चुनावों से पहले जातीय जनगणना का मुद्दा क्यों उठाया जा रहा है ? पढ़िए

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पिछले कुछ महीनों से भारतीय राजनीति में और विशेष रूप से कांग्रेस पार्टी के लिए ओबीसी मुद्दा और जाति आधारित जनगणना राजनीति का अहम हिस्सा बन गया है। राहुल गांधी लोकसभा में अनेकों बार ओबीसी का मुद्दा उठा चुके हैं। उन्होंने संसद में बोलते हुए विभिन्न संस्थान जैसे कि सचिवालय, मीडिया, शैक्षणिक संस्थानों, उद्यमिता आदि में ओबीसी के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के संबंध में केन्द्र सरकार की कड़ी आलोचना की है। उन्होंने यह कहा कि बीजेपी ओबीसी को सार्वजानिक और निजी क्षेत्रो में प्रतिनिधित्व (आरक्षण) के खिलाफ है। इसके अलावा जनगणना में जातियों को शामिल करने को लेकर बीजेपी पर तीखा हमला बोलते हुए कहा कि वर्तमान की बीजेपी सरकार में  90 सचिव हैं जिसमें सिर्फ 3 ओबीसी वर्ग से आते हैं। इस प्रकार ओबीसी के मुद्दा भारतीय राजनीतिक क्षेत्र में अधिक बहस का विषय बन चुकी है।

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हालाँकि, ओबीसी का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व केवल भाजपा के शासन के दौरान घटित हई कोई आकास्मिक घटना नहीं हैं। कांग्रेस के लंबे शासनकाल के दौरान ओबीसी की स्थिति आज से बहुत अलग नहीं थी। कुछ प्रश्न हैं जिन्हें किसी को पूछने की ज़रूरत है जैसे कि ओबीसी कौन हैं? केन्द्रीय स्तर पर सत्ता में रहते हुए ओबीसी के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) द्वारा लागू की गई नीतियां क्या हैं? यह लेख आज़ादी के बाद ओबीसी की पहचान में कांग्रेस की भूमिका का आलोचनात्मक विश्लेषण करती है। दूसरे शब्दों में, ओबीसी को सशक्त बनाने में कांग्रेस की क्या भूमिका है? इस लेख के माध्यम से हम कांग्रेस की ओबीसी को लेकर किये गए कार्यो का ऐतिहासिक समीक्षा करेंगें।  

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उत्तर औपनिवेशिक भारत में ओबीसी की पहचान

ओबीसीका अर्थ भारत में अन्य पिछड़ा वर्ग से है। यह एक शब्द है जिसका उपयोग सामाजिक और शैक्षिक रूप से वंचित समूहों का वर्णन करने के लिए किया जाता है जो सरकार (राज्य/केन्द्र) द्वारा चलाई जा रहीं विशेष प्रकार के सकारात्मक कार्यक्रमों और नीतियों के पात्र हैं इन नीतियों का उद्देश्य इस वर्ग की सामाजिक, आर्थिक, और शैक्षिक स्थिति में सुधार करना है।

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भारत में ओबीसी सूची मानक नहीं है, और प्रत्येक राज्य ओबीसी समुदायों की अपनी सूची रखता है। केंद्र सरकार ने रोजगार और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण का लाभ लेने वाले ओबीसी समुदायों की एक सूची भी जारी की है। इसेअन्य पिछड़ा वर्ग की केंद्रीय सूचीकहा जाता है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि ओबीसी सूची में शामिल समुदाय राज्य और केन्द्र की सूचियों में अलगअलग हो सकते हैं। कुछ समूहों के वर्गीकरण और समावेशन पर लगातार बहस और चर्चा होती रहती है। परिणामस्वरूप, भारत के किसी विशेष क्षेत्र या राज्य में ओबीसी समुदायों के बारे में नवीनतम और सटीक जानकारी के लिए अधिकारिक सरकारी स्रोतों पर भरोसा करना सबसे अच्छा है।

