संत कबीर : कबीर के वो दोहे जो अंधविश्वास और पाखंडवाद की बखिया उधेड़ते है.. पढ़िए

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आज हम सबमें एक मस्तमौला कबीर जीवित है, आवश्यकता है तो बस अपने भीतर के कबीर को पहचानने की क्योंकि कबीर कोई साधारण व्यक्ति नहीं है, कबीर एक उच्च व्यक्तित्व है। कबीर के बिना भारत के महापुरुषों का अध्याय अधूरा प्रतीत होता है। तो चलिए आज इस लेख के माध्यम से 600 साल पुराने कबीर के विचारों को फिर से जीवित करने का एक छोटा सा प्रयास करते हैं।

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हर साल ज्येष्ठ माह की पूर्णिमा तिथि को संत कबीरदास जी की जयंती मनाई जाती है। संत कबीरदास के एक दोहे से पता चलता है कि कबीर निरक्षर थे। इस दोहे में कबीर कहते है कि “मसि कागद छूयौ नहीं कलम गहयौ नहीं हाथ।” अर्थात मैंने तो कभी कागज छुआ नहीं है, और कलम को कभी हाथ में पकड़ा ही नहीं है।

निरक्षर होने पर भी वे एक महान् दार्शनिक थे। माना जाता है कि उनका जन्म सन् 1398 ईसवी में उत्तर प्रदेश के वाराणसी के लहरतारा नामक स्थान में हुआ था, और 1518 ई. में उनकी मृत्यु हो गई थी। कबीर कवि होने से पहले एक समाजसुधारक थे। कबीर ने अपने जीवन में समाज से पाखंड, अंधविश्वास को दूर करने का भरसक प्रयास किया।

 

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कबीर के अनमोल विचार और दोहे किसी सुंदर मोती की तरह हैं जिसमें सुखमय जीवन का राज छिपा है। अपने दोहे से कबीर ने जन जागरण की अलख जगाने की कोशिश की। 15-16वीं शताब्दी में बनारस, जोकि सनातन धर्म की राजधानी है वहाँ पर कबीर, ब्रह्मण को यह कहने की हिम्मत रखते है कि,”पाड़े तुम निपुण कसाई”

इसी से उनके उच्च दर्जे के व्यक्तित्व का पता लगाया जा सकता है। हम सभी जानते हैं कि कबीरदास जात-पात, ऊंच-नीच का कोई भेदभाव नहीं करते थे। वे सदैव इंसान के ज्ञान को ही महान बताते हैं। वे कहते हैं कि मनुष्य का कार्य उसे महान बनाता है।

जैसे -“जाति न पूछो साधू की पूछ लीजिए ज्ञान।

मोल करो तलवार का पड़ा रहन दो म्यान।”

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कबीर कहते हैं कि किसी भी व्यक्ति से उसके जाति-धर्म के बारे में ना पूछ कर उसके ज्ञान के बारे में जानना चाहिए, उसे समझना चाहिए। क्योंकि तलवार का मूल्य होता है न कि उसको ढ़कने वाले खोल का। कबीरदास ने ऊंच और नींच का सम्बन्ध किसी व्यवसाय से नही जोड़ा। वे किसी भी व्यवसाय को नीचा नहीं समझते थे, और स्वयं अपने आप को जुलाहा बताते हैं।

 

कबीर जाति को लेकर यह भी कहते है कि –

“ऊँचे कुल का जनमिया पर करनी ऊँची न होय।

सुवर्ण कलश सुरा भरा, साधू निंदा होय।”

अर्थात ऊँचे कुल में जन्म लेने के पश्चात भी अगर कर्म ऊँचे नहीं है तो ये वही बात हुई जैसे जहर सोने के लोटे में भरा हो तो भी उसकी चारों ओर निंदा ही होती है। कबीर दास 15वीं शताब्दी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। उन्होंने समाज सुधारने के लिए स्वयं में सुधार की शुरूआत पर बल दिया। और कहा –

“बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।

जो मन देखा आपना, मुझसे बुरा न कोय।”

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इसका यह भावार्थ है कि वह सारा जीवन दूसरों की बुराइयां देखने में लगे रहे लेकिन जब उन्होंने अपने खुद में झांक कर देखा तो पाया कि उनसे बुरा इंसान कोई भी नहीं है, क्योंकि स्वयं को छोड़कर वो सबकी बुराइयाँ ही तलाश कर रहें है, जोकि स्वार्थी और आत्ममुग्धता से भरे स्वभाव का परिचायक है। ठीक इसी तरह सभी लोग दूसरे के अंदर बुराइयां ही देखते हैं परंतु खुद के अंदर कभी झांककर नहीं देखते, अगर वह खुद के अंदर झांक कर देखे तो उन्हें पता चलेगा कि उनसे बुरा इंसान कोई भी नहीं है।

 

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वो इतने निर्भीक थे कि स्वयं में सुधार के लिए अपनी निंदा करने वालों की भी सराहना करते है। जैसे –

“निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय।

बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।”

इस दोहे का अभिप्राय है की स्वयं की निंदा करने वालों से कभी भी घबराना नहीं चाहिए, अपितु उनका सम्मान करना चाहिए। क्योंकि वह हमारी कमियां हमें बताते हैं, हमें उस कमी को दूर करने का प्रयास करना चाहिए।

कबीर दास जी हिंदी साहित्य की निर्गुण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि थे। कबीर दास की वाणी को साखी, सबद, और रमैनी के रूप में तीन भागों में लिखा गया है। कबीर ईश्वर को मानते थे और किसी भी प्रकार के कर्मकांड का विरोध करते थे। कबीर दास बेहद ज्ञानी थे, स्कूली शिक्षा ना प्राप्त करते हुए भी उनके पास भोजपुरी, हिंदी, अवधी जैसी  विविध भाषाओं में अच्छी पकड़ थी। उनके लेखन ने हिंदू धर्म के भक्ति आंदोलन को प्रभावित किया।

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संत कबीर दास के जन्म को लेकर कई किंवदंतियां सुनने को मिलती है, कुछ कहते है कि कबीर एक विधवा ब्रह्माणी के गर्भ से जन्में थे और समाज के भय से उन्होंने कबीर को काशी के पास लहरतारा नामक ताल के पास छोड़ दिया था, जिसके बाद एक जुलाहे ने उनकी देखभाल की। वहीं कई लोग कहते है कि कबीर दास जन्म से मुस्लिम थे, लेकिन उन्हें रामानंद से राम नाम का ज्ञान मिला। कबीरदास ने सामाजिक बुराईयों को दूर करने के लिए प्रेम की प्रधानता पर जोर दिया, और कहा –

“पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ पण्डित भया न कोय।

ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पण्डित होय। ”

अर्थात मोटी-मोटी किताबें पढ़ने से कोई ज्ञानी नहीं हो सकता, जब तक वह ढ़ाई अक्षर के इस ‘प्रेम’ शब्द के बारे में न जान ले। जो ढ़ाई अक्षर के इस शब्द को जान लेते हैं वही सच्चे ज्ञानी हैं। कबीर ने हमेशा आपस में प्रेम भाव से एक-दूसरे को समझने-समझाने के लिए कहा। लेकिन वर्तमान में हम प्रेम करना छोड़कर प्रेम से डरना सीख रहे हैं, और डरे भी क्यों न हम? आज प्रेम, प्रेम रहा कहाँ? व्यापार बन चुका है। हमें समझना होगा कि

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“प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाए।

राजा प्रजा जो ही रुचे, सिस दे ही ले जाए।”

कबीर एक ऐसा व्यक्तित्व जो धर्म जाति से परे ज्ञानी और ज्ञान की बात करते है, मानवता की बात करते हैं, ईश्वर के निराकार स्वरूप की और प्रेम की बात करते हैं।

