दलित नायकों की शौर्यगाथायें उस तरह से समाज के सामने नहीं आ पाती हैं, जिस तरह से अन्य समाजों खासकर सवर्ण नायकों को उनका समाज हीरो बना देता है। पहली बार चमार रेजीमेंट पर शोध करने वाले दलित शोधकर्ता सतनाम सिंह ने किये कई ऐसे खुलासे जिन्हें जानकर दलित हीरोज का इतिहास पहली बार आता है सामने। सतनाम सिंह ने अपनी पीएचडी “चमार रेजीमेंट इतिहास और पुनरुद्धार” हाल ही में डॉ. नोनिका दत्ता के पर्यवेक्षण में ‘सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज़’ जेएनयू से पूरा हुआ है, अब वह इसे प्रकाशित करवाना चाहते हैं, जिससे कि दलित नायकों से समाज रू-ब-रू हो सके।
दलित टाइम्स के लिए वरिष्ठ पत्रकार अजय प्रकाश से सतनाम सिंह की एक्सक्लूसिव बातचीत
पीएचडी के तो हज़ारों विषय हो सकते थे, जब आप जेएनयू से पीएचडी कर रहे थे। आपने चमार रेजिमेंट विषय को ही क्यों चुना ?
यह विषय मैंने इसलिए चुना, क्योंकि हमारे देश में चमार जाति की 15% आबादी है। इतनी बड़ी आबादी का अब तक कोई मार्शल इतिहास नहीं था और यह चमार जाति का पहला मार्शल इतिहास है। अभी तक यही समझा जाता था कि यह लोग कमज़ोर हैं या डरपोक हैं और अब पहली बार यह मार्शल इतिहास सामने आया है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भी बहादुर सेना जापान की थीं और इस सेना के साथ भी चमार रेजिमेंट ने लड़ाई लड़ी है। इस लड़ाई में जाट, राजपूत, मराठा रेजिमेंट कार्य कर रही थीं, वहीं काम चमार रेजिमेंट भी कर रही थीं।
दूसरी मुख्य वजह इस विषय को चुनना यह भी था कि चमार रेजिमेंट एक ऐसा इतिहास है, जो अब तक छिपा हुआ था। इस बीते हुए छिपे हुए और मार्शल इतिहास को बाहर लाना ज़रुरी था, इसलिए मैंने यह विषय चुना।
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रिसर्च के दौरान आपने किस तरह की समस्याओं का सामना किया? कुछ दिलचस्प किस्से हमारे साथ साझा करें?
रिसर्च की शुरुआत मैंने 2013 से कर दी थी। इसके लिए सबसे पहले मैंने 2013 में हरियाणा के तीन सैनिकों को खोजा जो चमार रेजिमेंट से संबंधित थे। महेंद्रगढ़ से हवलदार चुन्नी लाल थे। भिवानी से मेजर जोगीराम थे और सोनीपत से धर्मसिंह जी थे। जब मैंने इन्हें खोजा तो इनके मैंने लगातार इंटरव्यू किए। इनके घर भी गया तो इनके इंटरव्यू के जरिये और इनके पास सरकारी कागज़ात, निजी कागज़ात कुछ डक्यूमेंट्स मिलें और इनकी उपलब्धियों और तस्वीरों के आधार पर मैंने साल 2014 में मेरी किताब “चमार रजिमेंट बहादुर सैनिकों की विद्रोह की कहानी उन्हीं की जुबानी” यह किताब काफी प्रसिद्ध हुई। उस दौरान मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से एमफिल कर ली थी, उस समय मैं सोच रहा था कि मेरी कहीं से पीएचडी हो जाए फिर इस किताब के बाद मुझे लगा कि इस विषय में पीएचडी करना बेहतर रहेगा।
“चमार रेजिमेंट बहादुर सैनिकों के विद्रोह की कहानी उन्हीं की जुबानी” किताब हरियाणा के तीनों पात्रों पर आधारित थीं और कुछ जानकारियां हमें ऑनलाइन मिली थीं, जैसे चमार रेजिमेंट के शहीदों की जानकारियां मिली। कॉमनलवेल्थ वॉर कमिशन ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान चमार रजिमेंट के कितने सैनिक शहीद हुए और कितने सैनिकों ने अवॉर्ड हासिल किया इन सबका डाटा साझा किया हुआ था। इन सभी जानकारियों का इस्तेमाल करते हुए यह किताब 2014 में आ गई थीं।
एक बार मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर चारु गुप्ता जी से मिला था और उनसे मेरी पीएचडी के विषय को लेकर चर्चा हो रही थीं तो मैंने उन्हें यह किताब भेंट की थीं तो उन्होंने कहा कि यह विषय बहुत जबरदस्त हो सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि यह विषय इतिहास में एक नई उपलब्धि होगी। फिर उन्होंने कहा कि आप इस विषय पर पीएचडी करें। इसके अलावा उन्होंने मुझे बताया कि इस विषय पर पीएचडी करने के लिए आप कहां कहां से सोर्स ले सकते हैं। इसी के बाद मैंने फैसला कर लिया कि चमार रेजिमेंट पर ही पीएचडी करेंगे।
एक दलित लेखक और शोधकर्ता के तौर पर बतायें कि “चमार रेजिमेंट” के इतिहास को छिपाया गया, इसके पीछे क्या वजह हो सकती है?
