सामाजिक न्याय के लिए जातीय जनगणना ज़रूरी : योगेंद्र यादव

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मोहम्मद ज़मीर हसन | दलित टाइम्स

जातिगत जनगणना को लेकर पिछले कुछ दशकों से भारतीय समाज में व्यापक बहस चल रही है। इसका कारण अधिकांश लोगों की यह राय है कि यदि जातियों की गिनती कर ली जाये तो सामाजिक न्याय की अवधारणा को प्रभावी ढंग से लागू किया जा सकता है। इस दृष्टिकोण के अपने पक्ष और विपक्ष हैं। सकारात्मक दृष्टिकोण को सही ठहराने के लिए, उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद के वामपंथी, दलित और बहुजन के तत्वाधान में राजनीति विज्ञान विभाग के सेमिनार हॉल में “ए टॉक ऑन वाई वी नीड ए कॉस्ट सेन्सस” विषय पर एक सेमिनार का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम के मुख्य वक्ता प्रोफेसर योगेन्द्र यादव थे।

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जातिगत जनगणना अहम क्यों

भारत में लगातार अंबेडकरवादी, लोहिया और समाजवादी विचारधारा से जुड़े लोग जातिगत जनगणना की मांग लगातार कर रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है कि देश में हर रोज़ जातिगत उत्पीड़न में बढ़ोतरी देखने को मिल रही है। इतना ही नहीं, अतिपिछड़े और पिछड़े वर्ग को जाति सूचक उत्पीड़न के साथ- साथ उन्हें सरकारी योजनाओं से भी वंचित रखा जाता है। इस तरह का मामला, तमिलनाडु जैसे राज्यों में देखने को मिला, ‘वानाविल ट्रस्ट’ सर्वेक्षण के मुताबिक महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ‘एमजीएनआरईजीएस’ (MGNREGS), मुख्यमंत्री व्यापक स्वास्थ्य बीमा योजना ‘सीएमसीएचआईएस’ (CMCHIS), मुफ्त भूमि पट्टे जारी करने और प्रधान मंत्री आवास योजना जैसी 10 से अधिक सरकारी योजनाओं का लाभ दलित समुदायों की पहुंच तक है ही नहीं, इसका अध्ययन करने पर पता चलता है कि अधिकांश परिवार पात्र होते हुए भी इन योजनाओं से लाभान्वित नहीं होते। वहीं, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, 2019 में भारत में दलितों के खिलाफ सभी अपराधों में से 84% नौ राज्यों में थे, हालांकि वे देश की एससी आबादी का केवल 54% थे। सबसे अधिक दरें (दलितों की प्रति लाख आबादी पर अपराध की संख्या) राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार और गुजरात में थीं। राष्ट्रीय औसत से ऊपर की दर वाले अन्य राज्य तेलंगाना, यूपी, केरल, ओडिशा और आंध्र प्रदेश थे।

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भारत में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से पिछड़ी जातियों के विकास के लिए जनगणना में जाति गणना जरूरी

इस मौके पर प्रोफेसर योगेन्द्र यादव ने कहा, “भारत में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से पिछड़ी जातियों के विकास के लिए जनगणना में जाति गणना एक अहम मांग है। जाति गणना को एक सामाजिक आवश्यकता के रूप में देखना चाहिए, और इसके माध्यम से ही भारत देश में पूर्ण सामाजिक न्याय प्राप्त किया जा सकता है।”

उन्होंने आगे कहा, “आज़ादी के बाद भी सामाजिक न्याय पूरी तरह से लागू नहीं हुआ और कुछ लोग साजिश कर रहे हैं। जातियों की जनगणना केवल एससी, एसटी और ओबीसी तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए, बल्कि ऊंची जातियों की भी गिनती होनी चाहिए और तभी पता चलेगा कि सरकारी योजनाओं, संवैधानिक पदों का लाभ कौन उठा रहा है। इसलिए सामाजिक न्याय के लिए लड़ने वाले दलों, छात्र संघों, प्रोफेसरों, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को इस जाति व्यवस्था की मांग को व्यापक रूप से लोगों तक ले जाना चाहिए और केंद्र सरकार के खिलाफ दबाव डालना चाहिए।”

