क्या है पसमांदा आंदोलन और क्यों लगाया जाता है ये नारा ”पिछड़ा-पिछड़ा एक समान, हिंदू हो या मुसलमान’’

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पसमांदा  ‘पस’ फारसी का शब्द है, जिसका मायने पीछे होता है। ‘मांदा’ का अर्थ है छूट गया अर्थात् जो पीछे छूट गया, उसे ही पसमांदा कहा जाता है। पसमांदा कोई एक बिरादरी का नाम नही है। इसके दायरे में तमाम पिछड़ी बिरादरियां आ जाती हैं।

बिहार में 1998 में अली अनवर के नेतृत्व में ‘आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़’ के गठन के बाद, जो कि दलित और पिछड़े मुसलमानों का एक सामाजिक संगठन है, यह शब्द काफी लोकप्रिय हुआ और इनके द्वारा 2001 में लिखी गई किताब ‘मसावात की जंग’ ने पसमांदा मुसलमानों की स्थिति के बारे में बहस की और पसमांदा राजनीति की ज़मीन तैयार की।

कय्यूम अंसारी, पसमांदा आंदोलन के सबसे लोकप्रिय नेताओं में से एक माने जाते हैं। भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया है।सन् 1930 और 1940 के दशक में मुस्लिम लीग और जिन्ना के दो कौमी नजरिया के खिलाफ़ पसमांदा समाज में बेदारी पैदा करके अंसारी साहब ने यह पहचान कायम की थी।

भारत की मुसलमान आबादी मुख्यत तीन श्रेणियों में बाटी जा सकती है अशराफ़ (सय्यद, शेख, मुग़ल, पठान इत्यादि), अजलाफ (शूद्र या पिछड़े मुसलमान) औए अरजाल (दलित मुसलमान)। अगर हम साधारण भाषा में कहें तो पसमांदा, वे पिछड़े व दलित हैं, जिनके पूर्वजों ने सदियों पहले,जातिगत अत्याचारों से मुक्ति के लिए इस्लाम अपना लिया था। परंतु धर्म बदलने से उनके साथ हो रहा जातिगत भेदभाव समाप्त नहीं हुआ। आज दलित, पिछड़े और आदिवासी मुस्लिम समूह – कुंजड़े (राईन), जुलाहे (अंसारी), धुनिया (मंसूरी), कसाई (कुरैशी), फ़कीर (अलवी), हज्जाम (सलमानी), मेहतर (हलालखोर), ग्वाला (घोसी), धोबी (हवारी), लोहार-बढ़ई (सैफ़ी), मनिहार (सिद्दीकी), दर्जी (इदरीसी), वन्गुज्जर, इत्यादि— ‘पसमांदा’ पहचान के साथ संगठित हो रहे हैं।

हिंदुओं और मुसलमानों के दलित तबकों की एकता के पीछे उनका ”दर्द का रिश्ता’’ है। इस तथ्य को पसमांदा आंदोलन का नारा ”पिछड़ा-पिछड़ा एक समान, हिंदू हो या मुसलमान’’ बड़े सहज व सटीक शब्दों में व्यक्त करता है।
जिस तरह ‘हिंदू’ राजनीति से दलित-बहुजन को कोई फायदा नहीं है, उस ही तरह ‘मुस्लिम’ राजनीति से पसमांदा का भी कोई लाभ नहीं होने वाला है. यह दोनों राजनीतियां सभी धर्मों की कमज़ोर जातियों को आपस में लड़ा कर उच्च जातियों के हित सुरक्षित करने का काम ही करती हैं.

मान्यवर साहब कांशीराम ने मुस्लिम समाज के अपने अनुभव के बारे में एक बार कहा था ‘मुसलमानों में मैंने नेतृत्व के स्तर से जाना ठीक समझा. उनके 50 नेताओं से मैं मिला. इनमें भी ब्राह्मणवाद देखकर मैं दंग रह गया. इस्लाम तो बराबरी और अन्याय के खिलाफ लड़ना सिखाता है, लेकिन मुसलमानों का नेत्रत्व शेख़, सय्यद, मुग़ल, पठान यानि अपने को ऊंची जाती का मानने वाले लोगों के हाथ में है, वह यह नहीं चाहते कि अंसारी, धुनिया, कुरैशी उनकी बराबरी में आयें…मैंने फैसला किया कि मुसलमानों में हिंदुओं की अनुसूचित जातियों से गए लोगों को ही तैयार किया जाए.’ .

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