.5 प्रतिशत आदिवासी, 16 प्रतिशत दलित और 44 से 50 प्रतिशत के बीच ओबीसी समाज को आप प्रतिनिधित्व ही देना नहीं चाहते। टीवी डिबेट चाहे किसी भी मुद्दें की हो राजनीती, आर्थिक, सामाजिक या अंतरिक्ष की उसमे भी पुरे पैनल में सवर्ण जाति के लोग ही बैठते है और ये मैं नहीं आक्सफैम का 2018 का सर्वे बताता है यूपी चुनाव के दौरान मैं स्वयं टीवी डिबेट देखकर हैरान था की दलितों के मुद्दे, दलितों के वोट किधर जायेंगे जैसे विषयों पर भी पुरे पैनल में दलित नहीं होते थे। वहीं, कुश अंबेड़करवादी आगे कहते हैं कि “ये बात साल 1920 में लगभग आज से 100 साल से भी पहले बाबा साहेब आंबेडकर ने जान ली थी कि भारतीय मीडिया अगर किसी के इर्द गिर्द घूमता हैं या घूमेगा तो वो सवर्ण और पूंजीपति ही होंगे और अपने निजी हितों की खातिर खास तबके के एंकर से लेकर खास तबके के संपादक तक हर कोई अपने अपने खास नजरियों को लेकर झूठ परोसने में लगा हुआ हैं।”

वहीं, अगर हम ‘विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस’ के अवसर पर आज के मीडिया की स्थिती की बात करें तो, रिपोर्टर्स सेन्स फ्रंटियर्स (RSF) के अनुसार बताया गया है कि, भारत की प्रेस स्वतंत्रता रैंकिंग पिछले साल के 142वें से 180 देशों में से 150वें स्थान पर आ गई है। सूचकांक का 2022 संस्करण 180 देशों और क्षेत्रों में पत्रकारिता की स्थिति का आकलन करता है, “समाचार और सूचना अराजकता के विनाशकारी प्रभावों पर प्रकाश डालता है – एक वैश्वीकृत और अनियमित ऑनलाइन सूचना स्थान का प्रभाव जो नकली समाचार और प्रचार को प्रोत्साहित करता है।” वहीं, आरएसएफ ने कहा अंतरराष्ट्रीय गैर-लाभकारी और गैर-सरकारी संगठन जो “मुफ्त और विश्वसनीय जानकारी तक पहुंच के लिए हर इंसान के अधिकार की रक्षा करता है”।

 

भारतीय मीडिया आज बदल रहा है। (Image : social media)

भारत पर आरएसएफ की रिपोर्ट में कहा गया है कि “अधिसंख्यकों पर व्यापक कार्रवाई के साथ-साथ पत्रकारों को अधिकारियों द्वारा निशाना बनाए जाने से हिंदू राष्ट्रवादियों को भारत सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों को ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों तरह से धमकाने, परेशान करने और गाली देने का हौसला मिला है।”

अन्य कारकों के अलावा, रिपोर्ट में पत्रकारों के खिलाफ “नकली आतंकवाद और राजद्रोह के आरोप”, और कानून प्रवर्तन और जांच एजेंसियों द्वारा मीडिया घरानों पर छापे का हवाला दिया गया। इसने भारत सरकार द्वारा पत्रकारों पर जासूसी करने के लिए इज़राइली निर्मित स्पाइवेयर पेगासस के कथित उपयोग और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम और 2021 के आईटी नियमों के तहत मुकदमा चलाने के जोखिम पर भी चर्चा की गई।

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साल 2020 में उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले में दलित महिला के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना सामने आई थी, जो बहुत निंदाजनक घटना थी। बता दें कि, हाथरस में हुई घटना के मामले में सिद्दीक कप्पन नामक मुस्लिम पत्रकार ने रिपोर्ट की थी, जिसके बाद उत्तर प्रदेश पुलिस ने उसे आतंकवाद, देशद्रोह और समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने के आरोपों में गिरफ्तार किया था, जबकि पत्रकार सिद्दीक कप्पन का कहना है कि वे हाथरस में हुए दलित महिला के सामूहिक बलात्कार और हत्या के मामले की रिपोर्ट करने के लिए नई दिल्ली से उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले की ओर जा रहा था, उसने आतंकवाद, देशद्रोह और समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने जैसा कोई काम नहीं किया है।

बता दें कि, आज पत्रकारिता के क्षेत्र में कुछ राजनीतिक संगठनों और पार्टियों का ही वर्चस्व है। वर्तमान समय में सच्चे मायनों में पत्रकारिता करने वालों के साथ ऐसा ही बर्ताव किया जाता है, जैसा कि सिद्दीक कप्पन के साथ किया गया है।

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