कॉलेजियम सिस्टम : जजों की नियुक्ति पर क्यों गहराया हुआ है विवाद ? जानिए क्या है कॉलेजियम सिस्टम

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हाल ही में केंद्रीय कानून एवं न्याय मंत्री किरेन रिरिजू ने कॉलेजियम सिस्टम पर सवाल खड़े किए हैं जिसके बाद देश में जजों की नियुक्ति पर एक नयी बहस छिड़ गयी है. उनका कहना है कि लोग जजों को नियुक्ति के लिए बने कॉलेजियम सिस्टम से खुश नहीं हैं. जज आधा समय नियुक्तियों की पेचिदगियों में ही व्यस्त रहते हैं, जिसकी वजह से न्याय देने की उनकी जो मुख्य जिम्मेदारी है उस पर असर पड़ता है.

दो दिन पहले गुरूवार को ही सुप्रीम कोर्ट देश की अदालतों में जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम की ओर से सरकार को भेजे गए नामों से जुड़ी याचिका पर सुनवाई कर रहा था। कॉलेजियम सिस्टम को लेकर जारी बयानबाजी के बीच सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इसके खिलाफ टिप्पणी ठीक नहीं है। यह देश का कानून है और हर किसी को इसका पालन करना चाहिए। कोर्ट ने कहा की कोलेजियम सिस्टम पर मंत्रियो को बयानबाजी करने से बचना चाहिए।

पहले जानिए क्या है कॉलेजियम सिस्टम –

सुप्रीम कोर्ट और हाइकोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम सिस्टम है. जिसमें प्रधान न्यायाधीश सहित सुप्रीम कोर्ट के 4 जज होते हैं.
संविधान में अनुच्छेद 124(2) और 217 सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति से जुड़ा है. सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों के साथ विचार-विमर्श के बाद ही ये नियुक्तियां की जाती है.

 

सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीश (image: google)

 

जजों की नियुक्ति से संबंधित कुछ मामलों की सुनवाई के बाद कॉलेजियम सिस्टम अस्तित्व में आया है. यह संविधान या संसद की ओर से लाए गए किसी विशेष कानून में वर्णित नहीं है. सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम पांच सदस्यों की एक बॉडी है. इसका नेतृत्व देश के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) करते हैं. बाकी चार सदस्यों में सुप्रीम कोर्ट के चार अन्य मोस्ट सीनियर यानी वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं.

उसी तरह एक हाई कोर्ट के कॉलेजियम का नेतृत्व वर्तमान चीफ जस्टिस और उस अदालत के अन्य चार सीनियर जस्टिस करते हैं. हालांकि कॉलेजियम की संरचना बदलती भी रहती है. कोई भी सदस्य तब तक कॉलेजियम में रह सकते हैं, जब तक वो अपने पद से रिटायर नहीं हो जाते.
सुप्रीम कोर्ट और राज्यों के हाई कोर्ट्स में जजों की नियुक्ति और उनका ट्रांसफर इसी सिस्टम के तहत होता है. हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति कॉलेजियम सिस्टम के जरिये होती है. कॉलेजियम की ओर से नाम तय करने के बाद ही इसमें सरकार की भूमिका होती है. हाईकोर्ट कॉलेजियम द्वारा अनुशंसा किए गए नाम सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की सिफारिश के बाद सरकार तक पहुंचते हैं.

कॉलेजियम की ओर से अनुशंसित नामों पर सरकार आपत्ति उठा सकती है और नामों पर स्पष्टीकरण मांग सकती है. लेकिन अगर कॉलेजियम फिर से उन्हीं नामों को दोहराए तो सरकार संविधान पीठ के फैसलों के तहत उन्हें जजों के रूप में नियुक्त करने के लिए बाध्य होती है.
अगर किसी वकील को हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में जज के तौर पर प्रमोट किया जाए तो पूरी प्रक्रिया में सरकार की भूमिका बस इतनी रहती है कि वह इंटेलिजेंस ब्यूरो (IB) से जांच करा सके.

