कौन थे स्वच्छता अभियान के पहले ब्रांड एम्बेसडर दलित संत बाबा गाडगे, बाबा साहेब अंबेडकर से था ये खास रिश्ता

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 उत्तर भारतीयों को संत गाडगे बाबा से दलित नायक कांशीराम ने परिचित कराया था। मान्यवर कांशीराम संत गाडगे बाबा की जयंती और परिनिर्वाण दिवस मनाने के लिए धोबी समाज को प्रेरित करते थे और बहुजन समाज सुधारकों के पुंज में उनको उचित स्थान देते थे…

 

दलित समाज से आने वाले संत गाडगे बाबा की जयंती 23 फरवरी पर प्रेमा नेगी की टिप्पणी

 

Who is Dalit Saint Gadge Baba Maharaj: भारत में स्वच्छ भारत अभियान बड़े जोर—शोर से चलाया जाता है, जिसका इस्तेमाल पार्टियां और नेतागण शुद्ध पॉलिटिक्स के लिए करते हैं, मगर क्या हमारा देश इस बात को जानता है कि असल मायने में स्वच्छ भारत के सच्चे ब्रांड एम्बेसडर कौन थे। इसका जवाब है नहीं, क्योंकि इस बात को समाज में प्रचारित ही नहीं किया गया कि स्वच्छता के प्रति समाज को चेताने वाले नेतागण नहीं बल्कि लगभग 115 साल पहले संत गाडगे बाबा कर चुके थे। दलित समाज से आने वाले उन्हीं संत बाबा गाडगे की आज जयंती है। 23 फरवरी 1876 को महाराष्ट्र के अकोला जनपद स्थित खासपुर गाँव जिसे अब शेणगांव के नाम से जाना जाता है, में धोबी परिवार में जन्मे संत बाबा गाडगे के पिता का नाम झिंगरजी और माता का नाम सखुबाई था। मात्र 8 साल की उम्र में उनके पिता का निधन हो गया था।

संत बाबा गाडगे का पूरा नाम देवीदास झिंगरजी जाणोरकर था और उन्हें बचपन में डेबू नाम से पुकारा जाता है। डेबूजी अपने माँ-बाप की इकलौती औलाद थे। मात्र 8 साल की उम्र में जब पिता का साया उनके सिर से उठ गया तो मां सखुबाई उनको लेकर अपने भाई के आश्रम में आकर रहने लगीं। 8 साल की छोटी सी उम्र में ही गाडगे महाराज ने घर की विपन्नता और संकटग्रस्त परिस्थितियों का सामना किया। इसी उम्र से उनके मन—मस्तिष्क पर दलित समाज के पिछड़ेपन, अनपढ़ होने के कारण होने वाली परेशानियों, सामाजिक प्रताड़नाओं की ऐसी छाप पड़ी कि उन्होंने प्रण कर लिया कि वह अपने समाज के लिए ही जीयेंगे।

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जब आज के समाज में दलित समाज इस तरह उत्पीड़ित किया जाता है, तो आज से लगभग 150 साल पहले की स्थितियां कैसी रही होंगी, इसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है। बाबा गाडगे के समय में शिक्षा से वंचित रखी गयी सभी दलित जातियों में अज्ञानता, अंधविश्वास, गरीबी, शराबखोरी विद्यमान थी। वातावरण गंदा रहने एवं भोजन के अभाव में बच्चे बड़ी संख्या में कुपोषण का शिकार हो जाते थे।

बाबा गाडगे कहते भी थे और मानते भी थे कि सफाई, गरीबी और कुपोषण के बीच गहरा सम्बन्ध है, इसलिए सबसे पहले इसे खत्म करना होगा। स्वच्छता के प्रति उनके समर्पण को इसी बात से समझा जा सकता है कि अपने स्वच्छता मिशन के लिए उन्होंने घर भी त्याग दिया।
सफाई अभियान के प्रति महाराष्ट्र समेत देशभर में अलख़ जगाते हुए नन्हे डेबू ने संत गाडगे महाराज तक की यात्रा की।

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बाबा का मिशन फैलाने के उद्देश्य से उनके अनुयायियों ने 8 फरवरी 1952 को गाडगे मिशन की स्थापना की। महाराष्ट्र के अकोला में जन्मे गाडगे महाराज की महानता और उनके द्वारा किए गए समाज कल्याण के कामों से महाराष्ट्र सरकार वाकिफ थी। यही वजह रही कि महाराष्ट्र के तत्कालिन मुख्यमंत्री श्री बी.जी खैर ने गाडगे बाबा की सभी संस्थाओं का ट्रस्ट बना दिया, जिसमें करीब 60 संस्थाएं हैं। आज भी यह मिशन जनसेवा को समर्पित है।

