देश में सिर्फ एक आदिवासी सीएम, दलित एक भी नहीं

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साल 2022 के अंत में गुजरात और हिमाचल के चुनाव संपन्न होने हैं तो वहीं 2023 के अंत में देश के तीन राज्यों मध्यप्रदेश ,राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने निश्तिच हुए हैं। बात 2024 के लोकसभा चुनाव की जाए तो उस पर सबकी नज़रें अभी से टिकी हुई है।  लेकिन इस बीच चुनावों के मद्देनज़र दलित-आदिवासियों के हितों की चर्चाएं एक बार तेज़ हो गई हैं। लेकिन यहाँ विचार करने वाली बात यह हैं कि जिसे जानकार आपको हैरानी भी होगी कि वर्तमान में देश में जो 30 मुख्यमंत्री हैं उनमें केवल एक आदिवासी सीएम है जबकि दलित एक भी नही !

बताते चलें कि 2011 की जनगणना के अनुसार देश की 121 करोड़ की आबादी में से अनुसूचित जाती की आबादी 20 करोड़ है (16.6%) व आदिवासी 10 करोड़ (8.6%) है..!! ऐसे में एक भी दलित मुख्यमंत्री न होना दलितों के बिखराव व खोखलेपन को जाहिर करता है !

2018 तक देश में 6 आदिवासी सीएम थे और मजेदार बात तो यह है की सभी आदिवासी मुख्यमंत्री उत्तर पूर्वी राज्यो से थे। जहाँ अनुसूचित जनजाति आबादी का महज 11 प्रतिशत अर्थात 1.10 करोड़ आदिवासी रहते है। मध्यप्रदेश में ये आबादी 1.53 करोड़ और महाराष्ट्र में 1.05 करोड़ है..!! जबकि आदिवासियों से दोगुनी आबादी होने के बावजूद दलित मुख्यमंत्री एक भी नही है ! कारण – देश मे दलितों का बिखराव…

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2011 की जनगणना में यह बात स्पष्ट हुई कि 5.93 लाख गाँवो में से 1.05 लाख गाँव व 75 जिलों में आदिवासी आबादी 50 प्रतिशत से अधिक है। जबकी 40 जिलो व 78,507 गाँवो में 75 प्रतिशत से अधिक घनत्व है। तो स्वभाविक है यहां पंच से लेकर सारे पद आदिवासी वर्ग के पास सुरक्षित रहते है।

एक आदिवासी सीएम ,मगर कद्दावर आदिवासी नेता एक भी नही: 

2018 तक अनुसूचित जनजाति वर्ग से छः मुख्यमंत्री व वर्तमान में 1 आदिवासी मुख्यमंत्री होने के बावजूद भी राष्ट्रीय स्तर पर St वर्ग का कोई मजबूत नेता नही है।

हेमंत सोरेन झारखण्ड तक सीमित होकर रह गए तो मध्यप्रदेश में डिप्टी मुख्यमंत्री तक पहुचें शिवभानु सिंह सोलंकी राज्य के भीतर ही सिमट कर रह गए थे।

मध्यप्रदेश में भी देखे तो 1.53 करोड़ आदिवासी होने के बावजूद कोई सर्वमान्य नेता उभर कर नही आ सका। जबकि यह दोनों ही वर्ग इस राज्य की राजनीतिक दिशा तय करते है…। मध्यप्रदेश विधानसभा में दलितों के लिए 35 व आदिवासियों के लिए 47 सीटें आरक्षित है..।

अनुसूचित जाति किंगमेकर, मगर मुख्यमंत्री एक भी नही :

बिखरे होने के कारण ही अनुसूचित जनजाति से दोगुनी आबादी के बावजूद दलितों की 50 प्रतिशत से अधिक आबादी वाला एक ही जिला है, जो बंगाल का कूचबिहार जिला है।

