राख से होली खेलने वाले आदिवासियों के बारे में जानते हैं आप, जानिए इसकी दिलचस्प वजह

Share News:

फागुन का महीना शुरू होते ही देश भर में होली की धूम शुरू हो जाती है। होली को भारत में रंगों का, खुशियों का और बहुत सारी मिठाइयों का त्योहार माना जाता है। वहीं अगर आप इसके ऐतिहासिक पक्ष को देखेंगे तो इसे बुराई पर अच्छाई की जीत के त्योहार के रूप में मनाया जाता है। बनारस और वृंदावन में तो होली की धूम अलग ही होती है। लठ्ठ मार होली, लड्डू वाली होली और भी ना जाने कितने तरीकों की होली हमारे देश भारत में खेली जाती है। लेकिन इस लेख में हम होली पर चर्चा नहीं करेंगे। बल्कि चर्चा करेंगे इस बात पर की देश के मूल निवासी कहे जाने वाले लोग यानी देश का आदिवासी समाज होली के त्यौहार को किस महत्व से देखता है और किस तरीके से मनाता है।

 

रंगो की होली नहीं खेलते थे यहाँ के आदिवासी :

आज से 70 साल पहले जब देश नया-नया आजाद हुआ था तब झारखंड के आदिवासी बहुत चाव से होली खेला करते थे। लेकिन ये होली रंगों से या रंग-बिरंगे फूलों से नहीं खेली जाती थी बल्कि राख से खेली जाती थी। इसके पीछे आदिवासी समाज का एक अलग ही तर्क होता था। हालंकि एक तर्क ये भी है कि उस दौरान देश में गरीबी थी और आदिवासी समाज जो शुरुआत से ही जल, जंगल जमीन के अलावा कुछ जानता ही ना हो इसलिए वह और भी गरीब थे। न्यूज 18 की एक खबर के मुताबिक, झारखंड की राजधानी रांची के जाने-माने साहित्यकार मनोज कपरदार बताते हैं कि 70 साल पहले गरीबी बहुत थी। उस समय आदिवासी समाज के लोग और भी गरीब थे। तो यह रंग गुलाल जैसी चीज का इस्तेमाल नहीं करते थे। बल्कि, वह होलिका दहन में एक दिन पहले जलाई गई लकड़ी की राख का इस्तेमाल करते थे।

 

 

राख ये ही क्यों खेलते थे होली :

ये बात तो हम सब जानते हैं कि आदिवासी समाज के रीति रिवाज हमेशा से ही अलग रहे है। वह अपने रीति रिवाज में किसी को दखल नहीं देने देते। मीडिया से ही बातचीत करते हुए मनोज करपरदार कहते हैं कि राख से होली खेलने के पीछे एक और कारण होता था। होली को हमेशा से हिंदू रीति रिवाजों के मुताबिक बुराई पर अच्छाई की जीत माना गया है। वहीं जब आदिवासी समाज के यहाँ होलिका दहन होता था तो इसी मान्यता के तहत माना जाता था कि होलिका दहन में बुराई पूरी तरह जलकर राख हो जाती है। इसलिए उत्सव में उसी राख को होली खेलने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। जिससे यह माना जाए कि बुराई जलकर पूरी तरह खाक हो गई है।

आदिवासी समाज बहुत हद तक बदल गया है :

जाने-माने साहित्यकार मनोज कपरदार आगे कहते हैं कि, अब समय काफी बदल गया है। अब लोग राख से होली नहीं खेलते बल्कि, रंग गुलाल और अबीर जैसी चीजों से होली खेलते हैं। राख पूरी तरह बंद हो चुकी है। क्योंकि, अब आदिवासी लोग काफी हद तक सशक्त हो चुके हैं।लेकिन ध्यान दें कि देश के कुछ अन्य हिस्सों में आदिवासी समाज होली को कई तरीकों से मनाता है। जैसे दैनिक भास्कर की एक साल पहले की एक रिपोर्ट बताती है कि छत्तीसगढ़ में जनजाति समुदाय होली को प्राकृतिक पर्व के तौर पर मनाता है। यहाँ 15 दिन पहले से त्योहार की तैयारी की जाती है। क्योंकि यहाँ कि जनजाति संस्कृति होली को सीधे तौर पर प्रकृति से जुड़ा हुआ मानती है। यहाँ होली को सिर्फ एक दूसरे पर रंग लगाकर मस्ती करने का त्योहार नहीं माना जाता बल्कि प्रकृति की पूजा और प्रकृति के प्रति आभार व्यक्त करने का त्योहार माना जाता है। गांव-गांव में अलग-अलग विधियों से होली की पूजा की जाती है।    

 

आदिवासियों के सशक्त होने का क्या मतलब है ?

 भारत की पहली जनगणना 1931 के मुताबिक भारत में आदिवासियों की जनसंख्या  2.2 करोड़ थी। 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में 8.6 प्रतिशत लोग आदिवासी हैं यानी भारत की पूरी जनसंख्या का 10 करोड़ 43 लाख मिलियन लोग आदिवासी हैं। आदिवासी समाज खुद को लगातार हर एक क्षेत्र में स्थापित कर रहा है। राजनीति से लेकर शिक्षा के क्षेत्र में आदिवासियों की संख्या बढ़ने लगी है। अकेले राजनीति की बात करें तो झारखंड स्टेट आदिवासी बहुल राज्य है। यहाँ लगातार मुख्यमंत्री पद  आदिवासियों का दबदबा है। विधानसभा के 81 सीटों में 44 जनरल , 29 जनजाति समुदाय और और 8 अनुसूचित जाति के लिए रिजर्व है। बीजेपी के नेता बाबूलाल मरांडी हो या अर्जुन मुंडा, हेमंत सोरेन हो या सिबु सोरेन सभी आदिवासी समुदाय से आते हैं। और इसे ही कहते हैं राजनीति में आदिवासियों का सशक्त होना। 

*दलित टाइम्स उन करोड़ो लोगो की आवाज़ है जिन्हें हाशिए पर रखा गया है। *

महिला, दलित और आदिवासियों के मुद्दों पर केंद्रित पत्रकारिता करने और मुख्यधारा की मीडिया में इनका प्रतिनिधित्व करने के लिए हमें आर्थिक सहयोग करें।

  Donate

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *