दलित महिलाओं के खिलाफ़ होने वाले हिंसा को देखते सुनते हुए भी समाज और मेनस्ट्रिम मीडिया शुरू से ही अनदेखा और अनसुना करती आई हैं।
समाज की ढांचागत व्यवस्था ही ऐसी है जहां दलित महिला हिंसा का सबसे आसान निशाना बनाई जाती हैं। अपराधियों को कानून और न्यायालय का कोई भय नहीं होता है, उल्टा वह पीड़िता को डराने धमकाने लगते हैं। पुलिस में जब मामले की शिक़ायत दर्ज़ कराने जाते है तो उन्हें डरा धमकाकर या तो उन्हे वहां से भगा दिया जाता है या उन्हें समझौता करने पर मजबूर किया जाता है या फिर पीड़िता का शोषण किया जाता है। कुल मिलाकर, दलित महिलाओ की स्थिति बेहद खराब है।
उच्च जातियों के पुरुष वर्ग द्वारा दलित महिलाओं का यौन उत्पीड़न करना, लोगों द्वारा उन्हें डायन चुड़ैल कुलटा बताकर मारना पीटना, नग्न गांव में घुमाना, और जिंदा जला देने की घटनाएं आए दिन हमारे आंखों के सामने प्रस्तुत होते रहते हैं:
पहली घटना : हाल ही में हुए की घटना पर यदि एक सरसरी नज़र डालें तो हमें यह मालूम चलता है कि,
09 मई को उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले के अमरिया थाना क्षेत्र के गांव में तीन वर्षीय दलित बच्ची को खेत से उठा लिया गया और उसका बलात्कार किया गया। पीड़ित बच्ची के आपबीती बताने के बाद उनके के पिता चारों अपराधियों के खिलाफ़ मामला दर्ज कराने की अपील करती रहें, लेकिन अमरिया थाने की पुलिस उनपर समझौता करने का दबाव बनाती रही। इसी संघर्ष के बीच पीड़ित बच्ची को न्याय न दिला पाने की असहनीय पीड़ा और छटपटाहट के साथ पिता ने 17 मई को फांसी लगाकर अपनी जान दे दी।
पीड़ित परिवार का कहना है कि दोषियों की पहुंच प्रशासन तक है। साथ ही वे समझौता न करने पर जान से मारने की धमकी भी दे रहे थे जब लाचार पिता कुछ न कर सकने, समाज और लोकलाज के कारण फांसी लगाकर अपनी जान दे दी।
वहीं पीड़ित के भाई ने बयान दिया कि, पीड़िता के पिता और भाई जब इस मामले पर जल्द कार्यवाही की उम्मीद लेकर थाने पहुंचे तो किसी ने उनकी बात नहीं सुनी उन्हें एसओ द्वारा गाली देकर वहां से भगा दिया गया।
बहरहाल, पिता के आत्महत्या के बाद राहुल, होति शेखर और मनोज नाम के अपराधियों के खिलाफ़ मामला दर्ज किया गया लेकिन मुख्य आरोपी हरेंद्र का नाम शामिल नहीं किया गया।
दुसरी घटना: सुरेखा भोतमेंगे महाराष्ट्र के भांडा जिले के खैरलांजी गांव में रहती थीं वह महार जाति थे जोकि समाज में एक छोटी जाति माना जाता है।
दलित होने के बावजूद वह बहुत सभ्रांत थी उनके पास खेती की अपनी ज़मीन थी उनके बच्चे पढ़ते लिखते थे प्रियंका एक टॉपर भी थीं। और इसी बात से कुनबी बहुत खलते थे। और उन्हे हमेशा दबाने की कोशिश करते थे वे उनके खेत में सड़क बनाना चाहते थे लेकिन निर्भीक सुरेखा ने इसका विरोध किया जिसके परिणामस्वरुप में सुरेखा के खेत में बैलगाड़ियां चलवा दी, फसलें खराब हो गई जिसके बाद सुरेखा ने इसके खिलाफ शिकायत दर्ज करा दिया। इसके परिणामस्वरुप, 3-सितंबर- 2006 को गांव में सिद्धार्थ गजभिए जोकि हवलदार थे उनपर हमला कर दिया गया। सुरेखा और उसके परिवार को दिनदहाड़े इतनी बेरहमी से पीटा गया कि ठीक समय पर मदद न मिलने के कारण उनकी मौत हो जाती।
29, सितम्बर,2006 की शाम को, लगभग 70 कुनबीयो ने सुरेखा के घर को ट्रेक्टर से घेर लिया। जिनमें महिलाएं भी शामिल थीं। सुरेखा और प्रियंका को सरेआम नंगा करके एक बैलगाड़ी से बांधकर पूरे गांव में घुमाया। सुधीर और रौशन को नंगा करके मारा पीटा गया और फिर उन्हें अपनी मां और बहन का बलात्कार करने को कहा गया। जब वे राज़ी नहीं हुए तो उनके यौनांग काट दिए गए और बेरहमी से पीट पीट कर उनकी हत्या कर दी गई।
सुरेखा और प्रियंका का सामूहिक बलात्कार किया गया उसके बाद उनकी निर्मम हत्या कर दी गई। सुरेखा और प्रियंका समेत, सुधीर और रौशन की लाशों को पास के सुखी नदी में फेंक दिया।
सुरेखा के पति भैयालाल बच गए, क्योंकि हमले के समय वह घर पर नहीं थे, खेत में काम करने गए हैं। चीख पुकार सुनकर वे दौड़े आए और झाड़ियों के पीछे छुपकर पूरी घटना को देखा।
भैयालाल का यह कहना है कि, लाशों स्थिति इतनी खराब थी कि उन्हें पहचान पाना ही बहुत मुश्किल था। सुरेखा की एक आंख नहीं थी और खोपड़ी इस कदर टूटी हुई थी कि उनका दिमाग़ तक बाहर निकल आया था। उनका यह भी कहना हैं कि उन्हें मारते हुए हत्यारों द्वारा उन्हें जातिवादी गालियां दिया जा रहा था वे कह रहे थे कि वे ‘सिर पे चढ़ गए हैं’ और उन्हें सबक सिखाने की ज़रूरत है।
मीडिया द्वारा जब खैरलांजी की इस घटना को कवर किया गया तो उस में कहीं पर भी जाति का कोई ज़िक्र तक नहीं किया गया। मीडिया के अनुसार तो ये हत्या को जाति के कारण न होकर ‘नैतिक कारणों’ से अंजाम दिया गया था। अखबारों की बात करें तो इसमें यह कहा गया कि सुरेखा का सिद्धार्थ गजभिये के साथ अफेयर चल रहा था, जो ग्रामीण लोगों को गवारा नहीं था और इसी के चलते ही वे उन दोनों को मार देना चाहते थे। मुद्दा जातिवादी हिंसा से पीड़ित महिला के चरित्र पर ही उठ खड़ा हो गया। न्यायालयों में किसी भी तरह का कोई एससी एसटी कानून लागू नहीं किया गया। और इस धारणा का आधार यह दिया गया कि खैरलांजी गांव में हुई ये जघन्य हत्याएं जातिगत हिंसा नहीं है।
कुमुद पावड़े ने, 1981, अपनी ऑटोबायोग्राफी लिखी जिसका नाम अंतस्फोट है। इस पुस्तक में उन्होंने दलित महिलाओं के साथ हो रहे शोषण के मुद्दे उठाए हैं। उनके द्वारा लिखा गया निबंध: ‘द स्टोरी ऑफ माई संस्कृत’ उनके ऑटोबायोग्राफी का हिस्सा है। जिसे कई पाठ्यक्रमों में भी जोड़ा गया है। जिसके अंतर्गत,आज़ादी के बीस साल बाद भी किस प्रकार आर्थिक, सामाजिक, और राजनीतिक स्तर पर भारत में हो रहे छुआछूत पर आधारित एक आवश्यक अध्ययन है। जिसमें यह भी रेखांकित किया गया है कि, किस प्रकार शिक्षा का क्षेत्र भी दलन दमन और भेदभाव से अछूता नहीं है।
भारत सरकार द्वारा लगाए गए संवैधानिक उपायों को लागू करने में नौकरशाही के विभिन्न स्तरों पर व्यक्तियों के प्रतिरोध को भी यह निबंध सामने लाता है। अस्पृश्यता की व्यापक गहराई और शक्ति तब एक वास्तविकता बन जाती है, जब कुमुद पावडे इसकी विस्तृत वर्णन करतीं हैं कि किस प्रकार दलितों के अधिकारों की समाज की तौहीन के समक्ष उच्चतम स्तर के राजनेता भी मूकदर्शक बने रहते हैं।
साथ ही, यह निबंध दलित नारीवाद के दृष्टिकोण के साथ साथ शिक्षा और रोज़गार में दलित महिला की स्थिति और संघर्षों को उजागर करती है। अपने ऑटोबायोग्राफी में वह बताती हैं कि किस प्रकार उन्हें एक दलित महिला होने के कारण अपने शिक्षा और सपनों के लिए कड़े संघर्ष करने पड़े। इसमें वह दलित वर्ग के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार और शोषण को भी लिखती हैं कि, उच्च जातियों के लोगों के कुओं पर दलितों को जाना प्रतिबंधित था, दलितों को अपने साथ मटका और झाड़ू ले जाना पड़ता था ताकि वे रास्ते पर बने अपने पैरों के निशान को झाड़ू से मिटा सकें। वो इसलिए कि कहीं किसी उच्च वर्गीय व्यक्ति के पैर दलितों के पैरों के निशान पर न पड़ जाएं।
दलित वर्ग पूरी तरह से उच्च वर्ग पर निर्भर था,असीम गरीबी और आर्थिक अवसरों की कमी के चलते उन्हें उच्च जातियों के रहमोकरम पर किसी तरह अपना गुज़ारा करना पड़ता था। उनसे लोगों का मल/मैला ढोने तथा शवों को उठाने के कामों पर रखे जाते थे। उनकी यह पुस्तक सम्भवतः पहली ऐसी पुस्तक रही है जिसमें अछूत महिला की स्थिति और संघर्षों को बेहद बारीकी से दस्तावेजीकरण किया गया है जिसमें वह एक दलित महिला होकर सार्वजनिक स्पेस में अपना दखल देती है, अपनी जगह बनाती हैं। किस तरह दलित महिलाओं की स्थिति और भी अमानवीय था उन्हें बड़े पैमाने पर जघन्य यौन हिंसा का सामना करना पड़ता था। उन्हें उच्च जातियों की महिलाओं के समान अच्छे कपड़े और गहने-ज़ेवर पहनने की मनाही थी।
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