भारत में 30 मुख्यमंत्रियों में से 4 ब्राह्मण, 5 ठाकुर, 7 ओबीसी, और 4 आदिवासी समुदाय से हैं, लेकिन 18% आबादी वाले दलित समुदाय का एक भी मुख्यमंत्री नहीं है। यह राजनीतिक असमानता और दलित नेतृत्व की उपेक्षा को उजागर करता है। दलित मुख्यमंत्री बनाना न केवल सामाजिक न्याय को बढ़ावा देगा, बल्कि भारतीय लोकतंत्र को अधिक समावेशी और सशक्त बनाएगा।
भारतीय राजनीति में जातीय समीकरणों का प्रभाव हमेशा से ही गहरा रहा है। वर्तमान में देश के चार राज्यों में ब्राह्मण मुख्यमंत्री हैं—देवेंद्र फडणवीस (महाराष्ट्र), हिमंत बिस्वा सरमा (असम), ममता बनर्जी (पश्चिम बंगाल), और भजनलाल शर्मा (राजस्थान)। यह उल्लेखनीय है कि ब्राह्मण समुदाय, जो देश की कुल आबादी का लगभग 5% है, अनुपातहीन रूप से शीर्ष पदों पर काबिज है। इसी तरह, ठाकुर समुदाय से पांच मुख्यमंत्री हैं, जिनमें उत्तर प्रदेश के योगी आदित्यनाथ, उत्तराखंड के पुष्कर सिंह धामी, हिमाचल प्रदेश के सुखविंदर सिंह सुक्खू, मणिपुर के एन. बीरेन सिंह, और दिल्ली की आतिशी शामिल हैं। ये आंकड़े दर्शाते हैं कि ब्राह्मण और ठाकुर समुदाय, जो अपेक्षाकृत छोटी आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं, सत्ता पर हावी हैं।
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दलित नेतृत्व का अभाव: लोकतंत्र की बड़ी खामी
भारत में दलित समुदाय देश की कुल आबादी का लगभग 18% हिस्सा है, लेकिन वर्तमान में कोई भी मुख्यमंत्री दलित समुदाय से नहीं है। 2022 में चरणजीत सिंह चन्नी पंजाब के मुख्यमंत्री के रूप में दलित समुदाय का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, लेकिन उनके पद छोड़ने के बाद से दलित नेतृत्व पूरी तरह से समाप्त हो गया है। यह स्थिति न केवल भारतीय राजनीति की जातीय असमानता को उजागर करती है, बल्कि दलित समुदाय के प्रति राजनीतिक दलों की उदासीनता को भी दर्शाती है।
दलित समुदाय को चुनावी समीकरण साधने के लिए एक वोट बैंक के रूप में देखा जाता है, लेकिन नेतृत्व के स्तर पर उन्हें प्रतिनिधित्व देने की जरूरत को नजरअंदाज किया जाता है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, और तेलंगाना जैसे राज्यों में दलित उपमुख्यमंत्री जरूर हैं, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। एक दलित मुख्यमंत्री न केवल समुदाय की आवाज बन सकता है, बल्कि दलित अधिकारों और सामाजिक न्याय के लिए एक सशक्त पहल भी कर सकता है।
ओबीसी और आदिवासी नेतृत्व का उभार
ओबीसी और आदिवासी समुदायों ने हाल के वर्षों में राजनीतिक सत्ता में अपनी जगह बनाई है। ओबीसी समुदाय के सात मुख्यमंत्री हैं, जिनमें बिहार के नीतीश कुमार, कर्नाटक के सिद्धारमैया, गुजरात के भूपेंद्र पटेल, और हरियाणा के नायब सिंह सैनी प्रमुख नाम हैं। इसी तरह, आदिवासी समुदाय के चार मुख्यमंत्री—झारखंड के हेमंत सोरेन, छत्तीसगढ़ के विष्णुदेव साय, ओडिशा के मोहन माझी, और नगालैंड के नेफ्यू रियो—भी सत्ता में अपनी भूमिका निभा रहे हैं।
आदिवासी समुदाय का नेतृत्व सामाजिक न्याय की दिशा में एक सकारात्मक संकेत है, लेकिन यह सवाल उठता है कि दलित समुदाय को इसी तरह के अवसर क्यों नहीं दिए जा रहे हैं?
जातीय विविधता और नास्तिक मुख्यमंत्रियों की भूमिका
भारतीय राजनीति में जातीय और धार्मिक विविधता को दर्शाने वाले कई मुख्यमंत्री भी हैं। जम्मू-कश्मीर के उमर अब्दुल्ला, पंजाब के भगवंत मान, मेघालय के कोनार्ड संगमा, और अरुणाचल प्रदेश के पेमा खांडू जैसे अल्पसंख्यक समुदायों के नेता भारतीय राजनीति की बहुलता को दर्शाते हैं। वहीं, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन और केरल के मुख्यमंत्री पी. विजयन खुद को नास्तिक और जाति व्यवस्था का विरोधी बताते हैं। उनकी प्रगतिशील सोच सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के लिए एक प्रेरणा है।
दलित नेतृत्व: भारतीय लोकतंत्र की जरूरत
भारतीय लोकतंत्र की सफलता तभी संभव है जब यह सभी समुदायों को समान प्रतिनिधित्व दे। दलित मुख्यमंत्री की अनुपस्थिति भारतीय लोकतंत्र की गहरी खामियों को उजागर करती है। एक दलित मुख्यमंत्री न केवल दलित समुदाय के लिए बल्कि पूरे समाज के लिए समानता और समरसता का प्रतीक होगा।
राजनीतिक दलों को जातिगत समीकरणों से ऊपर उठकर दलितों को नेतृत्व के अवसर प्रदान करने चाहिए। जब एक दलित मुख्यमंत्री सत्ता में होगा, तो नीतियां और योजनाएं सीधे दलितों और अन्य वंचित समुदायों के उत्थान पर केंद्रित होंगी। यह सामाजिक न्याय की दिशा में एक बड़ा कदम होगा।
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दलित मुख्यमंत्री का चयन—सशक्त लोकतंत्र की ओर
भारतीय राजनीति को जातीय समीकरणों से ऊपर उठकर दलित समुदाय को सशक्त नेतृत्व प्रदान करना होगा। यह न केवल समाज में व्याप्त असमानताओं को दूर करेगा, बल्कि लोकतंत्र को भी मजबूती देगा। दलित मुख्यमंत्री का चयन भारतीय लोकतंत्र के लिए एक ऐतिहासिक कदम होगा, जो सामाजिक न्याय, समानता, और समरसता की नींव पर आधारित होगा।
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