कौशल्या बैसंत्री का जन्म महाराष्ट्र में 8 सितंबर को 1927 में हुआ था और यह एक दलित लेखिका थीं। कौशल्या बैसंत्री की आत्मकथा “दोहरा अभिशाप” (द डबल कर्स) 1999 ई. में प्रकाशित हुई थीं। दोहरा अभिशाप के माध्यम से लेखिका ने समाज में दलित महिलाओं के साथ होने वाले संघर्ष के बारे में बताया है। लेखिका ने इस आत्मकथा में अपने जीवन और अपने माता पिता के जीवन के संघर्षों के बारे में भी बताया है।
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विवाह करने की अलग विधि:
दोहरा अभिशाप में लेखिका ने दलित समाज की अच्छाई और बुराई दोनों के बारे में बताया है। अपनी आत्मकथा में जहां सवर्ण लोग विधवा के दोबारा विवाह करने के खिलाफ होते हैं वहीं दूसरी तरफ यदि दलित समाज में विधवा महिला दोबारा शादी करना चाहती है तो वह कर सकती हैं लेकिन इस विवाह को करने की विधि अलग है जिसे विवाह कहने के बजाय “पाट” कहा जाता है। अपनी आत्मकथा “दोहरा अभिशाप” के जरियें लेखिका ने दलित महिलाओं की स्थिति का दुखद वर्णन किया है।
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मजदूरी और संघर्ष किया:
कौशल्या बैसंत्री के माता पिता बहुत मेहनती थें और बाबा साहेब अंबेडकर के विचारों से काफी प्रभावित थें। आर्थिक तंगी का सामना करने के बावजूद भी उन्होंने अपने बच्चों को पढ़ाया। कौशल्या बैसंत्री के माता पिता ने जीवनभर मजदूरी और संघर्ष किया। उनके पिता ने तकरीबन 18 साल तक बेकरी में काम किया लेकिन आय न बढ़ने पर उन्होंने यह नौकरी छोड़ दी और बाद में कबाड़ी का काम करने लगे। फिर बाद मे उनके माता पिता दोनों नागपुर की इम्प्रेस मिल में काम करने लगे। कौशल्या बैसंत्री कहती हैं कि “आई और बाबा जिस बस्ती में रहते थे, उसका नाम था – खलासी लाइन्स।….मेरा जन्म इसी खलासी लाइन्स में 8-9-1926 को हुआ था।”
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महिलाओं के साथ अत्याचार:
लेखिका ने आत्मकथा में अपने समाज में महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचारों के बारे में भी बताया है। उनका कहना है कि स्त्री का दर्जा समाज में केवल एक दासी का है। भले ही स्त्री दलित समाज से हो या सवर्ण हो महिलाओं के साथ अत्याचार होता है। लेकिन दलित महिलाओं के साथ तिहरा शोषण होता है। दलित होने के नाते उनके साथ जातिगत भेदभाव होता है वह दिनभर मजदूरी करती हैं। फिर सवर्ण पुरुषों के अलावा वह अपने पतियों द्वारा भी शोषित होती हैं।
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महिलाओं का शोषण :
दलित महिला के साथ हो रहे अत्याचार पर आधारित घटना का जिक्र करते हुए लेखिका ने लिखती हैं कि सखाराम की पत्नी दिनभर दिहाड़ी मजदूरी करती थीं। वह ईट सीमेंट ढोकर मिस्त्री को देती हैं। वह देखने में बहुत सुंदर है। मिस्त्री बहुत बदमाश था वह आते जाते उसे छेड़ा करता था। इस बात से परेशान सखाराम की पत्नी ने एक दिन उस मिस्त्री की छाती पर सीमेंट का गोला दे मारा। सारी बात उसने अपने पति को बताई अपनी बीवी की मदद करने के बजाय उसने अपनी पत्नी को डांटना शुरु कर दिया। और कहने लगा वहां और भी औरते काम करती हैं फिर वह तुम्हें ही क्यों छेड़ता है? बदचलन कहकर उसे रातभर बाहर रखा गया और सुबह उसे गधे पर बैठाया गया। इस घटना से आहत होकर वह महिला कुएँ में कूद गई। सवेरे उसका शरीर पानी के ऊपर तैर रहा था और उस महिला के माता पिता ने कहा अच्छा हुआ कुलटा मर गई।
