मरीचझापी नरसंहार के 45 साल, 10 हजार से भी ज्यादा हिंदू शरणार्थियों का हुआ था कत्ल-मरने वालों में ज्यादातर दलित

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दीप हालदार की पुस्तक ‘ब्लड आइलैंड’ में मरीचझापी नरसंहार अपने दर्द के साथ मौजूद है। दीप के किताब के हवालों को सच मानें तो तब उस नरसंहार में अनगिनत मकान और दुकानें जला दी गयीं, असंख्य महिलाओं के साथ दुष्कर्म हुूआ, सैंकड़ों लोगों की हत्या कर लाशों को पानी में फेंक दिया गया और जो फिर भी बच गए उन्हें ट्रकों में जबरन भरकर दुधकुंडी कैम्प में भेज दिया गया….

प्रेमा नेगी की रिपोर्ट

Marichjhapi massacre 45 Year : आज 31 जनवरी को इतिहास की सबसे भयावह कत्लेआम में से एक मरीचझापी नरसंहार की बरसी है। इतिहास में दर्ज घटनाओं के मुताबिक आज ही के दिन 45 साल पहले यानी 31 जनवरी 1979 को बंगाल के सुंदरबन में बसे ​द्वीप मरीचझापी में बांग्लादेशी हिंदू शरणार्थियों का पुलिस द्वारा नरसंहार किया गया था। जब यह भयानक नरसंहार हुआ था, तब बंगाल में ज्योति​ बसु की सरकार थी। उन पर आरोप है कि उन्होंने हजारों हिन्दू शरणार्थियों को इसलिए मरवा दिया था, क्योंकि उन्होंने भारत के विभाजन के खिलाफ वोट दिया था।

मीडिया में प्रकाशित रिपोर्टों के मुताबिक मरीचझापी में जो 10 हजार से ज्यादा लोग मारे गये, उनमें से अधिकतर दलित (नामशूद्र) थे। अमिताव घोष ने अपनी ‘द हंग्री टाइड्स’ मरीचझापी नरसंहार को केंद्र में रखकर लिखी है। उस समय के अखबारों, खासकर आनंद बाजार पत्रिका और स्टेट्समैन में मरीचझापी नरसंहार की रिपोर्टें प्रकाशित हुई हैं। मरीचझापी नरसंहार का सबसे खौफनाक विवरण पत्रकार दीप हालदार की पुस्तक ‘ब्लड आइलैंड’ (Blood Island: An Oral History of the Marichjhapi Massacre)’ में नजर आता है। दीप हालदार ने इस नरसंहार में जीवित बच गए लोगों और इससे संबंधित अन्य किरदारों के हवाले से उस खौफनाक नरसंहार को अपने शब्दों में पिरोकर इतिहास में दर्ज कर दिया है।

 

मीडिया में छपी खबरों की मानें तो, जनवरी 1979 में मरीचझापी द्वीप पर बांग्लादेश से आए लगभग 40,000 शरणार्थी बस गये थे। वन्य कानूनों का हवाला देकर बंगाल की तत्कालीन वामपंथी सरकार ने उन्हें खदेड़ने की साजिश रची थी और 26 जनवरी को मरीचझापी में धारा 144 लगा दी गई थी। कहा जाता है कि मरीचझापी टापू को 100 मोटर बोटों के माध्यम से घेर लिया गया था। इतना ही नहीं वहां रहने वाले लोगों की जरूरी दवाइयों और खाने—पीने के सामान समेत जरूरी सामनों की सप्लाई भी रोक दी गई थी। आरोप तो यहां तक हैं कि उस टापू पर मौजूद पीने के पानी के एकमात्र स्रोत में तक जहर मिला दिया गया था और उसके बाद 31 जनवरी 1979 को पुलिस की अंधाधुंध गोलीबारी में हजारोंहजार शरणार्थी मौत के मुंह में समा गये।

कहा जाता है कि इस भीषण कत्लेआम में 10,000 से अधिक लोग मारे गए। कुछ मीडिया रिपोर्टों की मानें तो, हाईकोर्ट के आदेश पर 15 दिन बाद रसद आपूर्ति की इजाजत लेकर एक टीम यहाँ पहुंची, जिसमें जाने-माने कवि ज्योतिर्मय दत्त भी शामिल थे। दत्त ने मीडिया को बताया कि उन्होंने भूख से मरे 17 व्यक्तियों की लाशें खुद देखीं। 31 जनवरी के नरसंहार के बाद भी लगभग 30,000 शरणार्थियों के मरीचझापी में बचे होने की बातें सामने आती हैं। कहा जाता है कि 31 जनवरी के बाद मई 1979 में बांग्लादेश से आये हिंदू शरणार्थियों को वहां से भगाने के लिए पुलिस के साथ तत्कालीन सरकार के कैडर भी पहुंचे थे।

