7 नवंबर मंगलवार को बिहार विधानसभा में राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बढ़ती जनसंख्या के मामले में सेक्स एजुकेशन पर ऐसी बात कह दी जिसे सुनकर विधामसभा में हल्ला मच गया। बीजेपी के साथ साथ केंद्रीय मंत्रियों ने भी नीतीश कुमार की जमकर आलोचना की।
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नीतीश कुमार के इस बयान से बिहार से लेकर दिल्ली तक बवाल मच गया। लोगों का ऐसा कहना है कि वह सेक्स एजुकेशन के बारे में बोलते हुए सही शब्दों का भी इस्तेमाल कर सकते थे। सोशल मीडिया पर भी लोग जमकर नीतीश कुमार की आलोचना कर रहे हैं। बहरहाल अब नीतिश कुमार के इस्तीफे की मांग की जा रही है।
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विषय की गंभीरता को देखते हुए बात सिर्फ सही शब्दों के इस्तेमाल की थी। लेकिन विधानसभा की गरिमा का भी नीतीश कुमार ने ख्याल नहीं रखा। लोगों का ऐसा कहना है कि उनके इस बयान से न केवल विधानसभा की गरिमा भंग हुई बल्कि महिलाओं का भी अपमान हुआ है।
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सेक्स एजुकेशन हमारे जीवन से जुड़ा एक ऐसा गंभीर विषय है जिसके बारे में लोग अक्सर बात करने में झिझक महसूस करते हैं। कभी कभी तो स्थिति ऐसी हो जाती है कि यह विषय लोगों के बीच केवल हंसी का पात्र बन जाता है। जैसे अभी हाल ही में बिहार की विधानसभा में हुआ।
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लेकिन सवाल ये है कि सेक्स एजुकेशन कितना ज़रूरी और इसके बारे में बताने का सही तरीका क्या है। बता दें कि दलितों के मसीहा रहे डॉक्टर बाबा साहेब अंबेडकर ने सेक्स एजुकेशन पर भी अपने विचार व्यक्त किए हैं। लेकिन उन्होनें इसका समर्थन किया है या विरोध आइए इस लेख में जानते हैं।
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बाबा साहेब ने “समाज स्वास्थ्य” पत्रिका के लिए केस लड़ा:
मामला 1934 का है जब बाबा साहेब अंबेडकर ने बतौर वकील एक ऐतिहासिक केस लड़ा था। दरअसल यह केस “समाज स्वास्थ्य” नामक पत्रिका के लिए था। इस पत्रिका के लेखक महाराष्ट्र के “रघुनाथ धोंडो कर्वे” थे। अपनी इस पत्रिका में कर्वे यौन शिक्षा, परिवार नियोजन, नग्नता, नैतिकता जैसे विषयों पर लिखा करते थे। यह ऐसे विषय हैं जिसके बारे में भारतीय समाज में खुलकर चर्चा नहीं होती थी।
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कर्वे की पत्रिका स्वस्थ यौन जीवन के लिए चिकित्सा सलाह पर केंद्रित थी। इस तरह के संवेदनशील मुद्दों पर कर्वे निडरतापूर्वक लिखते थे और इन मुद्दों पर चर्चा करते थे। लेकिन समाज में रुढ़िवादी सोच रखने वाले लोगों को उनके इस तरह के लेख से चिढ़ थी। इस दौरान उनके कई दुश्मन भी बन गए थे। लेकिन नर्वे निराश नहीं हुए उन्होंने लिखने के साथ ही अपनी लड़ाई जारी रखी।
बाबा साहेब अंबेडकर का समर्थन मिला:
उस वक्त भारत का राजनीतिक और सामाजिक नेतृत्व इतना मज़बूत नहीं था कि कोई उनका पक्ष लेता और उनके लेखन का समर्थन कर सकता था। ऐसे में बाबा साहेब अंबेडकर ने कर्वे का समर्थन किया। बाबा साहेब अंबेडकर ने अदालत में कर्वे के लिए वकालत की। यह भारत के सामाजिक सुधारों के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण क़ानूनी लड़ाई में से एक है जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए लड़ा गया था।
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“व्यभिचार के प्रश्न” के लिए अदालत में घसीटा:
कर्वे को पहली बार 1931 में पुणे में रूढ़िवादी समूह ने उनके एक लेख “व्यभिचार के प्रश्न” के लिए उन्हें अदालत में घसीटा था। फिर तीन साल के भीतर ही 1934 में कर्वे को “समाज स्वास्थ्य” पत्रिका के लिए दोबारा गिफ्तार किया गया। लेकिन इस बार कर्वे अकेले नहीं थे उनके लिए मुंबई के वकील रहे बी आर अंबेडकर ने उच्च न्यायालय में मुकदमा लड़ा। यह बाबा साहेब अंबेडकर के जीवन का वह दौर था जब वह महाड और नासिक सत्याग्रह के बाद वंचितों के लिए लड़ने वाले राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित हो चुके थे।
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कर्वे का केस हाथ में लिया:
मराठी नाटककार प्रोफ़ेसर अजीत दल्वी ने आंबेडकर के उसी कोर्ट केस पर आधारित एक नाटक “समाज स्वास्थ्य” का पूरे देश में मंचन किया गया।
प्रोफ़ेसर दल्वी कहते हैं, “आंबेडकर निश्चित तौर पर दलितों और वंचितों के नेता थे लेकिन वो पूरे समाज के लिए सोच रखते थे. सभी वर्गों से बना आधुनिक समाज उनका सपना था और वो उसी दिशा में आगे बढ़ रहे थे.” इसलिए राजनीतिक और सामाजिक मिशन में पूरी तरह व्यस्त रहने के बाद भी बाबा साहेब अंबेडकर ने यह केस अपने हाथ में लिया था।
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सेक्स एजुकेशन के संबंध में अंबेडकर का सीधा सवाल था उनका कहना था कि अगर “समाज स्वास्थ्य” का विषय यौन शिक्षा और यौन संबंध है और आम पाठक उसके विषय में प्रश्न पूछता है तो उसका उत्तर क्यों नहीं दिया जाना चाहिए. यह आंबेडकर का सीधा सवाल था.।
यौन शिक्षा पर लिखना अश्लीलता नहीं:
प्रोफ़ेसर दल्वी बताते हैं, “आंबेडकर का पहला तर्क यह था कि अगर कोई यौन मामलों पर लिखता है तो इसे अश्लील नहीं कहा जा सकता. हर यौन विषय को अश्लील बताने की आदत को छोड़ दिया जाना चाहिए. इस मामले में हम केवल कर्वे के जवाबों पर नहीं सोच कर सामूहिक रूप से इस पर विचार करने की ज़रूरत है. हमारे राजनीतिक नेता आज भी इस तरह के मुद्दों पर कुछ नहीं कहना चाहते वहीं आंबेडकर 80 साल पहले ही इस पर निर्णायक स्थिति में थे.”
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विकृति केवल ज्ञान से ही हार सकती है:
दल्वी कहते हैं, “न्यायाधीश ने उनसे पूछा कि हमें इस तरह के विकृत प्रश्नों को छापने की आवश्यकता क्यों है और यदि इस तरह के प्रश्न पूछे जाते हैं तो उनके जवाब ही क्यों दिये जाते हैं? इस पर आंबेडकर ने कहा कि विकृति केवल ज्ञान से ही हार सकती है. इसके अलावा इसे और कैसे हटाया जा सकता है? इसलिए कर्वे को सभी सवालों को जवाब देने चाहिए थे.”
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यौन शिक्षा का समर्थन किया:
आंबेडकर ने अदालत में इस विषय पर आधुनिक समाज में उपलब्ध साहित्य और शोध का उल्लेख भी किया । बाबा साहेब अंबेडकर यौन शिक्षा का समर्थन करते थे वह इसके ख़िलाफ़ किसी धार्मिक रूढ़िवादी विचार को नहीं आने देना चाहते थे।
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आर डी कर्वे और डॉक्टर बी आर आंबेडकर 1934 की वो लड़ाई अदालत में हार गये. अश्लीलता के लिए कर्वे पर एक बार फिर 200 रुपये का जुर्माना लगाया गया था। अब सवाल यह है कि क्यों आज भी सेक्स एजुकेशन पर लोग खुलकर चर्चा नहीं करते हैं? जब भी इस विषय पर बात की जाती है तो रुढ़िवादी धारणाएं बाधा उत्पन्न क्यों करती हैं?
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