पहला दलित क्रिकेटर “पलवंकर बालू” जिन्हें बाबा साहेब अंबेडकर भी मानते थे दलित समाज का आदर्श, क्रिकेट के मैदान में भी जातिवादियों का झेला उत्पीड़न

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पहले दलित क्रिकेटर पलवंकर बालू के बारे में कहा जाता है कि मैदान के बाहर भी उनके खाने पीने के बर्तन भी अलग रखे होते थे और उन्हें अपने बर्तन भी खुद साफ करने होते थे, ऐसा भी कहा जाता है कि खिलाड़ी उनके साथ बैठते भी नहीं थे, मगर हद दर्जे का जातिगत भेदभाव झेलने के बाद भी बालू ने हार नहीं मानी और वह आगे बढ़ते रहे….

पहले दलित क्रिकेटर पलवंकर बालू के बारे में बता रही हैं युवा पत्रकार उषा परेवा

दलित जाति से संबंध रखने वाले दलित नायक पलवंकर बालू का जन्म 19 मार्च 1876 को धारवाड़, बॉम्बे प्रेसीडेंसी, ब्रिटिश भारत में एक चमार परिवार में हुआ था। पलवंकर बालू पहले भारतीय दलित क्रिकेट खिलाड़ी थे। इनके पिता ब्रिटिश भारतीय सेना की 112 वीं इन्फैंट्री रेजिमेंट में एक सिपाही थे। आज से कई साल पहले पलवंकर बालू क्रिकेट की दुनियां में इस तरह छा गए कि राजा और अमीर पारसी भी उनके साथ क्रिकेट खेलने के लिए मजबूर हो गए थें। क्रिकेट में पलवंकर बालू का कोई जवाब नहीँ था। अपने खेल से पलवंकर बालू ने क्रिकेट में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित किया है।

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भारतीय टीम में एक ऐसा खिलाड़ी था जिसकी गेंदबाज़ी से इंग्लिश टीम भी सामना नहीं कर पाती थीं। इस खिलाड़ी की गेंद ऐसे निकलती थीं जैसे कोई तीर निकलते हों बल्लेबाज़ भी समझ नहीं पाता कि आखिर इस खिलाड़ी की गेंद हवा में कहां मुड़ेगी? इस खेल के दौरान गेंदबाज़ ने पूरे दौरे पर अकेले 114 विकेट लिए, लेकिन फिर भी टीम हार गई। लेकिन उस समय पूरी ब्रिटिश बिरादरी इस खिलाड़ी की गेंदबाजी की कायल थीं। आखिर ये कौन गेंदबाज है?

इस गेंदबाज के बारे में लल्लनटॉप ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है, “ये वो गेंदबाज था जिसे कभी उसकी टीम के सदस्य छूते तक नहीं थे। मैदान में उसके लिए एक ‘अछूत’ पानी लेकर जाता था। चाय भी पूरी टीम से अलग बैठकर मिट्टी के बर्तन में पीता इसका नाम था- ‘पलवंकर बालू’.” सबसे पहले जानते हैं क्रिकेट के इतिहास के बारे में और भारत में इसकी शुरुआत कैसे हुई?

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क्रिकेट की शुरुआत कैसे हुई :

इतिहासकारों के अनुसार साल 1721 में भारत की धरती पर पहली बार क्रिकेट खेला गया था। गुजरात का कैंबे पत्तन इलाका जिसे अब खम्बात के नाम से जाना जाता है यहीं पर पहली बार समुंद्र के किनारे 15 दिन के लिए ब्रिटिश नाविक रुके थे और अपना समय व्यतीत करने के लिए उन्होंने यहां पर क्रिकेट मैच खेला था। इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी बुक – ‘ए कॉर्नर ऑफ ए फॉरेन फील्ड’ – में लिखते हैं कि इंग्लैंड से बाहर पहला क्रिकेट क्लब कोलकाता में 1792 में बना। इसी दौरान मद्रास में और 1825 में बंबई में बड़े क्रिकेट मैच होने शुरू हुए। अनजान देश के वातावरण से ऊबे अंग्रेज अफसरों को ये खेल एक सुकून देता था। उन्हें क्रिकेट, घर से दूर किसी महबूबा से कम नहीं लगता था।

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भारत में क्रिकेट की शुरुआत

धीरे धीरे क्रिकेट भारत में भी चर्चित होने लगा। भारतीयों में सबले पहले क्रिकेट पारसी लोगों ने खेला था। साल 1848 में मुंबई के कुछ पारसी लड़कों ने ‘ओरियंटल क्रिकेट क्लब’ की नींव रखी। दो साल बाद इस क्लब का नाम पड़ा – यंग जोरास्ट्रियन क्लब। इस क्लब को टाटा और वाडिया बिजनेस ग्रुप्स से फंड मिलता था। इस एक क्लब के शुरू होने के बाद 1850 से 1860 बीच लगभग 30 से ज्यादा पारसी क्रिकेट क्लब खुले। ये आपस में टूर्नामेंट खेलते जीतने वालों को बड़ी इनामी रकम मिलती थी। पारसियों के टूर्नामेंट्स से हिंदू भी आकर्षित हुए। रामचंद्र विष्णु नावलेकर क्रिकेट खेलने वाले पहले हिंदू व्यक्ति थे। 1877 के बाद पारसियों, अंग्रेजों और हिन्दू क्रिकेट क्लबों के बीच बड़े क्रिकेट टूर्नामेंट होने शुरू गए।