दीप हालदार की पुस्तक ‘ब्लड आइलैंड’ में मरीचझापी नरसंहार अपने दर्द के साथ मौजूद है। दीप के किताब के हवालों को सच मानें तो तब उस नरसंहार में अनगिनत मकान और दुकानें जला दी गयीं, असंख्य महिलाओं के साथ दुष्कर्म हुूआ, सैंकड़ों लोगों की हत्या कर लाशों को पानी में फेंक दिया गया और जो फिर भी बच गए उन्हें ट्रकों में जबरन भरकर दुधकुंडी कैम्प में भेज दिया गया।

​दीप हालदार ने मरीचझापी नरसंहार के बारे में अपने पिता दिलीप हालदार से जाना। दिलीप हालदार ने मरीचझापी पर तो नहीं, लेकिन पूरी रिफ्यूजी समस्या पर एक किताब बंगाल के विभाजन के बाद से दलितों पर अत्याचार लिखी है। प्रसिद्ध लेखक अमिताव घोष की किताब द हंग्री टाइड्स की पृष्ठभूमि भी मरीचझापी नरसंहार है।

दीप हालदार की पुस्तक में एक प्रत्यक्षदर्शी के हवाले से कहा गया है कि, ’14-16 मई 1979 के बीच आजाद भारत में मानवाधिकारों का सबसे वीभत्स उल्लंघन किया गया। पश्चिम बंगाल की सरकार ने जबरदस्ती 10 हजार से अधिक लोगों को द्वीप से खदेड़ दिया। दुष्कर्म, हत्याएँ और यहाँ तक की जहर देकर लोगों की हत्याएं की गई और समंदर में लाशें दफन कर दी गईं। कम से कम 7000 हजार मर्द, महिलाएँ और बच्चे काल के गाल में समा गए।’ इस पुस्तक में मनोरंजन व्यापारी के हवाले से बताया गया है कि लाशें जंगल में भी फेंके गए और सुंदरबन के बाघों को इंसानी गोश्त खाने की लत गई।’

इस नरसंहार के बारे में दलित लेखक दलित लेखक मनोरंजन व्यापारी ने दावा किया था कि इस नरसंहार में लगभग 10,000 हिंदू मारे गए थे, जिसमें अधिकांश दलित थे। बंगाल में तीन दशक तक वामपंथी शासन में रहे। आरोप लगते हैं कि मरीचझापी नरसंहार के सारे सबूत मिटाने का काम तत्कालीन सरकार ने किया, इसलिए 1979 में हुई इस जलियावाला कांड जैसे नरसंहार के बारे में बहुत ज्यादा नहीं लिखा गया। इतना ही नहीं तत्कालीन वामपंथी सरकार पर मरीचझापा नरसंहार की यादों को पूरी तरह मिटाने का आरोप भी लगता रहा है।

वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल द प्रिंट में प्रकाशित अपनी एक रिपोर्ट में लिखते हैं, ’26 जनवरी, 1979 को पश्चिम बंगाल की लेफ्ट फ्रंट सरकार ने तय किया कि मरीचझापी द्वीप चूंकि टाइगर रिजर्व का हिस्सा है और यहां किसी को बसने की इजाजत नहीं दी जा सकती, इसलिए वहां अवैध तरीके से रह रहे लोगों को हटाया जाएगा। इस आदेश को अमल में लाने के लिए आर्थिक नाकाबंदी, कर दी गई। 17 मई, 1979 को राज्य के सूचना मंत्री ने पत्रकारों को बताया कि मरीचझापी को खाली करा लिया गया है।’

मरीचझापी नरसंहार हुआ तो 1979 में, मगर इसकी कहानी आजादी के समय 1947 में जब देश का विभाजन हुआ तब से जुड़ी है। आजादी के दौरान हमारे देश का विभाजन हुआ तो बंटवारे के बाद लाखों लोग बेघर हो गये। लाखोंलाख लोगों ने विभाजन का दर्द झेला, अपनों को खोया। इसी विभाजन को झेला बांग्लादेश के हिंदुओं ने। पार्टिशन के बाद बांग्लादेश में रहने वाले हिंदुओं का जब धार्मिक उत्पीड़न शुरू हुआ तो वह भारत आ गये। आजादी के वक्त दलित हिंदू बड़ी तादाद में बांग्लादेश में थे। चूंकि बांग्लादेश तब पूर्वी पाकिस्तान का हिस्सा था, इसलिए भारत आने वाले हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता नहीं दी जा रही थी। सरकारी कैंपों में इनकी हालत बहुत खराब थी। धीरे-धीरे हिंदू बांग्लादेशियों ने मरीचझापी द्वीप में अपना ठिकाना बनाना शुरू कर दिया था।

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