बहुजन नायिकाओं के जिक्र के बिना महिला दिवस सिर्फ कागजी नारों और भाषणों तक रहेगा सीमित !

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सवाल है कि भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले, फातिमा शेख, त्याग व ममता की प्रतीक रमाबाई अम्बेडकर, ऊदादेवी पासी, वीरांगना झलकारी बाई, फूलन देवी आदि और वर्तमान में बहन कुमारी मायावती जो उत्तर प्रदेश जैसे बड़े सूबे की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकीं हैं, का जिक्र महिला दिवस पर आखिर क्यों नहीं होता….

दीपशिखा इंद्रा की टिप्पणी

8 March International women’s Day Special : आज 8 मार्च है, यानी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस। 8 मार्च,1975 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने महिला दिवस को आधिकारिक तौर पर मान्यता दी। इसके बाद से इस दिन को महिला सशक्तीकरण दिवस के तौर पर मनाया जाता है।

हमारे देश में भी हर साल 8 मार्च को महिला सशक्तीकरण दिवस को जोर-शोर से मनाया जाता है, लेकिन यहां सोचने की बात यह है कि क्या सही मायने में महिला सशक्तीकरण के मकसद को पूरा किया जा रहा है? या सिर्फ कागजी नारों और भाषणों तक सीमित है।

महिला सशक्तीकरण की बात करें तो हमारे देश में महात्मा ज्योतिबाफुले, भारत देश की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले और राष्ट्र निर्माता बाबासाहेब जी के जिक्र किये बिना यह कभी पूरा नहीं हो सकता है। महिला उत्थान के क्षेत्र और दलितों को उनके हक-अधिकार दिलाने में सबसे बड़ा और सबसे ऐतिहासिक योगदान है।

महिला सशक्तीकरण में उनके योगदान को हर कोई भूल गया है या जानबूझकर नजरअंदाज कर दिया जाता है। महिला सशक्तीकरण के लिए महात्मा ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले द्वारा किए गए कुछ महत्वपूर्ण कार्य

1- एक जनवरी 1848 को, लड़कियों के लिए भारत का पहला स्कूल पुणे के भिड़े के वाडा में महात्मा जोतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले द्वारा शुरू किया गया था।

2- 28 जनवरी 1853 को भारत का पहला शिशुहत्या निषेध गृह सावित्रीबाई फुले द्वारा शुरू किया गया था।

3- सावित्रीबाई फुले ने 1852 में महिला सेवा मंडल की शुरुआत की, जो महिलाओं में उनके मानवाधिकारों, जीवन की गरिमा और अन्य सामाजिक मुद्दों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए काम करता था। उन्होंने विधवाओं के सिर मुंडवाने की प्रचलित प्रथा के खिलाफ मुंबई और पुणे में एक सफल नाई की हड़ताल का आयोजन किया। इसी तरह से महिला सशक्तीकरण के क्षेत्र में अनेकों ऐतिहासिक काम किये।

महिला सशक्तीकरण के लिए ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले और राष्ट्र निर्माता बाबासाहेब जी के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। राष्ट्र निर्माता बाबासाहेब जी महिलाओं के उन्नति के प्रबल पक्षधर थे उनका कहना था कि “मैं एक समुदाय की प्रगति को उस डिग्री से मापता हूं जो महिलाओं ने हासिल की है।” मतलब किसी भी समाज का मूल्यांकन इस बात से किया जाना चाहिए कि उस समाज में महिलाओं की क्या स्थिति है? उनकी उन्नति से ही उस समाज की उन्नति होगी। दुनिया की लगभग आधी आबादी महिलाओं की है, इसलिए जब तक उनका समुचित विकास नहीं होगा तब तक किसी भी देश का चौमुखी विकास नहीं हो सकता है।

अंबेडकर ने संविधान में सभी नागरिकों को बराबर का हक दिया गया है। संविधान के अनुच्छेद 14 में यह प्रावधान है कि किसी भी नागरिक के साथ लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। आजादी मिलने के साथ ही महिलाओं की स्थिति में सुधार शुरू हुआ। आजाद भारत के पहले कानून मंत्री के रूप में उन्होंने महिला सशक्तीकरण के लिए कई कदम उठाए। वर्ष 1951 में उन्होंने ‘हिंदू कोड बिल’ संसद में पेश किया, लेकिन नेहरू समेत कुछ लोगों के विरोध की वजह से हिंदू कोड बिल उस समय संसद में पारित नहीं हो सका, जिसके चलते बाबासाहेब ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था

मगर बाद में अलग-अलग भागों में जैसे हिंदू विवाह कानून, हिंदू उत्तराधिकार कानून और हिंदू गुजारा एवं गोद लेने संबंधी कानून आदि पारित किया गया, जिसमें महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार दिए गए।

शिक्षा एवं आर्थिक विकास से ही महिलाओं को मिलेगी गुलामी से मुक्ति
आज आजादी के बाद भी भारत देश में महिलाओं की स्थिति बहुत ही दयनीय है, यह किसी से छुपा नहीं है। हां, ये सत्य है कि पहले से थोड़ा सुधार जरूर हुआ है, लेकिन यहाँ गांवों में खासकर दबे-कुचले, शोषित, वंचित समाज की महिलाओं की स्थिति ज्यों का त्यों ही हैं। मतलब 85% पिछले—दलित—गरीब समाज की महिलाओं की स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है। सिर्फ सवर्णों के विकास से राष्ट्र का विकास नहीं हो सकता है। सभी नारियों खासकर जो दबे-कुचले शोषित वंचित तबकों से आती हैं, उनको हर क्षेत्र में समुचित भागीदारी देनी हेागी, जिससे वह आत्मनिर्भर बन सकें और राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान दे सकें।