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अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) एक विषम समुदाय है, जो भारत में कुल जनसंख्या का 60 प्रतिशत से अधिक है। इसे विभिन्न नामों से पहचाना जाता है जैसे पिछड़ा वर्ग, सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा वर्ग, अत्यंत पिछड़ा वर्ग, सर्वाधिक पिछड़ा वर्ग इत्यादि। ये विविधताएँ विभिन्न क्षेत्रों में देखी जा सकती हैं।

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दक्षिण भारत में ओबीसी का विभिन्न श्रेणियों में वर्गीकरण किया गया है। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु में आरक्षित श्रेणियों के लिए कुल 69% आरक्षण हैं जिसमें ओबीसी के लिए 50%, एससी के लिए 18% और एसटी के लिए 1% आरक्षण का प्रावधान है। ओबीसी और एससी में आरक्षण का एक वर्गीकरण है (पिछड़े वर्गों के लिए 26.50, पिछड़े वर्ग मुस्लिम के लिए 3.50, सबसे पिछड़े वर्ग और विमुक्त समुदायों के लिए 20%, अनुसूचित जाति के लिए 15% और अरुंथथियार अनुसूचित जाति के लिए 3%) इत्यादि।

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ओबीसी वर्ग की ऐतिहासिक उत्पत्ति

स्वतंत्रता से पहले, प्रमुख राज्यों ने सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को पहचानने के लिए विभिन्न मापदंड अपनाए। भारत का संविधान समाज के वंचित वर्गों के लिए विशेष प्रावधान प्रदान करता है। आजादी के ओबीसी के ऐतिहासिक विकास और इस समुदाय के उत्थान के लिए नीतियां लाने में केंद्र सरकारों की भूमिका पर ध्यान देना सबसे महत्वपूर्ण है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 340 के अनुसार, भारत सरकार कोसामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गोंकी स्थिति की पहचान करने के लिए एक आयोग नियुक्त करना था। पहला पिछड़ा वर्ग आयोग 1953 में काका कालेलकर की अध्यक्षता में नियुक्त किया गया था। इसलिए इसेकालेलकर आयोगके नाम से भी जाना जाता है।

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यह सिफ़ारिश भारत सरकार द्वारा लागू नहीं की गई क्योंकि इस कमीशन के कई सदस्य इस बात से सहमत नहीं थे कि पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए जाति को आधार बनाया जाना चाहिए। स्वयं आयोग के अध्यक्ष काका कालेलकर इन सिफ़ारिशों के ख़िलाफ़ थे। ओबीसी मुद्दे अधिक जटिल हो गए क्योंकि कांग्रेस में ब्राह्मणवादी ताकतें अपने वर्चस्व और एकाधिकार को समाप्त नहीं करना चाहती थीं। फलस्वरूप कांग्रेस की सामाजिक न्याय नीति से कालेलकर आयोग की सिफ़ारिश गायब हो गयी। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ना तो काका कालेलकर आयोग की सिफ़ारिशों को लागू किया या पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए अन्य आयोग स्थापित करने में अपनी रुचि दिखाई।

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लगभग पच्चीस साल बाद जनवरी 1979 में जनता पार्टी कि गैरकांग्रेसी सरकार में मोरारजी देसाई के नेतृत्व से दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग जिसेमंडल आयोगके नाम से भी जाना जाता है का गठन किया गया। इस आयोग ने 1980 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए मंडल आयोग ने 11 प्रमुख संकेतकों (4 सामाजिक, 3 शैक्षिक, 4 आर्थिक) को अपनाया। 1980 में कांग्रेस ने चुनाव जीता और इंदिरा गांधी भारत की प्रधानमंत्री बनीं। इंदिरा गांधी ने मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करने में कोई दिलचस्पी नहीं ली और उनकी मृत्यु के बाद राजीव गांधी ने उनकी विरासत का अनुसरण किया और उन्होंने इन समुदायों के सशक्तिकरण के लिए कोई कदम नहीं उठाया। क्योंकि कांग्रेस के प्रमुख नेता अपने शासन काल में दौरान ओबीसी वर्ग को किसी भी प्रकार के विशेषाधिकार के खिलाफ थे।

