भीमा कोरेगांव पहुंचे चंद्र शेखर आज़ाद, महार योद्धाओं को श्रद्धांजली अर्पित की

Share News:

भीमा कोरेगांव शौर्य दिवस पर आजाद समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर आज़ाद व भीम आर्मी के राष्ट्रीय अध्यक्ष विनय रतन सिंह ने भीमा कोरेगांव पहुँचकर महार योद्धाओं को नमन कर श्रद्धांजली अर्पित की मौके पर चंद्रशेखर आज़ाद के समर्थन पर भारी भीड़ मौजूद रही।

https://twitter.com/Vndnason/status/1477256622476959746?s=20

 

गौरतलब हैं कि भीम आर्मी चीफ चंद्र शेखर आज़ाद ने शनिवार को ट्वीट कर शौर्य दिवस पर महार योद्धाओं को याद करते हुए देश के समस्त बहुजनों को बधाई दी और कहा “1 जनवरी 1818 भीम कोरेगांव शौर्य दिवस की समस्त बहुजनों को हार्दिक बधाई एवं अभिनंदन व सभी 500 वीर महार योद्धाओं को शत शत नमन।”

आज़ाद समाज पार्टी की महिला मोर्चा की मंडल अध्यक्ष वंदना सोनकर ने चंद्रशेखर आज़ाद की तस्वीर को सोशल मिडिया पर साझा करते हुए कहा कि “आज भीम आर्मी चीफ व आजाद समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भाई चंद्रशेखर आज़ाद जी,व भीम आर्मी राष्ट्रीय अध्यक्ष भाई विनय रतन सिंह जी ने भीमा कोरेगाँव पहुँचकर वीर सपूतों को नमन करते हुए कुछ तस्वीर।

भीमा कोरेगांव शौर्य दिवस का इतिहास-

1707 में औरंगजेब की मृत्यु पश्चात में बहादुर शाह-1 ने छत्रपति संभाजी के पुत्र शाहूजी को रिहाई की कुछ शर्तों पर अपनी कैद से रिहा किया. उसके तुरंत बाद शाहूजी ने मराठा सिंहासन का दावा किया और अपनी चाची ताराबाई और उसके बेटे को चुनौती दी. 1713 को शाहूजी ने जो की मराठा साम्राज्य के छत्रपति बन चुके थे, उन्होंने बालाजी विश्वनाथ जो की (चितपावन ब्राह्मण )थे, उनको पांचवा पेशवा (प्रधानमंत्री) घोषित किया, बाद मे पेशवाओं का दौर शुरू हुआ और वे मराठा सम्राज्य के प्रमुख शक्ति केंद्र बन गए और छत्रपति एक शक्तिविहीन औपचारिकता मात्र का शासक रह गए जैसे आज के राष्ट्रपति होते है. मराठा साम्राज्य की पूरी कमान पेशवाओं के हाथो में आ गई और पेशवाओं (चितपावन ब्राह्मणों) ने अपनी जातिवादी सोच के चलते महारों (दलित समाज में शामिल एक जाति जो महाराष्ट्र केंद्रित है) पर मनुस्मृति की व्यवस्था लागू कर दी, जिसके तहत उन्हें कमर पर झाड़ू और गले में मटका बांधने को कहा गया. ताकि जब कोई महार रास्ते से चले तो उनके पैरों के निशान झाड़ू द्वारा मिटते रहे और वे थूंकना भी चाहे तो उन्हें अपने गले की मटकी में ही थूकना पड़े.

यह वही दौर था जब ईस्ट इंडिया कंपनी भारत पर अपना विस्तार करने में लगी हुई थी और उसके लिए उनको पेशवाओं को हराना बेहद जरुरी था और ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी रणनीति बना ली थी। उस वक्त महारों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ लड़ने के लिए पेशवाओं की सेना में भर्ती होने का आग्रह किया, जिसे पेशवाओं द्वारा अपमानित ढंग से ठुकरा दिया गया। यह बात जब अंग्रेजो को पता चली तो उन्होंने महार जाती के लोगों को समानता की शर्तों पर अपने साथ ले लिया और उन्हें अंग्रेजी सैन्य में भर्ती होने का न्योता दिया।

जब 1 जनवरी 1818 ईस्ट इंडिया कम्पनी और पेशवाओं में युद्ध हुआ तब पेशवाओं की सेना में 20 हजार घुड़सवार और 8 हजार पैदल ऐसे कुल 28 हजार सैनिक थे, जिनकी अगुवाई पेशवा बाजीराव-2 कर रहे थे और ईस्ट इंडिया कंपनी की तरफ से बॉम्बे लाइन इन्फेंट्री में कुल 500 महार सैनिक थे। जिनमे आधे घुड़सवार और आधे पैदल सैनिक थे।

महार रेजिमेंट के शौर्य बल के आगे पेशवा नहीं टिक सके और इस युद्ध में पेशवाओं की करारी हार हुई. पेशवाओं का साम्राज्य खत्म हुआ. महार रेजिमेंट की अभूतपूर्व अविस्मरणीय वीरता की यादगार में भीमा नदी के किनारे विजय स्तंभ का निर्माण करवाया गया. जिस पर उन शूरवीरों के नाम लिखे गए, ध्यान रहे मराठा साम्राज्य पहले ही खत्म हो चूका था. जबसे पेशवाओं ने मराठा साम्राज्य पर कब्जा कर लिया था, इसलिए यदि कोई कहे की यह लड़ाई मराठाओं और अंग्रेजो के बीच हुई या मराठा और महारों के बीच हुई तो यह बात बिल्कुल गलत है।

*दलित टाइम्स उन करोड़ो लोगो की आवाज़ है जिन्हें हाशिए पर रखा गया है। *

महिला, दलित और आदिवासियों के मुद्दों पर केंद्रित पत्रकारिता करने और मुख्यधारा की मीडिया में इनका प्रतिनिधित्व करने के लिए हमें आर्थिक सहयोग करें।

  Donate

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *