क्या है दलित पैंथर? जिसने दलितों में जगाई थी आक्रोश की आग

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वर्ष 1956 में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के महापरिनिर्वाण के उपरांत 1970 के दशक में दलित पैंथर का अस्तित्व में आना एक ऐतिहासिक परिघटना रही। भारत के दलित पैंथर और अमेरिका का ब्लैक पैंथर दोनों सामाजिक संगठनों ने विश्व को ऐसे आलोकित किया था, जैसे बरसात की अंधेरी रात में आकाशीय बिजली करती है। दलित पैंथर ने जुझारूपन व प्रतिबद्धता के बल पर सरकारी मशीनरी को हिला कर स्वयं दलितों को उनके तत्कालीन हालातों पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया था।

क्या है दलित पैंथर?

दलित पैंथर एक सामाजिक और राजनीतिक संगठन है जो दलितों का प्रतिनिधित्व करने तथा दलितों और पिछड़ों में प्रबोधन लाने के उद्देश्य से स्थापित हुआ था। दलित पैंथर की स्थापना नामदेव धसाल एमजेवी पवार द्वारा 29 मई 1972 को मुंबई महाराष्ट्र में की गई थी।

नामदेव ढसाल, राजा ढाले और अरुण कांबले इसके आरंभिक प्रमुख नेता थे|

 

नामदेव ढसाल

 

राजा ढाले

 

अरुण कांबले

जब दलितों के रक्त में आया था उबाल

सन 1972 में दलितों पर हुए अत्याचार की दो घटनाओं ने दलित युवाओं में आक्रोश की आग जला दी। पहली घटना पूरे जिले के बावडा गांव में हुई जहां ग्रामवासियों ने दलितों का बहिष्कार कर रखा था। शाहजी राव पाटिल ने बहिष्कार शुरू किया था, उनके भाई शंकरराव पाटील राज्य मंत्री थे। इसके बाद लोगों ने मांग की थी शंकरराव मंत्री पद से इस्तीफा दे दें।

इसी बीच महाराष्ट्र के परभणी जिले के ब्राह्मण गांव में दो दलित महिलाओं को नग्न कर पूरे गांव में घुमाया गया था। उनका अपराध बस इतना सा था कि उन्होंने स्वर्ण वर्ग के कुए से पानी निकाल कर अपनी प्यास बुझाने की कोशिश की थी| वह घूंट भर पी पाते उससे पहले ही जातिवादी गांव वालों ने उन्हें नग्न कर पूरे गांव में घुमाया और दलित महिलाओं के ऊपर बबूल की कांटेदार झाड़ियां भी फेंकी|

अनेक संगठनों ने इसकी निंदा की। इसके बाद मुंबई के वर्ली में एक बैठक आयोजित की गई।इसकी अध्यक्षता करते हुए, बाबुराव बागूल ने दलित युवकों का आह्वान किया और कहां की वे इस तरह के अत्याचारों के विरुद्ध लड़ने के लिए आगे आएं। उन्होंने यह भी कहा कि वे ऐसे किसी संघर्ष में सक्रिय भूमिका नहीं निभाएंगे और न ही किसी ज्ञापन पर हस्ताक्षर करेंगे। हाथों में मशाल लिए हुए युवकों ने 27 मई को चेम्बूर पुलिस थाने तक मार्च निकाला।

इस संगठन के जरिए महाराष्ट्र की दलित युवा पीढ़ी ने लोगों का ध्यान अपनी राजनीति, विचारधारा एवं साहित्यिक आंदोलन की ओर खींचा|

दलित पैंथर: एक आधिकारिक इतिहास

फॉरवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित और ज.वी. पवार द्वारा लिखित दलित पैंथर:एक आधिकारिक इतिहास पुस्तक को पढ़ते हुए शासन और प्रशासन के निर्णायक केंद्रों पर विराजमान जातिवादी लोगों कि दलित विरोधी मानसिकता का परिचय तो मिलता है, साथ ही उस सामाजिक संरचना की अमानवीयता का भी गहरा एहसास होता है, जो दलित विरोधी मानसिकता पर टिकी हुई है।

 

 

उस समय दलित पैंथर से जुड़े मराठी दलित युवकों ने उसी मनुवादी संरचना को तोड़ने का प्रयास किया था। यह कहना गलत नहीं होगा कि आजादी के बाद जिस तरह दलित समाज के भीतर उनके इतिहास, साहित्य के प्रति सजगता बढ़ी वैसे ही सवर्णों द्वारा उनके उत्पीड़न की घटनाओं में भी वृद्धि हुई है।

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