जेल में जाति के आधार पर काम और खाना: दलितों ने कही जेलों में भेदभाव की कहानियां

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दलित कैदियों ने अपनी व्यक्तिगत कहानियां साझा की हैं, बताया जेलों में उन्हें जाति के आधार पर काम सौंपा जाता था। जहां वे सफाई करने, झाड़ू लगाने, और बीमार होने पर भी बिना ब्रश के शौचालय साफ करने के लिए मजबूर किए गए।

सुप्रीम कोर्ट के हालिया ऐतिहासिक फैसले ने भारत की जेलों में दलितों और हाशिए के समुदायों के प्रति होने वाले जातिगत भेदभाव के खिलाफ एक महत्वपूर्ण लड़ाई में नया मोड़ ला दिया है। इस फैसले में कई औपनिवेशिक काल के नियमों को रद्द किया गया, जो जेलों में श्रम के जाति-आधारित विभाजन को बढ़ावा देते थे। यह फैसला उन दलित कैदियों के लिए न्याय और समानता की उम्मीद लेकर आया है, जो वर्षों से जेलों के अंदर होने वाले भेदभाव के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे थे।

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कैदियों ने अपनी व्यक्तिगत कहानियां साझा की हैं

देश भर में दलित कैदी और कार्यकर्ता, जैसे कि दौलत कुंवर, ने लंबे समय से जेलों में जातिगत अत्याचारों और अन्याय की शिकायतें की हैं, दौलत कुंवर, एक दलित कार्यकर्ता जिन्हें कई बार जेल भेजा गया, ने बताया कि जेलों में कैदियों को जाति के आधार पर काम सौंपा जाता था। जहां उन्हें अक्सर सफाई जैसे अपमानजनक काम करने के लिए मजबूर किया जाता था। यह भेदभाव सिर्फ काम तक सीमित नहीं था, बल्कि खाने-पीने के मामले में भी दलितों के साथ अत्याचार होता था। यह न सिर्फ उनके अधिकारों का हनन था, बल्कि भारतीय समाज में गहराई से फैली जातिगत व्यवस्था की भी पुष्टि करता था। कैदियों ने अपनी व्यक्तिगत कहानियां साझा की हैं, जहां वे सफाई करने, झाड़ू लगाने, और बीमार होने पर भी बिना ब्रश के शौचालय साफ करने के लिए मजबूर किए गए।

दलितों को जानवरों की तरह कतार में खड़ा कर बचा हुआ खाना दिया जाता था

हापुड़ के इंदर पाल और मोनू कश्यप जैसे कैदियों ने बताया कि कैसे दलितों को कम भोजन मिलता था, और उन्हें जानवरों की तरह कतार में खड़ा कर बचा हुआ खाना दिया जाता था। यह स्थिति न केवल उनकी गरिमा का अपमान करती थी, बल्कि उनके साथ हो रहे जातिगत शोषण की भी एक सच्चाई को उजागर करती थी।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला: औपनिवेशिक नियमों का अंत

सुप्रीम कोर्ट ने जेल मैनुअल में मौजूद कई औपनिवेशिक काल के नियमों को रद्द करते हुए यह कहा कि ये नियम श्रम के जाति-आधारित विभाजन को बढ़ावा देते थे। यह फैसला दलित कैदियों के लिए न्याय और समानता की दिशा में एक नई उम्मीद जगाता है। पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों ने भी इस फैसले की सराहना की है। उत्तर प्रदेश के डीजीपी प्रशांत कुमार ने इसे जेलों में श्रम की गरिमा बहाल करने वाला कदम बताया।

सुधारों की शुरुआत, लेकिन मानसिकता बदलने की जरूरत

सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि जेल मैनुअल में किए गए बदलाव केवल शुरुआत हैं। दलित कार्यकर्ता सतीश प्रकाश का कहना है कि असली चुनौती समाज में गहरे बैठे जातिगत पूर्वाग्रह को खत्म करने की है, जो जेल के अंदर और बाहर दोनों जगह मौजूद हैं। सामाजिक इंजीनियरिंग और मानसिकता में बदलाव के बिना, सिर्फ कानूनी सुधार पर्याप्त नहीं होंगे। किशोर कुमार जैसे वकील भी इस बात पर जोर देते हैं कि जेल प्रशासन के लिए ‘दलित’ शब्द सिर्फ एक पहचान नहीं है, बल्कि उन्हें पारंपरिक पेशों से जोड़ने की मानसिकता को भी बदलने की जरूरत है।

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भविष्य में सुधार की उम्मीद

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने जेलों में जातिगत भेदभाव को खत्म करने की दिशा में एक नई दिशा दी है। यह फैसला न केवल दलित कैदियों के लिए न्याय की उम्मीद लेकर आया है, बल्कि भारतीय समाज में समानता और गरिमा को बढ़ावा देने वाले व्यापक सुधारों की मांग भी करता है।

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