पद्मश्री मिलिंद काम्बले एक ऐसे समाज सेवक हैं, जिन्होंने दलित वर्ग के लोग के उत्थान के लिए कड़ी मेहनत की और आज वे किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं। मिलिंद काम्बले भारत के जाने – माने बिजनेस मैन हैं, जिनकी कड़ी मेहनत ने भारत के दलित उद्यमियों को बिजनेस उभारने का मंच दिया है। महाराष्ट्र के युवा इंजीनियर मिलिंद कांबले ने खुद का बड़ा बिजनेस खड़ा कर देश में उभर रहे दलित उद्यमियों को एक अनूठा मंच दिया और आपके नेतृत्व में देश के कोने -कोने में बिजनेस से संबंधित सेमीनार आयोजित किये गए, जिससे बहुजन उद्यमियों को मार्गदर्शन मिला।

मिलिंद काम्बले ने अपने जीवन में बहुत संघर्ष किया और कामयाबी हासिल की, जिसके बल पर आज वे एक नामी बिजनेस मैन हैं। आज के समय में मिलिंद काम्बले की फॉर्चून कंस्ट्रक्शन कंपनी का मुंबई के बेहद महंगे व पॉश इलाके नरीमन पॉइंट में उनका आलिशान कार्पोरेट ऑफिस है, जिसका सालाना टर्न ओवर लगभग पौने दो सौ करोड़ रूपये तक पहुंच गया है। कुशल इंजीनियरों सहित हजारों लोगों को रोज़गार दे रहे हैं। वहीं, पद्मश्री मिलिंद काम्बले एक क़ाबिल बिजनेस मैन हैं यह बात सभी जानते हैं, लेकिन इस कामयाबी के पीछे उनके जीवन के जो कड़वे अनुभव रहें हैं उन्हें कोई नहीं जानता है। आइए जानते हैं महाराष्ट्र के लातूर जिले के चोबली गांव में जन्मे मिलिंद काम्बले की जीवन गाथा कैसी रही।
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मिलिंद काम्बले का जन्म सन् 1967 में महाराष्ट्र के लातूर जिले के चोबली गांव में हुआ था। मिलिंद काम्बले के पिता प्रहलाद भगवान कांबले सरकारी स्कूल में टीचर थे और उनकी माता निरक्षर थीं, जो कि एक सामान्य गृहणी थीं। मिलिंद काम्बले के घर में खेती बाड़ी भी ठीक हो जाती थी इसलिए ज़्यादा मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ा। बालक मिलिंद ने 1983 में ग्याहरवीं पास की और इसी दौरान उनके एक रिश्तेदार ने पॉलीटेक्निक डिप्लोमा इंजीनिरिंग करने की सलाह दी। डिग्री के लिए ज्यादा पैसा व समय लगाना ठीक नहीं है, इसलिए जल्दी डिप्लोमा के बाद जल्दी सरकारी नौकरी मिल जाएगी। मिलिंद काम्बले ने नांदेड़ पॉलीटेक्निक कॉलेज में सिविल डिप्लोमा इंजीनियर के लिए एडमिशन ले लिया।

इस दौरान प्रेक्टिकल प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार करने के लिए सप्ताह भर तक किसी कंस्ट्रक्शन साइट पर कामकाज देखना व समझना पड़ता था। इसी समय एक कांट्रेक्टर विकास से मिलना हुआ जो खुद कॉलेज का पास आऊट था। उसने स्टूडेन्ट्स को कंस्ट्रक्शन के क्षेत्र में खुद का बिजनेस खड़ा कर खूब पैसा कमाने का सपना दिखाया और इसके लिए मुम्बई की बजाय पुणे ज्यादा ठीक रहेगा। युवा कांट्रेक्टर के पास सुविधाएं देख कर व पैसे कमाने का बढ़िया तरीका जान कर मिलिंद के सपने भी आसमां में उड़ने लगे। नांदेड़ में पढ़ाई के दौरान ही दलित पैंथर नामक संगठन ज्वॉइन किया जो अमेरिका के ब्लैक पैंथर की तरह महाराष्ट्र के दलितों में जागृति अभियान चला रहा था। वहीं आगे चल कर 1987 में डिप्लोमा पूरा का मिलिंद ने पिताजी को पुणे जाकर अपना बिजनेस करने की योजना बताने लगे।
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वे पूरी योजना बताते इससे पहले ही शिक्षक पिता भड़क गये। बोले, बिजनेस का मतलब जानते हो?, बिजनेस शुरू करने के लिए तुम्हारे पास रूपया है?, तुम्हारा कोई रिश्तेदार बिजनेस में है? भलाई इसी में है कि जल्दी ही किसी सरकारी नौकरी के लिए फार्म भर दो और बिजनेस का नाम मत लेना। मैंने तुम्हें इसलिए पढ़ाया कि तुम कही “साहब” बनो, इसलिए नहीं कि छुटभैया ठेकेदार बनकर इधर उधर ठोकरें खाओ। मिलिंद काम्बले ने भी कई महीनों तक नौकरी के लिए आवेदन नहीं किया और एक दिन घर छोड़ने का मन बना लिया। सपने तो ऊंचे थे लेकिन पास में फूटी कौड़ी नहीं थी। मां ने चुपके से लाड़ले को 500 रूपये व आशीर्वाद दिया। बस से लातूर होते हुए पुणे पहुंचे। वहां एक परिचित के साथ छोटी सी जगह में कुछ दिन गुजारे और एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में 700 रूपये महीने की नौकरी मिली।
साल भर बाद दूसरी कंपनी में थोड़ी ज्यादा पगार मिलने लगी वहीं, एक कमरा किराये लिया और एक साइकिल भी खरीद ली। इसके बाद एक हाऊसिंग कंपनी में महीने के 3 हज़ार 750 रूपये
की पगार पर नौकरी ज्वॉइन की। साइकिल छोड़ स्कूटर खरीदा और इसी दौरान अपने सपने को फिर से याद कर मिलिंद कांबले ने इंजीनियर्स एंड कॉट्रेक्टर्स नाम की कंपनी बनाई और काम की तलाश शुरू कर दी। 1992 में पहला काम एक कॉलेज की बाउंड्री वॉल बनाने का मिला। 97 हजार रूपये का काम था। काम पूरा होने पर कॉलेज के प्रिंसिपल से मिलिंद काम्बले को बुलाकर शाबाशी दी और 500 रूपये का पुरस्कार भी दिया।