 

दलित संत बाबा गाडगे और बाबा साहेब अंबेडकर (image: social media X)

 

 

संत गाडगे व उनके कार्यों के बारे में समाज इसलिए भी नहीं जान पाया, क्येांकि वह दलित थे और इतिहास लेखन में दलित महापुरूषों के साथ बहुत भेदभाव किया गया है। इतिहासकारों ने मानवता, समाज व राष्ट्र के निर्माण में दलित महापुरूषों के योगदान की किस तरह उपेक्षा की है, यह दलित संतों के बारे में जानकर पता चलता है। इतिहासकारों की इसी उपेक्षा का शिकार संत गाडगे भी हुए। मनुवादी-वर्णवादी व जातिवादी व्यवस्था में भारतीय इतिहासकारों ने दलित समाज सुधारकों, योद्धाओं, वीरों और महापुरूषों के साथ न्याय नहीं किया। समाज में बड़ा योगदान करने के बावजूद इतिहास में उन्हें वो स्थान नहीं दिया, जिसके वो हकदार थे। इतिहास ने आने वाली पीढ़ी को यह कभी नहीं बताया कि संत गाडगे भारत के पहले स्वच्छता दूत थे और वे गरीबी, बीमारी व स्वच्छता के अंतरसम्बन्ध को अच्छी तरह समझते थे।

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हालांकि गरीबी और दलित समाज से आने के कारण और बचपन में ही पिता का साया उठ जाने के कारण संत गाडगे को औपचारिक शिक्षा नहीं मिल पायी, मगर पर संत नामदेव तथा चोखामेला का गहरा प्रभाव था। उनके बारे में यह तथ्य सामने आया है कि दलित—पीड़ित मानवता की सेवा के लिए उन्होंने 1905 में ही लकड़ी तथा मिट्टी का बर्तन, जिसे महाराष्ट्र में गाडगा (लोटा) कहा जाता है, लेकर आधी रात में गौतम बुद्ध की तरह अपना घर छोड़ दिया था। 1917 तक साधक अवस्था में उन्होंने उपेक्षितों एवं शोषितों की सेवा की थी। वे कीर्तन के माध्यम से गांव-गांव घूमकर शिक्षा की महत्ता से दलित—दमित—पिछड़े और गरीब समाज को परिचित कराते। उन्होंने जीवन में प्रकाश लाने व मानवता की सेवा के लिए दस सूत्र दिये थे।

संत गाडगे के दस संदेश

  1. भूखे को अन्न दो व स्वच्छता को अपनी आदत बनाओ।
  2. प्यासे को पानी पिलाओ।
  3. वस्त्रहीन को वस्त्र पहनाओ।
  4. दीनों को शिक्षा में मदद करो।
  5. बेघरों को आसरा दो।
  6. अंधे, पंगु, रोगी को दवा दो।
  7. दुखी व निराश लोगों को हिम्मत दो।
  8. बेकारों को काम दो।
  9. पशु-पक्षी सहित सभी जीवों पर दया करो।
  10. गरीब युवक-युवती की शादी में सहायता करो।

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स्वच्छता को अपना मिशन मानने वाले गाडगे अक्सर अपने आस-पास की सफाई करते नजर आते थे और लोगों को सफाई के महत्व को समझाते रहते थे। वे कहते भी थे कि अगर आप सफाई रखेंगे, अपने बच्चों को, अपने को स्वच्छ रखेंगे तो बीमार नहीं पड़ेंगे। बीमार नहीं पड़ेंगे तो आपकी आय बढेगी। इससे आपका जीवन स्तर सुधरेगा तथा आप अपने बच्चों की शिक्षा पर पैसा खर्च कर सकेंगे।

आजीवन नहीं बनाया कोई मंदिर, 60 संस्थायें बनाने के बावजूद अपने लिए नहीं बनायी एक भी कुटिया
संत गाडगे के बारे में एक दिलचस्प तथ्य यह भी पता चलता है कि उन्होंने आजीवन कभी कहीं किसी मंदिर का निर्माण नहीं कराया। उपेक्षित एवं साधनहीन मानवता के लिए स्कूल, धर्मशाला, गोशाला,छात्रावास, अस्पताल, परिश्रमालय, वृद्धाश्रम आदि का निर्माण करने में उन्होंने महती भूमिका जरूरी निभायी। यही नहीं इस दलित संत ने कभी किसी से दान का पैसा नहीं लिया। वह दानदाताओं से कहते थे, दान देना है तो अमुख स्थान पर संस्था में दे आओ। उन्होंने अपने जीवनकाल में 60 संस्थाओं की स्थापना की, लेकिन पूरे जीवन में अपने लिए एक कुटिया भी नहीं बनवायी। वे ताउम्र धर्मशालाओं के बरामदे और पेड़ों के नीचे जीवन—यापन करते रहे।

