एक ऐसा अनोखा बैंड, जिसने गरीबी से लड़ रहीं बिहार की दलित महिलाओं को बना दिया आत्मनिर्भर

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पटना की राजधानी बिहार से एक गौरवान्वित करने वाली ख़बर सामने आई है। दरअसल पटना में दलित महिलाओं ने मिलकर एक बैंड बनाया है जिसके ज़रियें बिहार की महिलाएँ गरीबी और समाज में उनके साथ होने वाले भेदभाव से लड़ रहीं हैं और इसके साथ आत्मनिर्भरता की मिसाल कायम कर रहीं हैं। आज हम आपको एक ऐसे बैंड के बारे में बताएंगे, जिसके चर्चे पूरे देश में है और उस बैंड की सभी सदस्य दलित महिलाएं हैं, जिन्होंने गरीबी और भेदभाव से लड़ने के लिए यह पेशा चुना। इस बैंड की सबसे खास बात यह है कि इस बैंड की हर संगीतकार एक दलित महिला है।

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बैंड की सदस्य महिलाएं :

जब हम किसी कार्यक्रम या समारोह में जाते हैं तो तरह तरह के बैंड देखते हैं। यह बैंड कार्यक्रम का महौल बना देते हैं। इन बैंड के बिना कार्यक्रम में नीरसता आ जाती है। लेकिन अक्सर जब भी हम किसी बैंड के बारे में सुनत हैं तो हमारे मन में इस पेशे के लिए केवल पुरुषों की छवि बनती है या अक्सर बैंड के पेशे को केवल पुरुष प्रधान माना जाता है। क्या हमने कभी यह सोचा है कि बैंड के सदस्य केवल पुरुष नहीं बल्कि महिलाएं भी हो सकती हैं। यह सुनने में भले अजीब लगता हो लेकिन इसे बिहार की दलित महिलाओँ ने सच साबित करके दिखा दिया है।

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गरीबी पर काबू :

आपकों बता दें कि इस बैंड की सदस्य दलित महिलाएं बिहार के दो जिलें ढिबरा और समर गांव की हैं। अपने बैंड के पेशे के जरियें इन महिलाओँ ने गरीबी और बाधाओँ पर काबू पा लिया है।
इस ग्रुप में 50 साल की पंचम देवी नाम की महिला है जो पहले दिहाड़ी मजदूर के तौर पर प्रतिदिन 100 रुपये से अधिक नहीं कमा पाती थी। आज हर महीने 15000 से 20,000 तक कमा रहीं हैं।

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लोगों की आलोचनाओं का सामना :

45 साल की रामरती देवी, जिनके पति एक कंसट्रक्शन का काम करते हैं, लेकिन उनके पति की कमाई से अपने पांच बच्चों का भरण-पोषण ठीक से नहीं कर पाती थी, अब वह हर महिने 20,000 रुपये तक कमा रहीं हैं। उनके घर का भरण-पोषण भी अच्छे से हो रहा है। लेकिन इन दलित महिलाओँ के लिए यहां तक पहुंचना आसान नहीं था क्योंकि उन्होंने संदेह करने वाले पतियों और मजाक करने वाले पड़ोसियों के खिलाफ लड़ाई लड़ी है।

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महिला संगीत बैंड :

जब भी शादियों को मौसम चरम पर होता है तो इस बैंड में शामिल हर महिला 50,000 रुपये तक कमा सकती हैं। जो उनके परिवार की आय की तुलना में काफी अधिक है। इस बदलाव के पीछे भी एक महिला पद्मश्री सुधा वर्गीस का हाथ है, जो दलितों के साथ काम करती हैं। वर्गीस ने मीडिया को बताया, “इन गरीब दलित महिलाओं ने बहुत कठिन संघर्ष किया है। वे केवल खेतों में काम कर सकती थीं. लेकिन एक दिन मेरे मन में एक पूरे महिला संगीत बैंड का विचार आया और मुझे खुशी है कि यह इतना अच्छा निकला.”

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अन्य राज्यों में भी प्रदर्शन :

बैंड के सदस्य मध्यम आकार की केतली ड्रम जिसे तबसा कहते हैं और झुनझुना सहित ताल वाद्ययंत्र बजाते हैं। और सभी बैंडों की तरह, बॉलीवुड हिट के साथ-साथ भोजपुरी फिल्मी गाने भी बजाते हैं। इनके बैंड की मांग न केवल बिहार में है, बल्कि उन्होंने अहमदाबाद, मुंबई, हैदराबाद, बेंगलुरु और दिल्ली में भी अपनी कला का प्रदर्शन किया है।

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अपमान का सामना किया:

पंचम देवी बताती हैं कि एक संगीतकार बनने के लिए ट्रेनिंग शुरू करना काफी कठिन था,क्योंकि शुरुआत में बैंड के सदस्य अविश्वासी थे और उन्हें लगातार लापरवाही और अपमान से जूझना पड़ता था। वह याद कर कहती हैं कि “शुरुआत में 10 महिलाएं थीं, जिनमें से अधिकांश ने खेतों में दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद ट्रेनिंग ली थी. रामरती देवी को चार साल पहले बैंड में शामिल होना आज भी याद है, उन्हें नहीं पता था कि भविष्य क्या होगा”।

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सम्मान मिला:

लेकिना इन महिलाओं की कामयाबी ने संदेह करने वाले पति और पड़ोसियों को गलत साबित कर दिया है अब उनके परिवार के सदस्यों को काफी सम्मान मिलता है। बैंड के सदस्यों को उनके रिसीव करने के लिए कारें आती हैं। अब बैंड के सदस्य ज्यादातर सप्ताह में काम के सिलसिले में बाहर रहते हैं। लेकिन बैंड के सदस्यों का यह भी कहना है कि इस बात पर उनका किसी तरह का ज़ोर नहीं है कि वे केवल अपने संगीत को लोगों के बीच बढ़ने दें। वे स्वतंत्र रुप से काम करना पसंद करते हैं।

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