मिलिंद काम्बले हमेशा जीवन में आगे बड़े काम के लिए पास में ज्यादा पूंजी होना जरूरी था लेकिन पिताजी से मांगने की हिम्मत भी नहीं हो रही थी। इसलिए दोस्तों से कुछ पैसों का जुगाड़ किया। दूसरा काम डेढ़ लाख रूपये का मिला और कंपनी का पहले साल का टर्नओवर साढ़े छः लाख हुआ। इसके बाद उत्तरप्रदेश मूल के मिश्राजी जैसे बड़े कंट्रैक्टर के साथ पार्टनरशिप में काम किया। इसी दौरान रेलवे विभाग में एक दलित अधिकारी के. आर. कांबले की मदद के कारण मिलिंद को इस शर्त पर काम मिलता गया कि क्वालिटी कीमत व समय के साथ समझौता नहीं होगा।
1995 में मिलिंद काम्बले की शादी हुई। इसके बाद मिश्राजी की कंपनी को सामान व सेवाएं देने लगे इस तरह एक के बाद एक करोड़ों के प्रोजेक्ट पूरे होते गये। इसी दौरान मुम्बई में दलितों की एक कांफ्रेन्स में बिजनेस की चर्चा के बाद दलित उद्यमियों का एक मंच बनाने की योजना बनाई। पहले 2003 में इसका नाम SCSTCCI रखा लेकिन दो साल बाद FICCI की तर्ज पर DICCI रखा गया। इसी के साथ 14 अप्रेल 2006 के दिन खुद की कंपनी का नाम भी बदल कर फॉर्चून कंस्ट्रक्शन कंपनी रखा। आखिर मिलिंद काम्बले अपनी कंपनी को कार्पोरेट लुक देना चाहते थे।
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वहीं बाद में मिलिंद कांबले ने सरकारी काम की बजाय मुख्य रूप से प्राइवेट सेक्टर में ही काम करने की सोची। शुरूआत सिंगल स्टोरी बिल्डिंग निर्माण से की। एक प्राइवेट कॉलेज में 10 करोड़ का काम मिला। इसके बाद 2008 में 100-150 फ्लेट वाले टॉवर बना कर नई मिसाल कायम की। पिनाय नामक प्रसिद्ध टॉवर में पौने दो सौ फ्लेट थे। मिलिंद कांबले की फॉर्चून कंपनी का आ रहे।
डिक्की के प्रयासों का ही परिणाम है पदश्री का सम्मान काम एक के बाद एक बढ़ते हुए नई ऊंचाईयों तक पहुंचता गया। वर्ष 2014 में इसका सालाना टर्नओवर लगभग 180 करोड़ रूपये था।

2003 में डिक्की की स्थापना के बाद मिलिंद कांबले अपने बिजनेस के साथ पूरे देश में दलित उद्यमियों को एक मंच पर लाने के लिए आए दिन दौरे कर रहे है। बड़े उद्योग समूहों व सरकारी नुमाइंदों के साथ बैठक कर नया वातावरण तैयार कर रहे है। दलित उद्यमी आगे कि केन्द्र सरकार ने दलित उद्यमियों को बढ़ावा देने हेतु 200 करोड़ रूपये का वेंचर केपिटल फंड का विशेष प्रावधान किया है ताकि उभरते उद्यमियों को धन की कमी का सामना नहीं करना पड़े। उम्मीद है उभरते दलित उद्यमियों को आगे बढ़ाने के लिए मिलिंद कांबले व उनकी टीम के सपने जरूर पूरे होंगे।

मिलिंद काम्बले शुरू से ही इस मिशन के प्रणेता तथागत बुद्ध व बाबासाहेब अंबेडकर को मानते है और अंबेडकर की आर्थिक नीतियों का हवाला देकर दलितों को आहवान करते हैं कि, समय की मांग है अब बिजनेस संभालों और साल 2013 में भारत सरकार ने इन्हीं उपलब्धियों को देखकर मिलिंद कांबले को पद्मश्री जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कार से सम्मानित किया।
यह लेख – रुखसाना द्वारा लिखा गया है। (जर्नलिस्ट दलित टाइम्स)
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