भीमाकोरेगांव शौर्य दिवस: पेशवाओं के जातिवाद के खिलाफ महारो के आत्मसम्मान की लड़ाई

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बाबा साहेब अंबेडकर ने कहा है कि “गुलामों को उनकी गुलामी का एहसास करा दो वो खुद गुलामी की बेड़ियों को तोड़ देंगे।” बाबा साहेब ने ये बात कही तो 19 सौ के दशक में थी लेकिन इसका सटीक उदहारण भीमाकोरेगंव में लड़ा गए वो युद्ध है जो लड़ा तो पेशवाओं और अंगेज़ो के बीच गया था लेकिन दलितों के लिए शौर्य दिवस के तौर पर इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया।

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हर साल 1 जनवरी को पुणे के भीमाकोरेगांव में स्थित विजय स्तंभ पर लाखों की संख्या में दलित समाज के लोग इक्ट्ठा होते हैं और 1 जनवरी 1818 में शहीद हुए उन 500 माहार सैनिकों को श्रद्धांजलि देते हैं, नमन करते हैं जिन्होंने पेशवाओं के जातिवाद और ब्राह्णवाद के खिलाफ भीमाकोरेगांव की लड़ाई लड़ी थी।

 

पुणे से 40 किलोमीटर दूर स्थापित विजय स्तंभ (भीमाकोरेगांव में महारों की जीत का प्रतीक)

 

इस ऐतिहासिक युद्ध में महज 500 महार सैनिकों ने पेशवाओं के 28 हजार सैनिकों को धूल चटाई थी लेकिन देश की आज़ादी के इतने साल बाद भी मनुवादी मानसिकता के लोग दलितों के शौर्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। वह कभी इस बात को कहते हैं कि पेशवा लड़ाई में खुद पीछे हट गए तो कभी महार सैनिकों की देश भक्ति पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि उन्होंने अंग्रेज़ी सेना में शामिल होकर पेशवाओं के विरूध युद्ध लड़ा।

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यह युद्ध देश के खिलाफ नहीं एक जातिवादी व्यवस्था के खिलाफ था. लेकिन मनुवादी व्यवस्था के लोग आज भी इसे पचा नहीं पाते. इसलिए वो आज भी अपने किये गए जातिगत भेदभाव को देशभक्ति का मुद्दा बनाकर छिपाना चाहते है. ये वही लोग है, जिनकी जातिवादी सोच ने सदियों से झूठ, पाखंड और कपट का सहारा दलित समाज को दबाने और कुचलने का काम किया है ।

बात 1700 के दशक की है जब ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में अपना विस्तार कर रही थी। तब अंग्रेज़ो ने महसूस किया कि अपने विस्तार के लिए उन्हें पेशवाओं को हराना बेहद जरूरी है। एक तरफ ईस्ट इंडिया कंपनी पेशवाओं को हराने के लिए युद्ध की रणनीति बना रही थी तो दूसरी तरफ जब महारो ने अंग्रेंज़ो के खिलाफ़ पेशवाओं के साथ ल़ड़ने का आग्रह किया तो पेशवाओं ने अपनी जातिवादी सोच के चलते उनके इस आग्रह को न केवल ठुकराया बल्कि उन्हें अपमानित भी किया। यह बात जब अंग्रेजो को पता चली तो उन्होंने महार जाती के लोगों को समानता की शर्तों के साथ अपनी सेना में शामिल कर लिया।

महार रेजिमेंट लोगो (तस्वीर: दलित टाइम्स)

 

1 जनवरी 1818 को युद्ध का बिगुल बजा। पुणे के भीमा कोरेगांव की भीमा नदीं पर ईस्ट इंडिया कम्पनी और पेशवाओं में युद्ध हुआ। पेशवाओं की सेना में 20 हजार घुड़सवार और 8 हजार पैदल सैनिकों के साथ कुल 28 हजार सैनिक थे, जिनकी अगुवाई खुद पेशवा बाजीराव द्वितीय कर रहे थे वहीं ईस्ट इंडिया कंपनी की तरफ से बॉम्बे लाइन इन्फेंट्री में कुल 500 महार सैनिक थे. जिनमे आधे घुड़सवार और आधे पैदल सैनिक थे. महार रेजिमेंट के शौर्य के आगे पेशवा नहीं टिक सके और 24 घंटे के इस युद्ध में पेशवाओं को मुंह की खानी पड़ी। युद्ध में कुल ब्रिटिश सेना से 275 सैनिक मारे गए औऱ पेशवाओं के 500 सैनिक हताहत हुए थे। इस युद्ध में महार रेजिमेंट की अभूतपूर्व वीरता की याद में भीमा नदी के किनारे अंग्रेज़ो ने विजय स्तंभ का निर्माण करवाया था. जिस पर उन महान शूरवीरों के नाम लिखे गए हैं।

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यह युद्ध पेशवाओं के जातिवादी घमंड के खिलाफ महारों के आत्म सम्मान की लड़ाई था. दलित समाज के लिए इस लड़ाई का अलग महत्व है. इसे सिर्फ दो जातियों के बीच की लड़ाई तक सीमित नहीं कर सकते क्योंकि यह लड़ाई उस व्यवस्था के खिलाफ थी. जिसमे शुद्रों को युद्ध मे भाग लेने का अधिकार नहीं था. यह एक जाति की विशिष्टता के खिलाफ भी लड़ाई थी. महार समाज के लोग पेशवाओं के पास गए थे, उनके साथ मिलकर इस लड़ाई में शामिल होने के लिए लेकिन उन्होंने महारों को दुत्कार दिया और उनकी काबिलियत पर सवाल उठाए। यह लड़ाई महारों की अपनी काबिलियत दिखाने और पेशवाओं की जातिगत मानसिकता का घमंड तोड़ने की लड़ाई थी.

विजय स्तंभ पर बाबा साहेब की तस्वीर( तस्वीर 1928 में ली गई थी जब बाबा साहेब अंबेडकर विजय स्तंभ पर शहीदों को श्रृद्धांजलि देने गए थे)

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यह दिन इस लिहाज़ से भी खास माना जाता है कि जब बाबा साहेब अंबेडकर ने 1928 में भीमाकोरेगांव जाकर शहीदों को श्रद्धांजलि दी थी. तब बाबा साहेब ने कहा था कि दलित समाज के लोगों को अपने शौर्य को याद करने के लिए भीमा कोरेगांव जाना चाहिए. इसलिए हर साल दलित समाज के लाखों लोग अपने उस शौर्य को याद करने के लिए भीमा कोरेगांव जाकर विजय स्तम्भ को नमन करते है.

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