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ओबीसी के योद्धा

भारतीय समाज से सामाजिक विषमता को दूर करने में, तथागत बुद्ध, कबीर, रविदास, चोखामेला, ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, ताराबाई शिंदे, नारायण गुरु, अय्यंकाली, पेरियार, अम्बेडकर आदि जैसे जातिविरोधी समाज सुधारकों का ऐतिहासिक योगदान है। उन्होंने सामाजिक असमानताओं को दूर करने और समतामूलक समाज की स्थापना के लिए अपना संपूर्ण जीवन बलिदान कर दिया। आजादी के बाद प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर ने सामाजिक न्याय के विचार को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

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कांग्रेस ने हाशिये पर पड़े समुदायों के उत्थान के लिए डॉ. अम्बेडकर के योगदान पर कभी विचार नहीं किया और गैरकांग्रेसी सरकार के दौरान उन्हें भारत रत्न (भारत का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार) से सम्मानित किया गया। वी. पी. सिंह सरकार ने 31 मार्च, 1990 को डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर को मरणोपरांत भारत रत्न पुरस्कार देने की घोषणा की। वी. पी. सिंह ने केंद्र सरकार की नौकरियों में पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू करने की भी घोषणा की। हालाँकि वी. पी. सिंह के ओबीसी को सशक्त बनाने के ऐसे कदम उठाना सहयोगी दलों की मजबूरी थे। निचली जातियों के नेताओं ने सामाजिक न्याय के एजेंडे को लागू करने के वादे के कारण ही वी. पी. सिंह की सरकार का समर्थन किया। इस संदर्भ में, क्रिस्टोफ़ जाफ़रलॉट ने अपने लेखबहुजन फ्रंट का निर्माण: कांशी राम और ओबीसीमें मंडल आयोग के कार्यान्वयन के लिए लोगों को एकजुट करने में कांशी राम के योगदान पर प्रकाश डाला है। इसके अलावा, क्रिस्टोफ़ जाफ़रलॉट का तर्क है कि कांशीराम के नेतृत्व में बसपा ने ओबीसी के पक्ष में एक नारा अपनाया। यह थामंडल आयोग लागू करो वरना कुर्सी खाली करो

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फिर भी कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने मंडल कमीशन के सिफारिशों का विरोध किया। मंडल आयोग के ख़िलाफ़ उत्तर भारत में भारी विरोध शुरू हो गया। यह वह दौर था जब समाज के निचले तबके से कई नेता भारतीय राजनीती में अपनी एक विशेष पहचान बनाई और मंडल आयोग के समर्थन में बहुतायत लोगों को एकजुट करने में सफल रहे। मंडल आंदोलन के बाद कई नेताओं ने क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की स्थापना भी की। कांशीराम ने मंडल आंदोलन के लिए वैचारिक जमीन तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मंडल कमीशन के पक्ष में कई नेताओं ने रैलियों के माध्यम से जनमानस को संबोधित किया। जैसे लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, राम विलास पासवान, शरद यादव इत्यादि। इन नेताओं ने उत्तर भारत में कांग्रेस पार्टी के वर्चस्व को चुनौती देने का कार्य किया। ज्ञातव्य है कि वर्तमान समय में उत्तर भारत के प्रमुख क्षेत्रीय राजनीतिक दल 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए भारतीय राष्ट्रीय विकासात्मक समावेशी गठबंधन (INDIA) के सहयोगी हैं।

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ओबीसी के प्रति कांग्रेस के प्रेम का विश्लेषण

ऐसा देखा गया है कि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के कार्यकाल में एससी और एसटी के उत्थान के लिए कई कदम उठाए गए लेकिन ओबीसी के मामले में उन्होंने कोई कदम नहीं उठाया। दलित पैंथर आन्दोलन के बाद दलितों की गोलबंदी से दलितों में अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रति चेतना जागृत हुई। इसलिए, कांग्रेस ने अपने वोट बैंक को मजबूत करने के लिए एससी और एसटी के लिए विभिन्न नीतियां लाईं। कांग्रेस की वोट बैंक नीति और उसके सशक्तिकरण के नामकरण को समझना आवश्यक है।

