पहाड़, जंगल, नदियां और पठार झारखंड की पहचान और धरोहर हैं। इन पहाड़ों और जंगलों में आदिवासियों की एक बड़ी आबादी निवास करती हैं। यही पहाड़ और जंगल इनके जीने का ज़रिया है। आज इस लेख में झारखंड के एक ऐसे पहाड़ के बारे में जानेंगे जिसे “बूढ़ा पहाड़” के नाम से जाना जाता है।
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बूढ़ा पहाड़ क्यों कहा जाता है?
यह झारखंड के जंगल का सबसे पुराना और बड़ा पहाड़ है इसलिए इसे “बूढ़ा पहाड़” के नाम से जाना जाता है। यह नक्सलियों के लिए सुरक्षित जगह मानी जाती है और यह काफी दुर्गम क्षेत्र में स्थित है। इसलिए यहां नक्सली आसानी से रह सकते हैं।
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लाल आतंक से मुक्त :
बूढ़ा पहाड़ झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 150 किलोमीटर दूर नक्सलवाद ( माओवाद) से प्रभावित रहे लातेहार और गढ़वा जिलों में स्थित है। बूढ़ा पहाड़ पर आतंकवाद का भी साया रहा है। इस पहाड़ को सुरक्षा बलों ने लाल आतंक से मुक्त कराया था। आपकों बता दें कि बूढ़ा पहाड़ क्षेत्र की सींमाएं झारखंड के पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ से भी मिलती है।
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आदिम जनजाति रहती हैं:
एक वक्त था जब बूढ़ा पहाड़ पर नक्सलवाद का दबदबा कायम था। तकरीबन चार दशकों से बूढ़ा पहाड़ पर नक्सलवाद ( माओवादियों) का दबदबा कायम था। जिसकी वजह से यहां रह रहें आदिवासियों का जीना मुश्किल हो गया था। और वह डर के साये में अपना जीवन व्यतीत करने पर मजबूर थे। ऐसा कहा जाता है कि इस क्षेत्र में “आदिम जनजाति” अधिक संख्या में रहती है।
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आदिम कौन सी जनजाति है?
एक आदिवासी जनजाति है। जिनमें आंध, गोंड, खरवार, मुण्डा, खड़िया, बोडो, कोल, भील, कोली, सहरिया, संथाल, भूमिज, हो, उरांव, लोहरा, बिरहोर, पारधी, असुर, नायक, भिलाला, मीणा, धानका आदि हैं। भारत में आदिवासियों को ‘जनजातीय लोग’ के रूप में जाना जाता है। सबसे आदिम जनजाति कोरवा है। कोरवा लोग भारत का एक मुंडा जातीय समूह है और यह एक आदिम जनजाति है। वे मुख्य रूप से छत्तीसगढ़ और झारखंड की सीमा पर रहते हैं।
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सार्वजनिक तौर पर दंड:
बूढ़ा पहाड़ पर माओवादियों के दबदबे के कारण आदिवासी लोग उनकी हर बात मानने के लिए मजबूर थे। “LAGATAR NEWS” रिपोर्ट के मुताबिक जब कभी नक्सली लोग मीटिंग बुलाते थे, तो सभी बाल बच्चों सहित बैठक में उपस्थित होना हमारी मजबूरी थी। किसी परिवार ने घर में रहते बैठक में शामिल नहीं हुआ, तो उसे संगठन के सदस्यों द्वारा बेरहमी से सार्वजनिक दंड स्वरूप लाठी डंडों से पीटा जाता था। जब न तब दिन हो या रात कभी भी संगठन के लोग आते तो उनको खाना बना कर खिलाने के लिए बाध्य किया जाता था। किसी को भी पुलिस मुखबिरी के नाम पर उनकी हत्या कर देना उन दिनों की आम बात थी।
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कलम, किताबों से अनजान:
आपकों बता दें कि अब इस बूढ़ा पहाड़ पर खुशियां लौट आई हैं। तकरीबन 100 साल के बाद यहां रह रहें लोगों के लब अब मुस्कुरा रहे हैं। एक वक्त था जब इस पहाड़ पर माओवादियों का दबदबा था लेकिन अब यहां पर सुऱक्षा बल तैनात है। यहां के लोगों को सरकार क्या होती है के बारे में कोई जानकारी नहीं थीं। यहां के बच्चों ने भी आज़ादी के बाद से कभी पढ़ाई नहीं की थी। कलम किताबों से यहां के बच्चें पूरी तरह से अनजान थे। लेकिन अब यहां के बच्चों को सीआरपीएफ कैंप में पढ़ने का अवसर मिल रहा हैं।
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हर घर रोशन :
इसके अलावा यहां पर सीआरपीएफ और झारखंड पुलिस का संयुक्त कैंप भी है। इस कैंप के भीतर सोलर प्लांट लगा हुआ है। जिसकी वजह से घरों में बिजली पहुँच रही है और हर घर रोशन हो रहा है। कैंप के भीतर भवन निर्माण और दूसरे निर्माण कार्य भी चल रहें हैं जिससे यहां के लोगों को रोज़गार भी मिल रहा है।
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सीआरपीएफ के जवानों का बयान :
“LAGATAR NEWS” रिपोर्ट के मुताबिक सीआरपीएफ के जवानों ने अपने बयान में बताया कि यह इलाका काफी पिछड़ा हुआ है। और इस इलाके का विकास ज़रुरी है। उनका उनका कहना है कि वह अपने प्रयास से इस इलाके में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार की सुविधा उपलब्ध करा रहें हैं। सरकार के लिए जवानों ने अपने बयान में कहा है कि इस इलाके के विकास के लिए सरकार को अपना संवैधानिक दायित्व निभाना चाहिए था। लेकिन इसका अभाव इन इलाकों में देखा जा सकता है। लेकिन यहां अब माओवादी नहीं बल्कि सुरक्षा बल तैनात है और तकरीबन 100 साल के संघर्ष के बाद यहां के लोगों ने राहत की सांस ली है।
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