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क्रिकेट में राजा महाराजा और सवर्णों का बोलबाला

पलवंकर बालू ने अपने जीवन में काफी भेदभाव का सामना किया था। पलवंकर बालू के जमाने में आज से भी ज्यादा भेदभाव था। उस समय क्रिकेट में राजा महाराजा और सवर्णों का बोलबाला था। बालू चमार जाति से संबंधित थे और इस जाति के लोगों के साथ उस समय काफी भेदभाव और अत्याचार होता था। पलवंकर बालू ने साल 1892 में 4 रुएये महीने की तनख्वाह में पूना क्लब में माली के रुप में भी काम किया था। अपनी स्पिन गेंदबाजी से बालू ने अंग्रेजी खिलाड़ियों के छक्के छुड़ा दिए थे।

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पहले भारतीय दलित क्रिकेटर पलवंकर बालू, इमेज क्रेडिट गूगल

जातिगत भेदभाव का सामना

जब मैच खेलने के लिए हिंदू टीम ने अंग्रेजों को चुनौती दी थी तो उस दौरान पलवंकर बालू भी हिंदू टीम का हिस्सा थे। अपनी स्पिन से बालू ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। बालू की मदद से हिंदू टीम ने अंग्रेज क्लब को हरा दिया था। लेकिन इस मैच के समय भी बालू को जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा था। ऐसा कहा जाता है कि मैदान में जब बालू विकेट लेते थे तो टीम के खिलाड़ी उनके साथ जश्न नहीं मनाते थे। यहां तक की मैदान के बाहर भी उनके खाने पीने के बर्तन भी अलग रखे होते थे और उन्हें अपने बर्तन भी खुद साफ करने होते थे। ऐसा भी कहा जाता है कि खिलाड़ी उनके साथ बैठते भी नहीं थे। इतना जातिगत भेदभाव झेलने के बाद भी बालू ने हार नहीं मानी और वह आगे बढ़ते रहे।

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बेहतरीन खिलाड़ी होने पर टीम में जगह मिली

बालू इतने बेहतरीन खिलाड़ी थे कि उन्हें टीम में जगह मिलती रही। 1901 में महाराजा ऑफ नटोर की टीम सबसे मजबूत मानी जाती थी और बालू भी इस टीम का हिस्सा बने। 1911 में पटियाला महाराजा भारत के सभी खिलाड़ियों को इकट्ठा करके इंग्लैंड दौरे पर गए थे और इसमें बालू भी शामिल थे। यहां पर तकरीबन 23 मैच खेले गए जिनमें 14 मैच सबसे बेहतरीन मैच माने गए थे। पलवंकर बलू को टीम का सबसे अच्छा गेंदबाज़ माना गया था। इसके बाद बलू ने केंट, कैंब्रिज यूनिवर्सिटी, एमसीसी, लीसेस्टरशर और ऑक्सफॉर्ड यूनिवर्सिटी के खिलाफ 27 विकेट लिए। वहीं इस दौरे पर उन्होंने 18.84 की औसत से 114 विकेट निकाले। उन्होंने 33 फर्स्ट क्लास मैच में 179 विकेट निकाले। बालू ने 17 बार एक पारी में पांच विकेट निकाले और 103 रन पर 8 विकेट पर उनका बेहतरीन प्रदर्शन रहा था।

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भेदभाव के चलते टीम के कप्तान नहीं बनाया गया :

जातिगत भेदभाव के कारण पलवंकर बालू को टीम का कप्तान नहीं बनाया गया। जातिवादी सोच रखने वाले हिंदू अफसर भी बालू को केवल अपनी टीम में इसलिए शामिल नही करते थे क्योंकि वह दलित समुदाय से संबंध रखते थे। इस तरह की सोच रखने वाले हिंदू अफसर का मानना था कि दलित समुदाय के व्यक्ति के साथ न तो बैठ सकते हैं और न ही कोई संबंध रख सकते हैं। जातिवादी सोच रखने वाले हिंदू खिलाड़ी भी नहीं चाहते थे कि बालू हिंदुओं की तरफ से क्रिकेट खेले। इन खिलाड़ियों का ऐसा मानना था कि अगर बालू टींम में खेलेंगे तो टीम अछूत हो जाएगी।

