दलितों के बीच अपना चमचा तलाश रहे थे गांधी : मान्यवर कांशीराम

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मान्यवर कांशीराम साहब ने अपनी किताब “चमचा युग” में अलग-अलग प्रकार के चमचों की बात की है। उनके मुताबिक चमचे हर प्रकार के होते हैं। मसलन कुछ राजनीतिक चमचे होते हैं तो सामाजिक चमचे। कांशीराम ने अपनी किताब में अनुसूचित जाति को अनिच्छुक चमचे की संज्ञा दी है तो वहीं अनुसूचित जनजाति को उन्होंने नवदीक्षित चमचा कहा है। OBC के लिये वह महत्वकांक्षी चमचे शब्द का प्रयोग करते हैं तो वहीं अल्पसंख्यक को उन्होंने असहाय चमचा कहा है। लेकिन अपनी इस किताब में मान्यवर कांशीराम साहब ने एक घटना का ज़िक्र करते हुए बताया है कि एक वक्त ऐसा भी आया था जब “गांधी” और कॉंग्रेस को भी हर एक वर्ग और समुदाय में चमचों की ज़रूरत महसूस हुई। वो कौन सी घटना थी आइए जानते हैं..

मान्यवर कांशीराम साहब

चमचा क्या होता है :

चमचा एक देसी शब्द है जिसका प्रयोग उस व्यक्ति के लिए होता है जो अपने आप कुछ नहीं कर सकता बल्कि उससे कुछ करवाने के लिए किसी और की जरूरत होती है। और वह कोई और (व्यक्ति) उस चमचे का इस्तेमाल हमेशा अपने निजी फायदे अथवा अपनी जाति की भलाई के लिए करता है। जो चमचे की जाति के लिए हमेशा अहितकारक होता है। भारतीय संदर्भ में और आम आदमी के लिए, यह शब्द अधिक प्रभावी होगा क्योंकि अर्थ के अतिरिक्त यह अधिकतम प्रभाव के साथ भावना को भी व्यक्त करता है। इन चारों शब्दों (1) चमचा, (2) पिट्टू, (3) दलाल ओर (4) औजार का अर्थ एक ही होता है। लेकिन इनका इस्तेमाल बात के अर्थ एयर भाव के अनुसार किया जाता है।

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कार्यकर्ता को चमचा समझने की भूल नहीं करनी चाहिए :

कुछ लोग कार्यकर्ताओं को चमचे समझने की भूल कर सकते हैं। यह भयंकर भूल होगी। कार्यकर्ता और चमचा धुर विरोधी होते हैं। कार्यकर्ता अत्यंत आज्ञाकारी होता है। जबकि चमचा गुलाम होता है। जो लोग आज्ञाकारिता और गुलामी में भेद नहीं कर सकते, वह एक कार्यकर्ता को भी चमचा समझने की भूल कर सकते हैं। चमचे का इस्तेमाल उसकी अपनी ही जाति के खिलाफ किया जाता है जबकि कार्यकर्ता का इस्तेमाल उसकी जाति की भलाई के लिए होता है। चमचे का इस्तेमाल उसकी अपनी ही जाति के सच्चे और खरे नेता को कमजोर करने के लिए होता है, जबकि कार्यकर्ता का इस्तेमाल उसकी जाति के सच्चे और खरे नेता की मदद के लिए और उसके हाथ मजबूत करने के लिए होता है। चमचा और कार्यकर्ता में अंतर करने के लिए और भी कई तथ्य दिए जा सकते हैं। किंतु यहां हमारी दिलचस्पी केवल इस बात पर जोर देने में है कि एक कार्यकर्ता को चमचा समझने की भूल तो नहीं ही करनी चाहिए।

मान्यवर कांशीराम साहब की किताब “चमचा युग

चमचा बनाने की आवश्यकता :

सच्चे, खरे योद्धा का विरोध करने के लिए औजार, दलाल, पिंडू अथवा चमचा बनाया जाता है। जब खरे और सच्चे योद्धा होते हैं, चमचों की मांग तभी होती है। जब कोई लड़ाई, कोई संघर्ष और किसी योद्धा की तरफ से कोई खतरा नहीं होता तो चमचों की जरूरत नहीं होती, उनकी मांग नहीं होती। जैसा कि हम देख चुके हैं, 20वीं शताब्दी के प्रारंभ से दलित वर्ग लगभग समूचे भारत में छुआछूत और अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई को तैयार हो गए थे। प्रारंभ में, उनकी उपेक्षा की गई। किंतु बाद में जब दलित वर्गों का सच्चा नेतृत्व सशक्त और प्रबल हो गया, तो उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकी। इस मुकाम पर आकर, ऊंची जातियों के हिंदुओं को यह जरूरत महसूस हुई कि वे दलित वर्गों के सच्चे नेताओं के खिलाफ चमचे खड़े करें।

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गांधी और कॉंग्रेस को चमचों की ज़रूरत महसूस हुई ?

गोलमेज सम्मेलन के दौरान, डॉ. आंबेडकर ने अत्यंत सफलतापूर्वक दलित वर्गों के लिए संघर्ष किया। उस समय तक, गांधीजी और उनकी कांग्रेस इस भुलावे में थे कि दलित वर्गों के पास ऐसा कोई सच्चा नेता नहीं था जो उनके लिए लड़ सके। गोलमेज सम्मेलनों के दौरान, 1930-31 के आसपास गांधीजी और उनकी कांग्रेस ने इंच दर इंच अंतिम पल तक दलित वर्गों की राजनीतिक संरक्षा की एक-एक मांग का विरोध किया। किंतु यह डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व
का बूता था कि उन्होंने दलित वर्गों की न्यायोचित मांगों को मनवा लिया। गांधीजी और कांग्रेस के तमाम विरोध के बावजूद, 17 अगस्त 1932 को घोषित प्रधानमंत्री के पंचाट में दलित वर्गों को पृथक निर्वाचक मंडल की स्वीकृति दे दी गई। 1930 से 1982 तक की इस अवधि में गांधीजी और कांग्रेस को पहली बार चमचों की जरूरत महसूस हुई।

(यह लेख मान्यवर कांशीराम द्वारा लिखित पुस्तक “the chamcha age” की अनुवादित पुस्तक “चमचा युग” से लिया गया है। लेख में कई जगह संशोधन किए गए हैं)

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