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शिक्षा के महत्व को जाना बखूबी

खुद निरक्षर होने के बावजूद इस दलित संत ने शिक्षा को बहुत महत्व दिया। उनका कहना था कि पैसे की तंगी हो तो खाने के बर्तन बेच दो, महिलाओं के लिए कम दाम के कपड़े खरीदो, टूटे-फूटे मकान में रहो, लेकिन अपने बच्चों को शिक्षा से वंचित मत रखो। शिक्षा से ही जीवन का अंधकार दूर होगा। इस घूमते फिरते सामाजिक शिक्षक के पैरों में हमेशा फटी हुई चप्पल रहती थी और सिर पर मिट्टी का कटोरा ढककर वे पैदल ही यात्रा किया करते थे यही उनकी पहचान भी थी, उनकी इस वेशभूषा के कारण लोग उन्हें चिथड़े चिथड़े बाबा भी कहते थे। जब वे किसी गांव में प्रवेश करते थे तो गाडगे महाराज तुरंत ही गटर और रास्तों को साफ़ करने लगते और काम खत्म होने के बाद खुद ही लोगों को गांव के साफ़ होने की बधाई भी देते थे।

गांवों में सफाई करने के बाद शाम को वह संबंधित गांव में ही भजन-कीर्तन का आयोजन करते थे। भजन कीर्तन के बहाने वल लोगों को अंधविश्वास के प्रति जागरूक करते थे और समझाते थे कि अंधविश्वास जैसी सामाजिक कुरीति के रहते हमारा समाज कभी भी तरक्की नहीं कर पायेगा।

समाज के लिए ही अपना जीवन समर्पित करने वाले इस स्वच्छता के दूत ने अपने अनुयायियों से कहा था कि भविष्य में भी कभी मेरा स्मारक मत बनाना। जहां मेरी मृत्यु हो जाये, वहीं पर मेरा अंतिम संस्कार कर देना। मेरी मूर्ति, समाधि, स्मारक या मन्दिर नहीं बनाना। मैंने इंसानियत की जो सेवा की है, वहि मेरा सच्चा स्मारक है।

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बाबा साहेब से रिश्ता :

कहा जाता है कि दलितों के मसीहा बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर बाबा गाडगे के बहुत बड़े प्रशंसक थे।अम्बेडकर अपने गुरू ज्योतिबा फुले के बाद संत गाडगे को सबसे बड़ा त्यागी जनसेवक मानते थे। अंबेडकर के साथ बाबा गाडगे के संबंध अंत समय तक कायम रहे। गाडगे बाबा ने अम्बेडकर को शोषितों-पीड़ितों का उद्धारक कहा। जब संत गाडगे बीमार हुए तब अंबेडकर देश के कानून मंत्री थे, तब वे उन्हें अस्पताल में देखने गये और शॉल ओढाकर सम्मानित किया। गाडगे बाबा ने अछूतों के लिए बनायी गयी पंढरपुर की चोखामेला धर्मशाला बाबा साहेब के हवाले यह कहते हुए की थी कि यह दमितों—दलितों—वंचितों के काम आये। डॉ. अम्बेडकर की मौत से ठीक 14 दिन बाद 20 दिसम्बर 1956 को संत गाडगे बाबा ने भी दुनिया को भी अलविदा कह दिया था।

उत्तर भारतीयों को संत गाडगे बाबा से दलित नायक कांशीराम ने परिचित कराया था। मान्यवर कांशीराम संत गाडगे बाबा की जयंती और परिनिर्वाण दिवस मनाने के लिए धोबी समाज को प्रेरित करते थे और बहुजन समाज सुधारकों के पुंज में उनको उचित स्थान देते थे। संत गाडगे बाबा के सार्वजनिक स्वच्छता अभियान के लिए समर्पण के सम्मान में महाराष्ट्र सरकार ने 2000-2001 में संत गाडगे बाबा संपूर्ण ग्राम सफाई अभियान जैसी योजना का आरम्भ किया, जिसके अंतर्गत सबसे स्वच्छ गांवों को पुरस्कृत करने की योजना बनाई थी।

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