चमार रेजिमेंट ने विद्रोह किया उस समय की सत्ता ने इनके इतिहास को सामने आने नहीं दिया, क्योंकि जो सत्ता होती है वह अपने विद्रोहियों को पूरी तरह से विद्रोह के रुप में पेश करती नहीं है। अंग्रेजों ने भगत सिंह को भी उस तरह से पेश नहीं किया था कि वो एक विद्रोही हैं, बल्कि वो उन्हें आंतकवादी के तौर पर पेश करते थे। ठीक इसी तरह उस समय की सत्ता ने भी चमार रेजिमेंट के साथ ऐसा किया था। मुझे ऐसा लगता है कि जब हमारा देश आज़ाद हुआ तो उस समय की सत्ता ने भी चमार रेजिमेंट के इतिहास को छिपाया। इसकी मुझे दो मुख्य वजह मुझे लगती हैं। पहली वजह थी कि उस समय सत्ता में कांग्रेस पार्टी रही, क्योंकि चमार रेजिमेंट उस दौराम आज़ाद हिंद फौज सुभाष चंद्र बोस से जुड़ी थीं। कांग्रेस पार्टी का सुभाष चंद्र बोस के साथ वैचारिक मतभेद था तो शायद इसलिए भी चमार रेजिमेंट के इतिहास को छिपाया गया।
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दूसरी मुख्य वजह मनुवाद या ब्राह्मणवाद था, क्योंकि उनकी सामाजिक अवधारणा यह है कि क्षत्रिय इस काम के लिए बना है, ब्राह्मण इस काम के लिए बना है और शूद्र इस काम के लिए बना है। जब सरकारी कागज़ो में चमार जाति से आने वाली रेजिमेंट बहादुरी दिखा रही है और वही काम कर रही है जो क्षत्रिय कर रहा है। फिर ऐसे में सवाल उठता है कि जो चमार जाति है ये तो वो काम कर रही है जो क्षत्रिय करते हैं तो क्षत्रिय किस काम के लिए हैं? वर्ण व्यवस्था पर भी सवाल उठते हैं आखिर वर्ण व्यवस्था क्यों बनाई गई है, क्योंकि जातीय आधारित वर्ण व्यवस्था है। इसलिए इन वजह से चमार रेजिमेंट के इतिहात को छिपाया गया है।
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अपनी किताब के तकनीकी पक्ष को भी बताएं कि चमार रेजिमेंट कितनी बड़ी रेजिमेंट थी, कितने साल तक रही? इस रेजिमेंट का मुख्य इलाका कौन सा था ?
चमार रेजिमेंट मुख्य रुप से उस समय का यूनाइटेड पंजाब और उत्तरप्रदेश इन दो राज्यों को मिलाकर बनीं थी। इसमें 60% यूनाइटेड पंजाब के योद्धा थे औऱ 40% उत्तर प्रदेश के योद्धा थे। मुख्य रुप से यह रेजिमेंट 1942 में एक द्वितीय पंजाब बटालियन के तौर पर खड़ी की गई थीं, लेकिन एक साल में 1 मार्च 1943 में इसे एक स्वतंत्र रेजिमेंट के तौर पर शामिल कर लिया गया था और दिसंबर 1946 तक कार्यकाल रहा था। इस रेजिमेंट का हेडक्वार्टर मेऱठ में था। फिर यह रेजिमेंट इलाहाबाद गई थीं इसके बाद द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान यह रेजिमेंट असम गई और फिर असम से होते हुए कोहिमा इम्फाल से होते हुए रंगून बर्मा चली गई थीं। द्वितीय विश्व युद्ध के खत्म होने के बाद भी एक साल तक चमार रजिमेंट रंगून में डकैतों से लड़ी थी, क्योंकि इन डकैतों ने रंगून में लोगों को परेशान करना शुरु कर दिया था।
भारत में कई सारी रेजिमेंट जैसे सिख रेजिमेंट, गोरखा रेजिमेंट आज भी आज़ाद भारत में कायम है लेकिन चमार रेजिमेंट को 1946 में खत्म क्यों किया गया, इस बारे में आपके शोध से क्या पता चलता है?
चमार रेजिमेंट एक वॉर टाइम रेजिमेंट थी, इसके अलावा अन्य रेजिमेंट भी ऐसी थीं जो वॉर टाइम थी जैसे लिंगायत रेजिमेंट बिहार रेजिमेंट। जो वॉर टाइम रेजिमेंट होती हैं वे केवल वॉर के लिए बनती हैं। वॉर खत्म होने बाद इन रेजिमेंट का कार्यकाल भी खत्म हो जाता है, लेकिन चमार रेजिमेंट को खत्म करने का कारण था कि इस रेजिमेंट के सैनिकों ने अंग्रेजों की सत्ता के खिलाफ विद्रोह किया था। जब यह रेजिमेंट बनी थी तब एक साल में इस रेजिमेंट के दो हवलदार क्लर्क एक हरियाणा के चंदन सिंह जी और पंजाब के थे निरंजन सिंह इन दो लोगों को सस्पेंड कर दिया गया था, क्योंकि यह दोनों कांग्रेस पार्टी के मूवमेंट में सहयोगी पाए गए थे। इनकों पकड़ा गया था और इन्हें जेल में डाल दिया गया था।
मैंने अपनी रिसर्च के दौरान दोनों के परिवारों को भी खोजा था। रोहतक के पास अकबरपुर गांव है वहां के चंदन सिंह जी थे और पंजाब के निरंजन सिंह जी के गांव को भी मैंने खोजा है। हैरानी की बात यह है कि कांग्रेस पार्टी के मूवमेंट में शामिल होने नौकरियों से सस्पेंड होने के बाद भी दोनों को ही आजादी के बाद स्वतंत्रता संग्रामी का दर्जा नहीं दिया गया। अंग्रेजों ने इस रेजिमेंट को इसलिए खत्म किया, क्योंकि इसका संबंध विद्रोह से था आजाद हिंद फौज के साथ जुड़ी थी। 1944 में इस रेजिमेंट में एक सैनिक थे युद्ध के दौरान समापुर में जो आर्मी पोस्टेड थी, उस दौरान उन्होंने दो ऑफिसर को गोली मारी थी। अंग्रेजों के लिखे सरकारी पेपर जैसे वॉर डायरी मंथली इंटेलिजेंस रिपोर्ट।
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हर बटालियन की मंथली इंटेलिजेंस रिपोर्ट ऊपर भेजी जाती है कि किस रेजिमेंट में क्या क्या चल रहा है तो उस समय चमार रेजिमेंट में देवक राम थे और वह सोनीपत के सैनिक थे उन्होंने दो ऑफिसर को गोली मार दी और “आजाद हिंद फौज जिंदाबाद” का नारा लगाते हुए अपनी राइफल लेकर जंगल में भाग गए थे। उनको पकड़ने के ले एक बटालियन बनाई गई थी फिर टीम गठित की गई थी। 24 घंटे तक उन्हें पकड़ने के लिए सर्च ऑपरेशन किया गया था फिर उन्हें पकड़ लिया गया था। फिर दीमापुर के अंदर उनकां कोर्ट मार्शल हुआ और दीमापुर में उन्हें फांसी की सजा हुई। हमारे स्वतंत्रता संग्रामियों के दस्तावेजों को कभी भी स्वतंत्रता संग्रामी के दस्तावेज घोषित नहीं किया गया। यही इसकी मुख्य वजह रही कि इस रेजिमेंट को तोड़ा गया।
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चमार रेजिमेंट के जो दूसरे सैनिक थे जो शहीद हुए या जिंदा हैं, क्या उन्हें बिना किसी जातिगत भेदभाव के सरकार ने बाद में स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा दिया?
