“अछूत” ऑटोबायोग्राफी पढ़ी है आपने, पढ़िए क्यों हैं ये खास..

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प्रसिद्ध दलित लेखक दया पवार मराठी भाषा के यशस्वी कवि और लेखक हैं। दया पवार ऐसे महान विचारक रहे हैं, जिन्होंने अपने रचनात्मक लेखन से दलित साहित्य में उल्लेखनीय योगदान दिया। दया पवार का जन्म 1935 में महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले स्थित अकोले तालुका के धामनगांव में एक महार दलित परिवार में हुआ था। महार जाति में पैदा होना और अपने जीवन को कठिन संघर्षों के साथ यापन करने का कष्ट उन्होंने बाल्यकाल से ही देखा था।

दया पावर का एक ऐसे लेखक हैं, जिन्होंने मानव जीवन दर्शन को बखूबी जाना और विचार किया। बहुत कम आयु में वे लेखन कार्य में जुट थे। कम आयु में ही ज़िंदगी की ठोकरों ने उन्हें समाज से परिचित करा दिया था। दया पवार अपने जीवन में अनेकों कष्टों का शिकार हुए। महार जाति से संबंध होने से के कारण वे आजीवन जातिगत अभिशाप का शिकार हुए।

 

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साल 1969 में दया पवार का पहला कविता संग्रह ‘कोंडवाड़ा’ (कांजी हाउस) प्रकाशित हुआ था, जो कि इतना चर्चित संग्रह हुआ कि इसे ‘महाराष्ट्र शासन पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। दया पवार ने अपने जीवन संघर्ष की संवेदनात्मक गाथा को अपनी आत्मकथा बलुत’(अछूत) में लिखा है, जो कि दलित उत्पीड़न और संघर्ष की छाप है।

 

तस्वीर : गूगल

दया पवार की आत्मकथा ‘बलुत’(अछूत) को दलित साहित्य में पहली आत्मकथा माना जाता है। यही नहीं बल्कि दया पवार को उनके साहित्यिक योगदान के लिए भारत सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार से भी सम्मानित किया है। दया पवार का पहला कविता संग्रह ‘कोंडवाड़ा’ (कांजी हाउस) महाराष्ट्र शासन पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। वहीं, दलित लेखक दया पवार ने जब्बार पटेल की फिल्म डॉ. बाबा साहेब आम्बेडकर की पटकथा भी लिखी है। इस फिल्म को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था। अतः बहुर्मुखी प्रतिभा के धनी दया पवार को उनके साहित्यिक योगदान के लिए भारत सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार से भी सम्मानित किया है।

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दलित लेखक दया पवार की आत्मकथा ‘बलुत’ (अछूत—1979) एक चर्चित पुस्तक है। उनकी आत्मकथा को दलित साहित्य में पहली आत्मकथा होने का सम्मान प्राप्त है। लेखक दया जी की आत्मकथा के कई भाषाओं में अनुवाद हुए और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी इनकी यह रचना लंबे समय चर्चित हुई थी।

‘बलुत’ का हिंदी संस्करण ‘अछूत’ नाम से राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत है, मराठी दलित लेखक दया पवार के बहुचर्चित आत्मकथात्मक उपन्यास ‘अछूत’ के कुछ अंश –

प्रथम पृष्ठ : 

ढोर मरने के बाद महारवाड़ा में एक चेतना दौड़ जाती। उसमें भी बैल यदि कगार से फिसलकर मर गया तो आनन्द दुगुना । ऐसा बैल अधिक ताज़ा समझा जाता। जंगल में कहाँ ढोर मरा है, इसकी ख़बर महारवाड़ा पहुँचने में देर न लगती। आज के टेलेक्स से भी तेज़ गति से ख़बरे पहुँचतीं। आकाश में चील-गिद्ध विमान-जैसे एक ही दिशा में मँडराने लगते तो महारों को मालूम हो जाता कि खाना कहाँ पड़ा है। गिद्धों द्वारा खाने की बरबादी न हो, इसके लिए भागदौड़ मचती । गिद्ध भी कितने आसानी से पाँच-पचास का झुंड पंख फड़फड़ाते । मुँह से मचाक् मचाक् की आवाज़ें निकालते। अण्णाभाऊ साठे ने एक कथा में इन गिद्धों से मख़मली जैकेट पहने साहूकार पत्र की उपमा दी है। पत्थर मारने पर थोड़ी दूर उड़ जाते परन्तु वेशर्मों से फिर खाने की दिशा में सरकते । शायद उन्हें महार लोगों पर बड़ा क्रोध भी आता होगा। उनके मुँह से महार लोग कौर जो छीन लेते थे! गिद्धों की हिंस्र आँखें, उनकी धारदार चोंच ! मुझे लगता, वे सब मेरा ही पीछा कर रहे हैं।

‘अछूत’ मराठी के दलित लेखक दया पवार का बहुचर्चित आत्मकथात्मक उपन्यास है, जो पाठकों को न केवल एक अनबूझी दुनिया में अपने साथ ले चलता है बल्कि लेखन की नयी ऊँचाई से भी परिचित कराता है।

 

यह लेख रुखसाना खान (जर्नलिस्ट, दलित टाइम्स) द्वारा लिखा गया है।  

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