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आजादी से लेकर 1980 तक पिछड़े वर्गों में अपने सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के प्रति जागरूकता का अभाव था। यादव, कोइरी और कुर्मी जैसी कुछ भूमिधारक ओबीसी जातियों ने कांग्रेस के वर्चस्व को चुनौती दिया। बसपा, बामसेफ, सपा, राजद, जदयू (यू) और कई सामाजिक व राजनीतिक संगठनों की स्थापना के बाद पिछड़ी जातियों की गोलबंदी हुई। इन संगठनों का मुख्य उद्देश्य ओबीसी, एससी, एसटी और परिवर्तित अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व और भागीदारी सुरक्षित करना था। आरक्षण व्यवस्था के कारण ओबीसी वर्ग में बौद्धिक वर्ग का उदय हो रहा है। ओबीसी बुद्धिजीवी विभिन्न सामाजिक न्याय संगठनों जैसे बापसा, यूडीएसएफ, एआईबीएसएफ, बीएसएफ, यूओबीसीएफ और बामपंथ, दक्षिणपंथ और केन्द्रीय नेतृत्व वाले कई अन्य संगठनों में काम कर रहे हैं। यह वर्ग लगातार जातीय जनगणना और आबादी के मुताबिक प्रतिनिधित्व का मुद्दा उठा रहा है। हाशिए के समूहों से आने वाले बुद्धिजीवियों ने ओबीसी राजनीति के लिए जमीन तैयार की। शिक्षा जगत और राजनीति में ओबीसी विमर्श को लाने में यूनाइटेड ओबीसी फोरम की महत्वपूर्ण भूमिका है।

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वर्तमान परिदृश्य में, ओबीसी (हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, आदि) भारतीय आबादी का 60 प्रतिशत से अधिक हैं। बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही ओबीसी समुदाय का वोट हासिल करना चाहती हैं। 2018 में भाजपा शासनकाल के दौरान राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया गया। इसका मतलब यह नहीं है कि बीजेपी ओबीसी को सशक्त बनाना चाहती है। बीजेपी ने अपनी वोट बैंक नीति के लिए ओबीसी के नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को आकर्षित करने के लिए कुछ नीतियां बनाई। राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस वोट बैंक के रूप में ओबीसी का जनाधार हासिल करने के लिए लगातार ओबीसी का मुद्दा उठा रही है। हालाँकि कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी के लिए ओबीसी वोट बैंक हासिल करने के लिए कई प्रकार की चुनौतियां का सामना करना पड़ रहा है।

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कांग्रेस के लिए पहली चुनौती यह है कि उनके पास उत्तर भारत (यूपी और बिहार) में ओबीसी राजनीति के लिए कोई लोकप्रिय चेहरा नहीं है। दूसरा, कांग्रेस ओबीसी मुद्दों की अच्छी समझ रखने वाले बुद्धजीवियों के संकट से जूझ रही है। तीसरा, कांग्रेस ओबीसी की विषम प्रकृति को समझने में विफल रही है। यूपी और बिहार में ओबीसी भूमि-धारक समुदायों के राजनीतिक दल हैं, लेकिन ईबीसी (अतिपिछड़ी) का बहुतायत सामाजिक न्याय आधारित राजनीतिक दलों में भी अपर्याप्त राजनीतिक प्रतिनिधित्व है। अगर राहुल गांधी सचमुच ओबीसी के मुद्दों पर काम करना चाहते हैं तो उन्हें उन तमाम विद्वानों के साथ काम करना पड़ेगा जिन्होंने ओबीसी के मुद्दे पर शोध किया है और मौजूदा दक्षिणपंथी राजनीति को चुनौती देने वाले विचार से ताल्लुख रखते हों।

 

लेखक: डॉ. आकाश कुमार रावत स्कूल ऑफ आर्ट्स एंड ह्यूमैनिटीज़, आईआईएमटी विश्वविद्यालय, मेरठ, उत्तर प्रदेश में इतिहास के सहायक प्रोफेसर हैं

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