यदि हम सही मायने में महिला सशक्तीकरण चाहते हैं तो इसके लिए उन्हें सबसे पहले आर्थिक स्तर पर सशक्त करना होगा। तब तक महिलाएँ पुरुषों पर निर्भर रहेंगी और गुलामी से मुक्त नहीं हो सकेंगी, बल्कि महिलायें पुरुषों पर निर्भर रहने को बाध्य रहेंगी। इस पुरुष मानसिकता से छुटकारा पाने के लिए महिलाओं को शिक्षित करना होगा, क्योंकि शिक्षा ही उनके उन्नति का रास्ता हैं और उनके आर्थिक विकास का रास्ता हैं।

भारत सरकार द्वारा कई योजनाएं चलाई गयी हैं, जिसमें से एक है बेटी बचाओ—बेटी पढाओ योजना। इस योजना के माध्यम से लोगों में बेटियों के जन्म से संबंधित जो रूढ़िगत धारणा बन गयी थीं, उसे तोड़ना है, लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि इस स्लोगन का मकसद सिर्फ कागजों व भाषणों तक सीमित रह गई। यहां न तो बेटियों को शिक्षा दे पाएं और न ही सुरक्षा। फिर कैसे महिला सशक्तीकरण हो सकता है?

बहुजन समाज की महानायिकाओं को क्यों किया जाता है नजरअंदाज
आज लगभग हर क्षेत्र चाहे मंत्रालय हो, संसद हो या विज्ञापन हो, या स्कूल काॅलेज विश्वविद्यालयों आदि, हर जगह महिला सशक्तीकरण की चर्चा हो रही है। जिन महिलाओं ने देश में अपना योगदान दिया है और अपनी एक अलग पहचान बनायी है, उनकी तस्वीरें लगाकर उनके कामों के बारे में, उनके संघर्षों के बारे में बताया जा रहा है, ताकि बच्चियां—लड़कियां उनसे प्रभावित हों और वह भी उनके संघर्षों से सीख सकें। यह होना भी चाहिये, लेकिन यदि गौर किया जाए तो इस महिला दिवस पर सिर्फ एक विशेष वर्ग की महिलाओं जैसे सरोजिनी नायडू, इंदिरा गांधी, ममता बनर्जी, जयललिता आदि के इतिहास व उनके संघर्षों के बारे में बताया जा रहा है।

दुर्भाग्य की बात है कि जब एक विशेष वर्ग की महिलाएँ (सवर्ण समाज) जो अपने आपको नारीवादी कहतीं हैं, ये भी अपने लेखों, भाषणों में सिर्फ एक विशेष वर्ग की महिलाओं की चर्चा और उदाहरण देती दिखाई देती हैं। इनके लेखों में या भाषणों में कभी भी अनुसूचित जाति /अनुसूचित जनजाति, पिछड़े वर्ग की महिलाओं के बारे में जिक्र तक नहीं होता है। यदि आप ध्यान से देखेंगे—समझेंगे तो आपको यहां इनकी जातिवादी मानसिकता साफ साफ दिखाई देगी, इसलिये बहुजन समाज की महानायिकाओं के बारे में जिक्र तक नहीं होता है।

सवाल है कि भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले, फातिमा शेख, त्याग व ममता की प्रतीक रमाबाई अम्बेडकर, ऊदादेवी पासी, वीरांगना झलकारी बाई, फूलन देवी आदि और वर्तमान में बहन कुमारी मायावती जो उत्तर प्रदेश जैसे बड़े सूबे की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकीं हैं, का जिक्र महिला दिवस पर आखिर क्यों नहीं होता। अगर आप बहन मायावती के संघर्षों को देखेंगे तो आपको उन महिलाओं के जीवन का संघर्ष और बहनजी के जीवन का संघर्ष दोनों में जमीन आसमान का अंतर दिखायी देगा, इसलिये बहनजी खुद अपने आप में महिला सशक्तीकरण की प्रतीक हैं।

बहुजन समाज की सभी महानायिकाओं के इतिहास व उनके संघर्षों को नजरअंदाज कर दिया जाता है, क्योंकि ये लोग दलित समाज आते हैं। यही इनकी जातिवादी मानसिकता को उजागर करता है, लेकिन यह कोई नई बात नहीं यदि आप इतिहास उठाकर देखेंगे तो पाएंगे इनके पूर्वज भी इस तरह से बहुजन इतिहास उनकी विचारधारा को दबाने की कोशिश करते थे, जो आज भी जारी है।

ऐसे में सोचिये कि बहुजन नायिकाओं के जिक्र के बिना आखिर महिला सशक्तीकरण की बात कैसे होगी, यह सिर्फ एक छलावा होगा। क्या यही है महिला सशक्तिकरण, जहाँ आजादी के बाद भी एक विशेष वर्गों द्वारा भारत देश के ही महिलाओं को नजरअंदाज कर दिया जाता है, जिन्होंने राष्ट्र निर्माण में समाज के लिए सबसे अहम योगदान दिया है। जब तक सभी को एक समान नहीं देखा जाएगा, तब तक देश के लिये महिला दिवस का कोई मतलब नहीं रह जाता है। भारत देश में महिला दिवस मात्र एक खोखली जातिवादी और दोगली मानसिकता है।

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