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पितृसत्ता के दंश से दुखी
इसी तरह एक अन्य महिला के बारे में लेखिका ने ठुमी नाम की महिला के बारे में कहती हैं कि वह अपने पति की दूसरी पत्नी है, जो सुबह से शाम तक काम करती है और हर साल बच्चा पैदा करती है। उनके घर में ढेर सारे बच्चे थे। बच्चों के लिए बाज़ार से पुराने कपड़े आते। उनके घर में हमेशा आलू-बैगन की सब्जी बनती थी। लेखिका ने आत्मकथा मे अपनी बस्ती को औरतों के लिए कहती हैं कि ज़्यादातर औरतें मेहनती थीं। लेकिन महिलाएं पितृसत्ता के दंश से दुखी थीं।
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बस्ती का जिक्र किया :
अपनी बस्ती का जिक्र करते हुए कौशल्या बैसंत्री बताती हैं कि– “बस्ती में ज़्यादा घर मिट्टी के थे। कुछ घास-फूस की झोपड़ियां भी थीं, पर बहुत कम। जो थोड़े पैसे वाले थे, उनके मकान ईंट के थे। ऐसे घर पूरी बस्ती में 5-6 ही होंगे।… ज्यादातर महार जाति के अछूत यहां रहते थे। कुल 10-15 घर आंध्र प्रदेश के चमारों के थे। क़रीब 30-40 घर सफ़ाईकर्मियों के थे। मांग (अछूत) जाति के भी लगभग 15 घर थे।…महार लोगों की संख्या बस्ती में ज़्यादा थी।… महार जाति के कुछ लोग नागपुर के इम्प्रेस और मॉडल मिल में काम करते थे… मांग जाति से महार लोग छुआछूत बरतते थे…”
बाबा साहेब अंबेडकर से प्रभावित :
कौशल्या बैसंत्री बाबा साहेब अंबेडकर से काफी प्रभावित थीं। बाबा साहेब अंबेडकर के जीवन और संघर्ष को जानकर ही वह जातीय अपमान के दंश को झेल सकी और उसके खिलाफ उनकी आवाज़ बुलंद रही। लेखिका कहती हैं– “मैं अस्पृश्य हूं, यह भावना मन से कभी जाती ही नहीं थी।” लेकिन, स्कूल में, समाज में हर जगह तमाम जातीय उत्पीड़न और अपमान का सामना करते हुए भी उन्होंने बाबा साहब द्वारा दिए गए शिक्षा का मूल मंत्र कभी नहीं त्यागा।
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विवाह संस्था में दासी :
अपनी आत्मकथा में अपने समाज की महिलाओं की स्थिति का वर्णन करने वाली लेखिका कौशल्या बैसंत्री ने भी अपने वैवाहिक जीवन में पितृसत्ता का सामना किया था। दरअसल कौशल्या बैसंत्री का विवाह देवेन्द्र कुमार से हुआ था। देवेन्द्र कुमार दलित समुदाय का पढ़ा लिखा व्यक्ति था लेकिन उसकी पितृसत्तात्मक मानसिकता के कारण कौशल्या बैसंत्री को वैवाहिक जीवन में खुशी नहीं मिली। “फॉरवर्ड प्रेस” के अनुसार देवेन्द्र कुमार कौशल्या बैसंत्री को बात बात पर गंदी गालियां देता और भयंकर क्रूरता से मारता था। आज़ाद रहने वाली कौशल्या पति की गुलाम बनकर रह गई। इतनी पढ़ी-लिखी लड़की विवाह संस्था में दासी बन गई थीं।
कौशल्या बैसंत्री की आत्मकथा में पितृसत्ता और दलित महिलाओं के शोषण का चित्रण प्रस्तुत हुआ है। एक तरफ महिलाओं के साथ दलित समाज का होने के कारण जातिगत भेदभाव होता है वहीं दूसरी तरफ अपने पतियों से ही शोषण का सामना करती हैं। शायद इसे ही लेखिका दोहरा अभिशाप के तौर पर वर्णित करती हैं। जीवन के संघर्षों का सामना करते हुए कौशल्या बैसंत्री की 24 जून 2011 में मृत्यु हो गई थीं।
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