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बिहार सरकार ने जातिगत जनगणना करवाकर दिया एक संदेश

बिहार सरकार का मानना है कि गणना से मिले आंकड़े जाति के संदर्भ में स्पष्ट जानकारी देने का काम करेंगे। इससे सरकार को विकास की योजनाओं का खाका तैयार करने में मदद मिलेगी। जातीय जनगणना के बाद यह साफ हो जाएगा कि कौन सी जाति आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक स्तर पर पिछड़ी हुई है। ऐसे में उन जातियों तक इसका सीधा लाभ पहुंचाने के लिए नए सिरे से योजनाएं बनाई जा सकती हैं। 

पटना हाईकोर्ट ने जातिगत जनगणना पर रोक लगायी, फिर जारी रखने का निर्देश दिया

पटना हाई कोर्ट में जातिगत जनगणना के खिलाफ एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें यह कहा गया था कि जातिगत जनगणना का कार्य राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। इसके बाद पटना हाई कोर्ट ने बिहार में चल रहे जातिगत गणना और आर्थिक सर्वेक्षण पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दिया था। हालांकि, 2 अगस्त को पटना हाई कोर्ट ने जाति आधारित गणना एवं आर्थिक सर्वेक्षण को चुनौती देने वाली आधा दर्जन याचिकाओं को खारिज कर दिया। इसके साथ ही इस गणना का रास्ता साफ हो गया है। इसके तुरंत बाद ही प्रदेश में गणना पुनः शुरू हो गयी। आधिकारिक तौर पर यह जानकारी दी गयी कि जाति आधारित गणना का सौ फीसद काम पूरा हो गया है। इसके डेटा इंट्री का काम भी 50% पूरा कर लिया गया है। आंकड़ों को बहुत जल्द अपलोड किया जाएगा।

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पटना हाईकोर्ट आदेश के बाद जनगणना का मामला सुप्रीमकोर्ट पहुंचा

बिहार में हो रही जातीय जनगणना का मामला एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है। इसे लेकर शीर्ष अदालत में याचिका दायर की गई है। इसमें पटना हाईकोर्ट के एक अगस्त के फैसले को चुनौती दी गयी है। हाईकोर्ट ने मंगलवार को जाति जनगणना को सही ठहराया और इसके खिलाफ दायर सभी याचिकाओं को खारिज कर दिया। अब इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल की गई है। हालांकि, नीतीश सरकार पहले ही कैविएट दाखिल कर सुप्रीम कोर्ट से कह चुकी है कि उसका पक्ष जाने बिना कोई आदेश न दिया जाए।

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट में जातीय जनगणना पर पटना हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ एसएलपी दायर की गई। वकील तान्याश्री ने आवेदक अखिलेश कुमार की ओर से यह अर्जी शीर्ष अदालत में लगाई। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट में नीतीश सरकार की ओर से कैविएट दायर किया गया था। इसमें सरकार की ओर से कहा गया कि अगर जातिगत गणना पर रोक लगाने की मांग वाली कोई याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर हो, तो सरकार का पक्ष जाने बिना आदेश न दिया जाए।

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जाति जनगणना कठिन है लेकिन असंभव नहीं

नेल्ली सत्या, ओस्मानिया यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र शोधकर्ता हैं। नेल्ली सत्या कहते हैं,”वर्तमान जाति जनगणना में विशेष रूप से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति शामिल हैं, लेकिन अन्य पिछड़ी जातियों और सामान्य वर्ग को शामिल करने के लिए इसका दायरा बढ़ाने की जरूरत है”

आगे कहते हैं, “जनगणना का विरोध करने वाले सही आंकड़ों का सामना करने में अनिच्छुक लगते हैं, क्योंकि यह रहस्योद्घाटन वंचितों की आवाज को बढ़ावा देगा, संभावित रूप से इस विरोधी गुट के प्रचलित प्रभुत्व को कमजोर भी करेगा। जाति जनगणना सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के लिए एक आवश्यक उपकरण के रूप में कार्य करेगी। इस पर तमाम अंबेडकरवादी विचार धाराओं के लोगों को ज़ोर देना चाहिए।”

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