दलित महिला जो बनी संस्कृत भाषा की पहली दलित स्कॉलर

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कुमुद पावड़े, एक प्रखर भारतीय दलित एक्टिविस्ट थीं। जिन्होंने दलित समुदाय के संघर्षों में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। सन 1938 में, नागपुर में एक दलित परिवार में जन्मी कुमुद, जो संस्कृत भाषा कि पहली दलित महिला बनीं। संस्कृत एक ऐसी भाषा जिसपर, आरंभ से ही केवल उच्च जातियों का एकाधिकार माना जाता रहा है, उस भाषा, उस विषय का चयन अपने आप में ही किसी आंदोलन से कम नहीं है। भारत में आजादी पूर्व (वर्तमान में भी) दलितों को अपने जीवन के मूलभूत सुविधाओं और अधिकारों के लिए कड़ी संघर्ष करना पड़ता था।

 

भारतीय दलित एक्टिविस्ट : कुमुद पावड़े (Image : google)

धर्म-शास्त्रों में वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत समाज को चार वर्णों : ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य तथा शूद्र में बांटा गया है। लोगों का जाति के आधार पर उनके व्यवसाय सुनिश्चित किया जाता है। और इसी वजह से कामों को उच्च नीच बताकर समाज के बाहर निकाला जाता हैं और उन्हें अछूत के रूप में बहिष्कृत कर दिया जाता है। दलित वर्ग को धार्मिक स्थलों पर, सार्वजनिक कुओं पर जाने की मनाही थी। स्कूल जाने पर अछूत माने जाने वाले बच्चों को उच्च जातियों के लोगों से दूर यानी नीचे जमीन पर बिठाया जाता था। जाति व्यवस्था के नियमो का उल्लंघन करने वालों को निर्वस्त्र करके गाँव में घुमाया जाना, मारना पीटना, प्रताड़ित करना तथा ज़िंदा जला दिया जाता था (कहीं कहीं वर्तमान में यही स्थिति)।

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अछूत समझे जाने के कारण बिना किसी गलती अथवा वैध कारण के उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था। और इसी समयकाल में कुमुद पावडे एक दलित महिला होने के बावजूद संस्कृत भाषा की पढ़ाई कर संस्कृत की गाढ़ी अभ्यासक बनीं। उस समय में भी दलितों को छूना उच्च जातियों के लोग गुनाह मानते थे। कुएं से पानी भरते समय जब किसी दलित के मटके किसी उच्च जातीय व्यक्ती का मटका छू जाता तो दलितों को दण्डित किया जाता था, तो संस्कृत जैसे भाषा में किसी दलित महिला का पढ़ाई करना यह नई और बड़ी बात थी।

महाराष्ट्र अमरावती के सरकारी कॉलेज की विभागाध्यक्ष (एच.ओ.डी.) रही कुमुद पावड़े, 14 अक्टूबर 1956 को, जब ऐतिहासिक धम्म दीक्षा जिसमें व्यक्ती अपनी इच्छानुसार अपना धर्म परिवर्तन करके बुद्ध धर्म अपना लेता है। उस समय कुमुद जी भी विद्यमान थीं चूंकि उनके माता पिता बाबासाहेब अम्बेडकर द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन दलित बुद्धिस्ट आंदोलन का हिस्सा थे। जिसके कुछ समय बाद, उन्होंने स्वयं भी धर्म परिवर्तन करके बौद्ध धर्म को अपना लिया था।
उन्होंने, 1981, अपनी ऑटोबायोग्राफी लिखी जिसका नाम अंतस्फोट है। इस पुस्तक में उन्होंने दलित महिलाओं के साथ हो रहे शोषण के मुद्दे उठाए हैं।

 

ऑटोबायोग्राफी अंत:स्फोट : कुमुद पावड़े (Image : Social media)

उनके द्वारा लिखा गया निबंध: ‘द स्टोरी ऑफ माई संस्कृत’ उनके ऑटोबायोग्राफी का हिस्सा है। जिसे कई पाठ्यक्रमों में भी जोड़ा गया है। जिसके अंतर्गत,आज़ादी के बीस साल बाद भी किस प्रकार आर्थिक, सामाजिक, और राजनीतिक स्तर पर भारत में हो रहे छुआछूत पर आधारित एक आवश्यक अध्ययन है। जिसमें यह भी रेखांकित किया गया है कि, किस प्रकार शिक्षा का क्षेत्र भी दलन दमन और भेदभाव से अछूता नहीं है।

भारत सरकार द्वारा लगाए गए संवैधानिक उपायों को लागू करने में नौकरशाही के विभिन्न स्तरों पर व्यक्तियों के प्रतिरोध को भी यह निबंध सामने लाता है। अस्पृश्यता की व्यापक गहराई और शक्ति तब एक वास्तविकता बन जाती है, जब कुमुद पावडे इसकी विस्तृत वर्णन करतीं हैं कि किस प्रकार दलितों के अधिकारों की समाज की तौहीन के समक्ष उच्चतम स्तर के राजनेता भी मूकदर्शक बने रहते हैं।

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साथ ही, यह निबंध दलित नारीवाद के दृष्टिकोण के साथ साथ शिक्षा और रोज़गार में दलित महिला की स्थिति और संघर्षों को उजागर करती है। अपने ऑटोबायोग्राफी में वह बताती हैं कि किस प्रकार उन्हें एक दलित महिला होने के कारण अपने शिक्षा और सपनों के लिए कड़े संघर्ष करने पड़े। इसमें वह दलित वर्ग के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार और शोषण को भी लिखती हैं कि, उच्च जातियों के लोगों के कुओं पर दलितों को जाना प्रतिबंधित था, दलितों को अपने साथ मटका और झाड़ू ले जाना पड़ता था ताकि वे रास्ते पर बने अपने पैरों के निशान को झाड़ू से मिटा सकें।

 

भारत की दलित महिला लेखिका तथा एक्टिविस्ट जो बनी संस्कृत भाषा की पहली दलित स्कॉलर

वो इसलिए कि कहीं किसी उच्च वर्गीय व्यक्ति के पैर दलितों के पैरों के निशान पर न पड़ जाएं। दलित वर्ग पूरी तरह से उच्च वर्ग पर निर्भर था,असीम गरीबी और आर्थिक अवसरों की कमी के चलते उन्हें उच्च जातियों के रहमोकरम पर किसी तरह अपना गुज़ारा करना पड़ता था। उनसे लोगों का मल/मैला ढोने तथा शवों को उठाने के कामों पर रखे जाते थे। उनकी यह पुस्तक सम्भवतः पहली ऐसी पुस्तक रही है जिसमें अछूत महिला की स्थिति और संघर्षों को बेहद बारीकी से दस्तावेजीकरण किया गया है जिसमें वह एक दलित महिला होकर सार्वजनिक स्पेस में अपना दखल देती है, अपनी जगह बनाती हैं। किस तरह दलित महिलाओं की स्थिति और भी अमानवीय था उन्हें बड़े पैमाने पर जघन्य यौन हिंसा का सामना करना पड़ता था। उन्हें उच्च जातियों की महिलाओं के समान अच्छे कपड़े और गहने-ज़ेवर पहनने की मनाही थी।

बहरहाल, आज कुमुद पावड़े हमारे बीच नहीं हैं आज ही के दिन उनका निधन हो गया। लेकिन उनके संघर्षों, कार्यों और उपलब्धियों को सदा सराहा और याद रखा जाएगा।

यह लेख दुर्गेश्वरी अलीशा महतो द्वारा लिखा गया है।

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