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रामचंद्र गुहा की किताब, इमेज क्रेडिट गूगल

यंगमेंस क्रिकेट क्लब में शामिल हुए:

ऐसा कहा जाता है कि मेजर ग्रेग नाम का अंग्रेजी अधिकारी और क्रिकेटर था वह बालू के खेल का कायल था। इस अधिकारी ने बालू को हिंदुओँ के “यंगमेंस क्रिकेट क्लब” में शामिल करने के लिए उसकी सहायता की। इस क्लब में ब्राह्मण जातियों के अधिकारी और खिलाड़ियों का बोलबाला था और यह खिलाड़ी नहीं चाहते थे कि पी बालू “यंगमेंस क्रिकेट क्लब” का सदस्य बनें। लेकिन इस क्लब में ऐसे भी खिलाड़ी थे जो चाहते थे कि बालू इस क्लब का सदस्य बने लेकिन वह ब्राह्मण खिलाड़ियों के भय के कारण उसका समर्थन नहीं कर पाते थे। लेकिन अंग्रेजी अफ़सर की सहायता से बालू यंगमेंस क्रिकेट क्लब के सदस्य बन गए। बालू इतने बेहतरीन खिलाड़ी थे कि क्लब में शामिल होने पर “यंगमेंस क्रिकेट क्लब” का नाम काफी चर्चित हुआ था।

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अंग्रेजों के क्लब को हराया :

जब अंग्रेजों और यंगमेंस के बीच बेलगांव और सतारा में जो मैच हुए थे उनमें बालू ने शानदार गेंदबाजी और बल्लेबाजी की थी जिसके कारण अंग्रेजों के क्लब की हार हुई थी। साल 1899 में बालू मुंबई आ गए थे। यहां आकर वे हिंदू जिम़खाने और रेलवे क्रिकेट क्लब की और से क्रिकेट मैच खेलने लगे थे। जब 1906 में हिंदू और इस्लाम जिमखाना के बीच मैच हुआ था इस मैच में पी. बालू ने लगातार तीन खिलाडियों का आउट कर हैट्रिक लगाई और हिंदू जिमखाना क्लब को शानदार जीत दिलवाई थीं। ऐसा कहा जाता है कि हिंदू जिमखाने क्लब में खेलते समय ही पी. बालू की क्रिकेट जगत में धाक जम गई थी। उनकी बल्लेबाजी और गेंदबाजी से बड़े से बड़े खिलाड़ी कांप जाते थे।

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इंग्लैड के खिलाड़ियों ने बालू की प्रशंसा की :

साल 1911 में भारत से एक क्रिकेट टीम इंग्लैड खेलने गई थी इंग्लैड के खिलाड़ियों ने भी बालू की घातक गेंदबाजी देखकर दांतों तले उंगलियां चबा ली थीं। वहां के क्रिकेट विशेषज्ञों ने पी. बालू को काउंटी क्रिकेट खेलने के लिए एक उम्दा खिलाड़ी के तौर पर देखा था। बालू ने इंग्लैड में अलग प्रारुप के मैच खेलते हुए 100 से अधिक विकेट ली थी। इंग्लैड के अखबारों में पी. बालू छा गए थे और उनकी काफी प्रशंसा की गई थी। वहां के खिलाड़ियों ने भी पी. बालू के क्रिकेट की काफी प्रशंसा की थी।

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बाबा साहेब अंबेडकर भी प्रभावित थे :

पलवंकर बालू बाबा साहेब अंबेडकर से 1910 में मिले थे और दोनों में दोस्ती हो गई थी। दोनों ने मिलकर उत्पीड़ित समाज को सुधारने के लिए काम किया था। बाबा साहेब अंबेडकर बालू से प्रभावित थे अंबेडकर बालू को दलित समाज का आदर्श मानते थे। हालांकि 1932 में बाबा साहेब ने दलित वर्गों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग की थी जिसका बालू ने विरोध किया था। इस विरोध में बालू ने “राजा मुंजे संधि” पर हस्ताक्षर किए थे। राजा मुंजे संधि संयुक्त निर्वाचन मंडल के साथ दलितों के आरक्षण की मांग से संबंधित थी।

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किताबों में पलवंकर बालू :

इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने भी अपनी किताब “ए कॉर्नर ऑफ फॉरन फील्ड” में भी पलवंकर बालू के जीवन पर विस्तार से लिखा है। रामचंद्र गुहा ने भी कहा है कि “भारतीय क्रिकेट के पहले महान और सुपरस्टार सीके नायडू नहीं बल्कि पलवंकर बालू को बताया है लेकिन क्रिकेट के इतिहासकारों ने उनकी अनदेखी की है”। 1955 में पलवंकर बालू की मृत्यु हो गई थी। उनके अंतिम संस्कार में कई राष्ट्रीय नेताओं के साथ-साथ क्रिकेटर भी शामिल हुए थे।

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