संत कवि कबीरदास आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरो पर कुठाराघात करते रहे। वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे। इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ झलकती है। लोक कल्याण के लिए मानो उनका समस्त जीवन न्यौछावर था। उनका साहित्य जन जीवन को उन्नत बनाने वाला, मानवतावाद का पोषक, और विश्व बंधुत्व की भावना जागृत करने वाला है।

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कबीर न केवल एक नाम है बल्कि जीवन जीने का तरीका है। कबीरदास का जन्म उस समय में हुआ जब देश आतंक एवं जात-पात जैसी समाजिक कुरितियों से जुझ रहा था। उस समय संत कबीर दास ने समाज में फैली बुराइयों का सिर काटना शुरू किया और समाज को दिशा दी। वह समाज को जोड़ने का काम करते थे, इसीलिए उनकी वाणी अमृतवाणी है। संत कबीरदास ने बुराइयों के खिलाफ संघर्ष किया, उनका सबसे बड़ा उद्देश्य जाति, पंथ के आधार पर समाज का विभाजन न होने देना था। आज भी समाज में कई जाति के लोग हैं, समाज में समरसता, एकता, और अखंडता की जरूरत आज भी है। कबीर जातिवाद, पाखंडवाद और ब्राह्मणवाद का न केवल विरोध करते है, बल्कि अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष करने की प्रेरणा भी देते हैं।

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संत कबीर दास जातिवाद पर विश्वास नहीं करते थे। व्यक्तित्व निर्माण के लिए किताबी ज्ञान के अलावा व्यवहारिक ज्ञान होना भी आवश्यक है। वह सच्चे अर्थों में निर्भीक और समाज सुधारक पुरुष थे। कबीर जीवन के अंतिम सत्य से सभी को अवगत कराते हैं।

“माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे।

एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे।”

कबीर ने जाति के संबंध में कहा कि –

‘जाति-पाती पूछे नही कोई, जो हरि को भजे सोई हरि को होई’

जाति के साथ ही उन्होंने धर्म पर भी प्रहार किया, साथ ही हिन्दू-मुस्लिम की बढ़ती खाई को पाटने का काम भी संत कवि कबीरदास ने ही किया। उन्होने भगवान का निवास स्थान मनुष्य में ही बताया है…और कहा है –

“मोको कहाँ ढूँढ़े बंदे , मैं तो तेरे पास में।

ना मैं देवल ना मैं मसजिद , ना काबे कैलास में।

ना तो कौने क्रिया-कर्म में, न हीं योग वैराग में।

खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पलभर की तलास में।

कहैं कबीर सुनो भई साधो, सब स्वासों की स्वास में॥”

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अर्थात् कबीर कहते हैं कि मोको यानी कि मुझे कहाँ ढूंढते हो बंदे, मैं तो तेरे पास में ही हूं। यहाँ मोको का अभिप्राय ईश्वर से है जो स्वयं कह रहे हैं कि मुझे तुम कहाँ ढूँढते हो मैं तो तुम्हारे पास में ही हूं। न मैं मंदिर में हूं, न मैं मस्जिद में हूं, न काबे में हूं और न ही कैलाश में हूं, मैं न ही किसी क्रिया कर्म में हूं और न ही किसी योग बैराग में हूं। अगर तुम मुझे पाना चाहते हो तो तुम पल भर की तलाश में यानी एक क्षण की तलाश में मुझे ढूँढ लोगे, क्योंकि मैं तो हर एक प्राणी के श्वास में बसा हुआ हूं।

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वो अपने एक दोहे में यह भी बताते हैं कि

“कस्तुरी कुंडल वसै, मृग ढ़ूढे वन माहिं,

ऐसे घर-घर राम हैं, दुनियां देखे नाहिं।”