दूसरी और पंजाब में ही 3 जिले है जहां अनुसूचित जनजाति आबादी 40-50 प्रतिशत के बीच है। राजनीति में दलित फेक्टर का महत्व इसलिए भी है क्योंकि कुल 74 जिले ऐसे है जहां इनकी तादात 25 प्रतिशत से अधिक है। हालांकि 11.8% वाले महाराष्ट्र में ऐसा कोई जिला नही है, लेकिन पंजाब में ऐसे 18, उत्तरप्रदेश में 15 और बंगाल में ऐसे 9 जिले है। महत्वपूर्ण राज्यों के विधानसभा चुनावो के साथ ही 2024 में लोकसभा का चुनाव नजदीक है और नेताओं को याद भी आ रहा है कि 75,624 गाँवो में दलित आबादी 40% से अधिक है और इनमें से 46,859 गाँवो में तो 50% से अधिक है !

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दलित फेक्टर का सर्वाधिक महत्व पंजाब में है जहां उनकी आबादी कुल आबादी का 31.9% है। तो वहीं बंगाल में 23.5 फिसदी, उत्तरप्रदेश में 20.7 फिसदी, तमिलनाडु में 20 फिसदी, हिमाचल में 25.2 फिसदी, हरियाणा में 20.2 फिसदी मध्यप्रदेश में 15.4 फिसदी में भी इनका खासा महत्व है…!!

पिछले गुजरात चुनाव में दलित उत्पीड़न जबरजस्त उछला, जबकि वहां इस वर्ग की आबादी महज 6.7% है ! इसी से समझा जा सकता है कि उक्त राज्यो में इस वर्ग के हित के क्या मायने है “मगर विडंबना की दलित मुख्यमंत्री एक भी नही” पूरे देश में बिखरे होने के कारण दलित सियासी तौर पर मजबूत नही हो पाए।

अनुसूचित जाति वर्ग का मुख्यमंत्री भले न हो पर इनके पास कहने को है कि हमारे वर्ग से दो राष्ट्रपति हुए है जो इस वर्ग का नेतृत्व करते थे। हालाँकि वर्तमान में आदिवासी वर्ग से द्रोपदी मुर्मू भारत की राष्ट्रपति है, जो की आजादी के बाद देश की पहली आदिवासी राष्ट्रपति है।

प्रमुख दलित चेहरे जो मुख्यमंत्री रह चुके है उनमें सुशील कुमार शिंदे, जगन्नाथ पहाड़िया, मायावती आदि गिने जाते है ! जबकी इस समाज के आंतरिक समर्थन के कारण सबसे मजबूत नेताओ में डॉ. बी.आर.अम्बेडकर, जगजीवन राम,कांशीराम बड़ा चेहरा रह चुके है..!

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बात वर्तमान में सत्ता रूढ पार्टी भाजपा की कि जाए तो उसकी संसदीय बोर्ड में न तो अभी कोई ‘आदिवासी’ है न कभी रहा है। जबकी कांग्रेस में इस वर्ग से अभी तक कोई महासचिव नही हुआ।

हाँ, अनुसूचित जाति वर्ग से थावरचंद गहलोत न केवल कर्नाटक के राज्यपाल है बल्कि काफी समय से भाजपा संसदीय बोर्ड में भी रह चुके है। और हर प्रमुख भाजपा शाषित राज्य से एक दलित चेहरा राज्यमंत्री के रूप में है। लेकिन इन सबके बावजूद दलितों का कांशीराम के बाद कोई सर्वमान्य नेता नही उभर पाया..

ध्यान रहे…मान्यवर कांशीराम ने पूरे देश मे सामाजिक जनजाग्रति के माध्यम से बिखरे समाज को एकजुट किया था व राजनेतिक क्रांति की चेतना जगाई थी। जो वर्तमान दौर में कोई दलित नेता नही कर पा रहा है…!!

अंत में..हमें मांगने वाला नही देने वाला समाज तैयार करना है।

 

 

 

 

 

 

 

 

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