कॉलेजियम पर केंद्रीय कानून एवं न्याय मंत्री और सुप्रीम कोर्ट में टकराव –

केंद्रीय कानून एवं न्याय मंत्री ने एक इंटरव्यू में कॉलेजियम सिस्टम पर सवाल उठाते हुए कहा था की “उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति के लिए बनाए गए कॉलेजियम प्रणाली पर पुनर्विचार करने की जरूरत है. लोग इस सिस्टम से खुश नहीं हैं. जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर एक सवाल के जवाब में रिजिजू ने कहा कि साल 1993 तक भारत में जजों को भारत के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से कानून मंत्रालय द्वारा नियुक्त किया जाता था. उस समय हमारे पास बहुत प्रतिष्ठित जज थे.”

कॉलेजियम सिस्टम पर कानून मंत्री किरन रिजिजू का बयान (image: dalit times)

 

केंद्रीय मंत्री का कहना है कि देश में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका लोकतंत्र के तीन स्तंभ हैं. कार्यपालिका और विधायिका अपने कर्तव्यों में बंधे हैं और न्यायपालिका उन्हें सुधारती है, लेकिन जब न्यायपालिका भटक जाती है तो उन्हें सुधारने का कोई उपाय नहीं है.

इतना ही नहीं रिजिजू ने कॉलेजियम सिस्टम को गैर-पारदर्शी करार दिया है और आरोप लगाया है कॉलेजियम के सदस्य अपने आधार पर जजों की नियुक्ति करते हैं. और इसमें जजों की नियुक्ति को लेकर गहन राजनीति चल रही है. न्यायपालिका में ये दिखाई नहीं देता.

कॉलेजियम सिस्टम पर क्यों गहराया हुआ है विवाद –

प्रोफ़ेसर व वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल कहते है की – वीपी सिंह ने 1990 में मंडल कमीशन लागू कर दिया. इससे सवर्ण तबकों के इलीट घबरा गए. उन्हें लगा कि संसद-विधानसभाओं, मंत्रिमंडलों के बाद अगर नौकरशाही में भी उनका दबदबा टूट गया तो क्या होगा. इसे देखते हुए उन्होंने जजों की नियुक्ति का कोलिजियम सिस्टम बनाया.कोलिजियम सिस्टम के आने के साथ ही न्यायपालिका में विविधता लाने की कोशिशों का अंत हो गया. इस बारे में होने वाली तमाम मांगों पर केंद्र सरकार नियमित रूप से चीफ जस्टिस को पत्र लिखती है, जिस पर कोई कार्रवाई कोलिजियम नहीं करता. केंद्र सरकार द्वारा संभवत: ऐसे सौ पत्र लिखे जा चुके हैं.

कॉलेजियम सिस्टम पर लगातार आवाज़ उठाते वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल (image: dalit times)

 

वही सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता नितिन मेश्राम बताते है की – ये सब कुछ संविधान के खिलाफ हुआ. जजों ने कॉलेजियम बनाया ताकी ब्राह्मणवाद के हाथ में पार्लियामेंट नहीं है, एक्ज़ीक्यूटिव नहीं है तो कम से कम ज्यूडीशरी तो रहे, ताकी ज्यूडीशरी के माध्यम से पार्लियामेंट और एक्ज़ीक्यूटिव को कंट्रोल किया जा सकें. ये षड्यंत्र पिछले 30 साल से चल रहा है.

कॉलेजियम व्यवस्था पर क्या कहता है भारतीय संविधान –

कॉलेजियम व्यवस्था और केंद्रीय कानून एवं न्याय मंत्री के टकराव के बीच कोर्ट ने कहा था कि जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया में संविधान में न्यायपालिका और चीफ़ जस्टिस की राय को तरजीह देने की बात कही गई है और सरकार का इस तरह का दख़ल संविधान की मूल भावना के खिलाफ़ है.
यहीं यह समझना ज़रूरी है कि संविधान में जजों की नियुक्ति को लेकर क्या कहा गया है?

File photo (dalit times)

 

संविधान में अनुच्छेद 124(2) और 217 सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति से जुड़ा है। संविधान के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के वरिष्ठ जजों से विचार-विमर्श करके ही राष्ट्रपति जजों की नियुक्ति करेंगे. संविधान का अनुच्छेद 217 कहता है कि राष्ट्रपति हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया, राज्य के राज्यपाल और हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस से विचार-विमर्श करके निर्णय करेंगे.
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश के साथ अनिवार्य विचार-विमर्श के बाद की जाती है.

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