अर्थात जिस प्रकार कस्तूरी मृग की नाभि में रहता है, लेकिन मृग अज्ञान-वश उसे जंगल में खोजता-फिरता है। उसी तरह सर्वशक्तिमान भगवान और आनंद मनुष्य के अपने अंतर हृदय में ही अवस्थित है, लेकिन अज्ञानी मानव सुख शांति की तलाश में बाहर-अंदर घूमता रहता है, जो कि व्यर्थ है। कबीर भक्ति को आकर्षण दिखाकर लोगों के हृदय में शांति का संचार करना चाहते हैं।

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कबीर दास जीवन में धैर्य धारण करने को कहते है जैसे –

“धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,

माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।”

कबीर कहते हैं कि किसी भी काम को पूरा होने के लिए निश्चित समय लगता है, उससे पहले कुछ भी नहीं हो सकता। इसलिए हमें अपने मन में धैर्य रखना चाहिए और अपने काम को पूरी निष्ठा से करते रहना चाहिए। कबीर उदाहरण देते हैं कि यदि माली किसी पेड़ को सौ घड़ा पानी सींचने लगे तो भी क्या उस पर तुरंत फल आ जाएगा? नहीं तब भी उसे ऋतू आने पर ही फल मिलेगा। इसलिए हमें धीरज रखते हुए अपने कार्य को करते रहना चाहिए, समय आने पर फल जरूर मिलेगा।

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संत कवि कबीरदास एक समतामूलक समाज को बनाने की प्रेरणा देते हैं। और एक दोहे में कहते हैं – कबीर की जाति क्या थी? यह प्रश्न कई बार उठता है जोकि उनके दोहे के आघातों को सह नहीं पाता और निरार्थक होने के कारण टूट जाता है। कबीर सिर्फ इंसानियत को ही अपना धर्म मानते है। कबीर ने समाज में व्याप्त पाखण्डवाद का विरोध किया है।

“दिन भर रोजा रहत है, रात हनत दे गाय।

यह तो खून व बन्दगी, कैसे खुशी खुदाय।।”

कबीर उन लोगों पर व्यंग्य करते हैं जो दिन भर तो व्रत करते हैं परन्तु रात होते ही गाय को मारकर खा जाते हैं।   कबीर कहते हैं कि मैं नहीं समझ पाया कि ये कैसी खुशी है, जिसमें किसी की हत्या करके ईश्वर प्रसन्न हो सकता है।

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कबीर हमेशा सार्वजनिक कल्याण की बात करते हैं, कबीर के विचारों को जीवन में तन्मयता से उतारने की आवश्यकता है। मैं स्वयं भी इस विचार पर अमल करने का प्रयास करता हूं।

“कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सब की खैर।

ना काहू सों दोस्ती, न काहू सों बैर।।”

कबीर सबके मंगल की कामना करते हुए कहते हैं कि इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि भला हो संसार में यदि किसी से दोस्ती नही तो दुश्मनी भी न हो। कबीर मनुष्यो को एक ही शक्ति से उत्पन्न हुआ मानते हैं। कबीरदास परिश्रम द्वारा समाज में व्याप्त गरीबी को दूर करना चाहते थे।

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“कबीरदास ऐसे ही मिलन बिन्दु पर खड़े थे, जहाँ एक ओर हिन्दू निकल जाता था तो दूसरी ओर मुस्लमान, जहाँ एक ओर ज्ञान -भक्ति मार्ग निकल जाता था, तो दूसरी ओर योग-मार्ग,  जहाँ एक ओर निर्गुण भावना निकल जाती, तो दूसरी ओर सगुण साधना। उसी प्रशस्त चैराहे पर वो खड़े, दोनो को देख सकते थे, और परस्पर विरूद्ध दिशा में गए। मार्गों के गुण, दोष उन्हे स्पष्ट दिखाई दे जाते थे।”

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सादा जीवन व्यतीत करने में विश्वास करने वाले कबीर ने राम और रहीम के नाम पर चल रहे भेदभाव तथा उनके बीच बनती खाई को पाटने की पूरी कोशिश की है। कबीर एक महान क्रान्तिकारी थे। जिन्होने बड़े निडर भाव से अपने विचारों को व्यक्त किया है। कबीर ने समाज में एक नई धारा अर्थात प्रेम की धारा का प्रवाह किया।