चमार रेजिमेंट के किसी भी सैनिक को सरकार ने स्वतंत्रता संग्राम का दर्जा नहीं दिया। भले वो सैनिक शहीद हो या जेलों में हो या विद्रोह करने वाले देवकराम किसी को भी स्वतंत्रता संग्राम का दर्जा नहीं दिया गया। यहां तक कि इसके 27 योद्धा ऐसे थे कि किसी को दो साल की तो किसी को तीन साल की किसी को पांच साल की तो किसी को सात साल की सजा भी हुई। चमार रेजिमेंट के आखिरी खेप ने डिसबैंडमेंट के विरोध में गोलीबारी की। उनमें से 1952 में चुन्नीलाल और जोगीराम जी जेलों से छूटे थे। देश के आज़ाद होने के 5 साल बाद तक वे सब जेलों में रहे हैं लेकिन किसी ने भी उनकी पड़ताल नहीं की ये लोग अंदर क्यों हैं, किसी ने भी उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया।
मैंने अपनी रिसर्च के दौरान जोगीराम के प्राइवेट पेपर खोजे हैं 1950 से 1951 के समय का एक पेपर लेटर है, जिसमें सरकार के लिए लिखा गया था कि उनकी पत्नी माम कौर लिख रहीं हैं कि “मेरे पति को छोड़ दिया जाए मेरे घर की हालत बहुत खराब है कमाने वाला कोई नहीं है और इतने साल से मेरे पति जेल में बंद हैं” फिर एक दूसरे लेटर में लिखा गया है कि ‘इन्होंने जो काम किया है वो माफ करने लायक नहीं है इसलिए इन्हें छोड़ा नहीं जा सकता और इन्हें पूरी सजा मिलेगी।’ इसलिए जोगीराम 1952 तक भी जेलों में रहे हैं और चुन्नीलाल भी रहे हैं। 1947 से लगभग 15 ऐसे सैनिक थे जो 5 साल तक जेलों में रहे हैं कुछ सैनिक ऐसे थे, जिन्हें 2 साल 3 साल की सजा हुई। इस तरह से यह एक पूरे विद्रोह की कहानी है जिसे छिपाया गया है और किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया। पहली बार मेरी पीएचडी के माध्यम से ही अभिलेखागार से बाहर आए हैं।
आपने इतनी मेहनत और महत्वाकांक्षी योजना के तहत चमार रेजिमेंट पर किताब लिखी समाज और देश को भी इसे सुपुर्द कर दिया तो इस पर चर्चा की क्या स्थिति है? क्या मीडिया में लोग इस पर बातचीत कर रहे हैं या यहां भी जातिवादी पूर्वाग्रह आपको दिखाई दे रहा है?
मीडिया में उस तरह से चर्चा नहीं हो रही है, सोशल मूवमेंट जो अभी चल रहा है उसी में ही चर्चा हो रही है। यह एक बड़ी बात है कि इस पर पीएचडी हो पाई, जबकि बहुत से प्रोफ़ेसरों ने भी मुझे कहा था कि हो सकता है कि शायद इसको पास नहीं करेंगे।
अंत में मैं इस बातचीत के जरिये धन्यवाद देना चाहूंगा “जेएनयू के सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज’ का डिपार्टमेंट है मॉर्डन हिस्ट्री का और अपनी मार्गदर्शक प्रोफ़ेसर नोनिका जी का । इन सबका धन्यवाद है कि इन्होंने इस विषय को सराहा। दूसरी कोई यूनिवर्सिटी होती तो शायद इस विषय पर पीएचडी नहीं हो पाती, वो शायद बदलवा देते, लेकिन इन्होंने मुझे इनकरेज किया। बाकी मीडिया में इस पर कोई चर्चा नहीं है। जो भी चर्चा हो रही है वो सोशल मीडिया या सोशल मूवमेंट के जरिये हो रही है। “राइट मूवमेंट” के अंदर चर्चा है इस मूवमेंट में लोगों में काफी उत्साह हे कि पहली बार इस विषय पर काम हो पाया है। किताब आने पर ही यह पता लग पाएगा कि जो मूवमेंट के बाहर के लोग हैं वो कितना इस विषय के प्रति उत्साहित हैं।
(वरिष्ठ पत्रकार अजय प्रकाश द्वारा किये गये दलित शोधकर्ता सतनाम सिंह के इस वीडियो इंटरव्यू का ट्रांसक्रिप्शन दलित टाइम्स की युवा पत्रकार उषा परेवा ने किया है।)