दलित पैंथर: विचारधारा, बनने के कारण, ब्लैक पैंथर से प्रेरणा और मकसद

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अंग्रेजों के समय में मनुवादियों ने अपनी आज़ादी की लड़ाई अंग्रेजों से लड़नी शुरू कर दी थी और हमने इन मनुवादियों से अपनी आज़ादी की लड़ाई लड़नी शुरू कर दी थी। हमारी लड़ाई अंग्रेजों से क़तई नहीं थी।

1947 में मनुवादियों ने तो अंग्रेजों से मुक्ति पा ली लेकिन हम आज भी मनुवादियों के अधीन ही जीने को विवश हैं। बाबा साहब ने कांग्रेस से लड़ाई लड़ी और संविधान के माध्यम से कुछ राहत दिलवाने में सफल रहे लेकिन आज़ादी फिर भी न मिल पाई और लड़ाई अधूरी ही रह गयी। लेकिन फिर भी संविधान तो मनुवादी कांग्रेस के ही क़ब्ज़े में रहा। इसलिये संविधान भी ज़्यादा कुछ नहीं कर पाया और हम संविधान के सहारे ही जीते रहे।

और आज वही संविधान मनुवादियों की दूसरी टीम के हाथों में आ गया है जो इस संविधान को ही नेस्तनाबूद कर देना चाहता है। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। मान लो यह मनुवादियों की दूसरी बीजेपी टीम हट भी जाती है तो उसके बाद संविधान किसके अधीन रहेगा? अगर फिर से संविधान किसी तीसरे मनुवादी के हाथों चला गया तो फिर कहानी वहीं की वहीं रह जायेगी। हमें क्या मिलेगा? हमारी आज़ादी का क्या होगा? आज बीजेपी चुनाव नहीं लड़ रही है बल्कि युद्ध लड़ रही है और हम सम्विधान के सहारे जी रहे हैं। और सहारे कोई भी हों, ज़्यादा उपयोगी नहीं होते हैं।

मनुवाद के शक्त सामाजिक क़ानूनों ने हमारे समाज को शारीरिक और मानसिक रूप से जानवर से भी बदतर स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया था और उसका असर आज भी देखने को मिलता है जो समाज हज़ारों साल तक एक विशेष प्रकार की ग़ुलामी में जकड़ा रहा हो तो इतना आसान तो बिलकुल नहीं था फिर भी हमारे महापुरुषों ने समय समय पर जन्म लेकर इसका इलाज करने की कोशिस की है और यह प्रक्रिया आगे भी जारी रहेगी।

समस्या यह है की जब जब महापुरुष पैदा होते हैं तभी कुछ होता नज़र आता है और उनके जाने के बाद फिर सबकुछ थम सा जाता है। अगर समाज महापुरुषों की तरह सोचने लगे तो यह कार्य अभी पूरा हो सकता है।मूलतः समाज का मन तो मनुवादी है और मिशन अंबेडकरवादी, इसलिये दोनों में तालमेल नहीं हो पता क्योंकि दोनों में 36 का आँकड़ा है। समाज का मन मनुवाद से कैसे विमुक्त किया जाए ? अगर हमारा केडर इस तरह का बने तो बात बन सकती है।

लेकिन हम तो रात दिन महापुरुषों के कहे हुए वचनों को दुहराये चले जा रहे हैं कि बाबा साहब ने ये कहा, कि कांशीराम ऐसा चाहते थे इत्यादि।

महापुरुष की जब मृत्यु हो जाती है तो उनके ज्ञान की ख़ुशबू तो आकाश में उड़ जाती है और ज़मीन पर शेष रह जाती हैं शब्द रूपी मिट्टी। मिट्टी, मैं इसलिये कह रहा हूँ कि ज्ञान असीमित होता है और शब्द बहुत ही सीमित होते हैं। और असीमित ज्ञान, सीमित शब्दों के द्वारा कैसे कहा जा सकता है? जब हम उन सीमित शब्दों को पकड़कर बैठ जाते हैं, जिनमें ख़ुशबू तो होती ही नहीं तो फिर बदलाव कैसे हो सकता है?

महापुरुष की ख़ुशबू ही तो इंसान को बदलती है।

आजादी के बाद हमें दो ही रहनुमा नजर आते हैं, एक बाबा साहब और दूसरे कांशीराम। दोनों ने समाज की सोच के विपरीत काम किया। अपनी खुद की सोच से समाज की सोच बदलने की कोशिश की, लेकिन हजारों साल की टेढ़ी कुत्ते की पूँछ को कैसे सीधा किया जा सकता है? मसला शारीरिक गुलामी का होता तो बहुत ही आसान था, मसला तो मानसिक गुलामी का था। हमारे समाज की अपनी कोई सोच न थी और न आज है, हम तो दूसरों के द्वारा संचालित लोग हैं। कभी कोई हमारा सच्चा रहनुमा आता है, जब तक हम उसे समझ पाते हैं तब तक वो चला जाता है, फिर हम उसकी मूर्तियां बनाकर उसे पूजने लगते हैं। बात खत्म।

हम लोग बाहर से जिंदा दिखाई पड़ते हैं लेकिन अंदर से मरे हुये हैं, बेजान हैं। और मरे हुये लोगों को जिंदा करना ही मिशन 78 का प्रथम और आख़िरी उद्देश्य है। हम लोग ब्राह्मण का तो मुकाबला करने चले हैं लेकिन हमारे अंदर ब्राह्मणों जैसा कोई गुण धर्म ही नहीं हैं। बस एक बात समझा दी गयी है कि हमारी इस दयनीय दशा के लिये ब्राह्मण जिम्मेदार है। फिर क्या था, कोसने लगे ब्राह्मण को। ब्राह्मण को गाली देना ही हमारा मिशन बन गया।

गाली देना कमजोर होने की निशानी है क्योंकि कमजोर गाली देने के अलावा और कुछ नही कर सकता है। मानसिक रूप से कमजोर समाज, हर तरह से मजबूत ब्राह्मणवाद का मुकाबला कैसे कर सकता है? एक बार सोचें और चिंतन करें तो शायद कोई रास्ता निकले।

*दलित टाइम्स उन करोड़ो लोगो की आवाज़ है जिन्हें हाशिए पर रखा गया है। *

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