कबीर की उलटबांसियाँ

कबीर की उलटबांसी रचनाओं से तात्पर्य कबीर की उन रचनाओं से है, जिनके माध्यम से कबीर ने अपनी बात को काफी घुमा-फिरा कर कहा है, जिससे पाठक इसके प्रचलित अर्थ में ही उलझा रह जाता है, जबकि कबीर का कहने का तात्पर्य इसका विपरीत यानि उल्टा कहने का रहा है। इसलिए इन रचनाओं को ‘उलटबांसी’ कहा जाता है।

उदाहरण –

देखि-देखि जिय अचरज होई

यह पद बूझें बिरला कोई

धरती उलटि अकासै जाय,

चिउंटी के मुख हस्ति समाय

बिना पवन सो पर्वत उड़े,

जीव जन्तु सब वृक्षा चढ़े

सूखे-सरवर उठे हिलोरा,

बिनु-जल चकवा करत किलोरा।

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अर्थात धरती उलटकर आकाश की ओर चल दी, हाथी चींटी के मुँह में समा गया, पहाड़ बिना हवा के ही उड़ने लगा, सारे जीव जन्तु सब वृक्ष पर चढ़ने लगे। सूखे सरोवर में हिलोरें उठने लगीं और चकवा बिना पानी के ही कलोल करने लगा। कबीर ने इस उलटबांसी के माध्यम से किसी योगी की आंतरिक और बाह्य स्थिति का वर्णन किया है। यानि जब संत-योगी जागता है तो संसार सोता है, जब संत-योगी सोता है, तो संसार जागता है।

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कबीर का कहने का तात्पर्य यह है कि इस भौतिक जगत के जो कर्म-व्यवहार है, वो आध्यात्मिक जीवन में एकदम उलटे हो जाते हैं। यानि धरती आकाश बन जाती है, हाथी के मुँह में चींटी की जगह चींटी के मुँह में हाथी चला जाता है, जो पहाड़ हवा से उड़ता है वो बिन हवा के ही उड़ने लगता है, जीव-जन्तु जो भूमि पर विचरण करते हैं, वो वृक्षों पर चढने लगते हैं, पानी से भले सरोवर में ही हिलोरे उठती है, लेकिन यहाँ सूखे सरोवर में उठने लगती हैं और चकवा जो जल को देखकर कलोल करता है, वो बिना जल के ही कलोल करने लगता है, यानि सब काम उल्टे होने लगते हैं।

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भौतिक जगत और आध्यात्मिक जगत में यही अंतर है, जिसे कबीर अपनी इस उलटबांसी के माध्यम से कहा है। हिंदू, मुसलमान, ब्राह्मण, धनी, निर्धन सबका वही एक प्रभु है। सभी की बनावट में एक जैसी हवा। खून पानी का प्रयोग हुआ है। भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, नींद सभी की जरूरते एक जैसी हैं। सूरज प्रकाश और गर्मी सभी को देता है। वर्षा का पानी सभी के लिए है। हवा सभी के लिए है। सभी एक ही आसमान के नीचे रहते हैं।

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इस तरह जब सभी को बनाने वाला ईश्वर, किसी के साथ भेदभाव नहीं करता। तो फिर मनुष्य, मनुष्य के बीच ऊंच-नीच, धन-निर्धन, छुआछूत का भेदभाव क्यों करता है। ऐसे ही कुछ प्रश्न कबीर के मन में उठते थे। जिसके आधार पर उन्होंने मानव मात्र को सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। कबीर ने अपने उपदेशों के द्वारा, समाज में फैली बुराइयों का कड़ा विरोध किया। एक आदर्श समाज की स्थापना पर बल दिया।

 कबीर आज भी जीवित है हम सब में!!

– दिपाली सिंह

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