पितृसत्ता और मनुवादी व्यवस्था को बढ़ावा देती फिल्में और टीवी सीरियल महिलाओं को बना रहे मानसिक गुलाम

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अगर यू कहें कि मनुवादी व्यवस्था में अंधविश्वास, पाखंड, कर्मकांड, रीति-रिवाज, परम्परा, काल्पनिक देवी-देवताओं की कहानी आदि को बढ़ावा सबसे ज्यादा टीवी सीरियल और फिल्मों द्वारा मिल रहा है तो यह बिल्कुल सही होगा…

दीपशिखा इन्द्रा की टिप्पणी

जिस तरह साहित्य समाज का दर्पण होता है, उसी तरह सिनेमा (फिल्म) भी समाज को प्रतिबिम्बित करता है। फिल्में न केवल समाज की दशा दिखाती हैं, बल्कि यह समाज को दिशा भी दिखाने का काम करती हैं। सामाजिक परिवेश को निर्धारित करने के साथ-साथ फिल्में जातिवादी व्यवस्था एवं पितृसत्तात्मक सोच को भी दर्शाती है।

पितृसत्ता और बाजारीकरण
मनुवादी व्यवस्था (जातिवादी पितृसत्तात्मक रूढ़िवादी सोच) और इससे ग्रसित लोग सदियों से महिलाओं को हमेशा गुलाम के रूप में देखना चाहते हैं और आज भी हालात कुछ बदले नहीं हैं। यदि हम गौर करें तो इसका उदाहरण सिनेमा में (अस्सी के दशक से लेकर आज तक) बखूबी वैसे ही देखने को मिलता है, जहाँ एक महिलाओं को लाचार, कमजोर, जुल्मों को सहने वाली आदि के रूप में दिखाया जाता रहा है। इतना ही नहीं महिलाओं को एक वस्तु के रूप में भी दिखाया जाता है, जैसा मनुवादी व्यवस्था में या ग्रंथों (मनुस्मृति) में बताया गया है, फिर चाहे वो फिल्मों द्वारा हो या गानों के माध्यम से। पितृसत्तात्मक सोच फिल्म के दृश्यों या फिर गानों में परिलक्षित हो ही जाती है।

सिनेमाजगत अस्सी के दशक से लेकर आज तक महिलाओं को एक वस्तु के रूप में और गुलाम के रूप में ही दिखाता रहा है। पितृसत्ता सामाजिक रूप से निर्मित व्यवस्था है, जिसमें पुरुष सत्ता पर काबिज होते हैं और लगभग हर क्षेत्र में महिलाओं पर हावी रहते हैं। यदि देखा जाए तो यह रोजमर्रा की बातचीत और सामाजिक व्यवस्था द्वारा निर्मित रूढ़िवादी परम्पराओं का एक उत्पाद है और यह अस्सी दशक से लेकर आज आजादी के बाद भी हमारे समाज में एक गहरी जड़ें जमाये हुए है, जो अभी तक जैसा का तैसा है। यदि हम गौर करें और अपने घरों, पास—पड़ोस में देखें तो साफ साफ दिखाई देता है।

यह पितृसत्ता हमारे और आप के घरों से ही शुरू हो जाती है, जैसे पुरूष हर परिवार का मुखिया होता है। फिर चाहे वह पिता के रूप में हो या पति के रूप में, जहाँ एक महिला चाहे बेटी हो या पत्नी यहां पिता और पति ही उसके बारे में निर्णय लेते हैं। महिला के कैरियर की बात हो तो पत्नी तभी नौकरी कर सकतीं हैं जब उसका पति या ससुराल के बड़े यानी ससुर इजाजत दें। ज्यादातर ग्रामीण परिवेश में और शहरों में भी शाम को बाजार और अपनी सहेली के घर जाने के लिए भी लड़कियां भाई या फिर अन्य परिजनों के साथ जाती हैं। यह अपने आप में पितृसत्तात्मक व्यवस्था का बड़ा उदाहरण है। हालांकि भारतीय सिनेमा में कुछ ऐसी फिल्में जरूर बनी हैं, जो पितृसत्तात्मक मानदंडों को दर्शाती हैं और उन पर सवाल उठाती हैं।

बॉलीवुड फिल्म भाभी (1957) की बात करें तो यह एवीएम प्रोडक्शंस के लिए कृष्णन-पंजू द्वारा निर्देशित थी। फिल्म में बलराज साहनी, पंडरी बाई और नंदा ने महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाईं। इस फिल्म में दिखाया गया है कैसे एक महिला घर को अलग कर देती है, कैसे एक भाई को भाई से अलग कर देती है। अधिकतर फिल्मों में लगभग ऐसा ही दिखाया जाता है जैसे एक महिला झगड़ालू और अलगाव वाली होती है। अक्सर पुरुष घरों में होने वाले अलगाव और घर टूटने का कारण ही फिल्मों की तरह महिलाओं को ठहरा देते हैं, फिर चाहे उसकी जड़ में वह खुद क्यों न हों।

जाने-माने अभिनेता राजेश खन्ना, अभिनेत्री जयाप्रदा, श्रीदेवी आदि की फिल्मों में भी महिलाओं को सबकुछ चुपचाप सहने वाली, कुप्रथाओं, रुढ़िवादी परम्पराओं को मानने वाली दिखाया जाता है। यहां तक कि गलती किसी की भी हो, लेकिन दोष सिर्फ महिलाओं के सिर मढ़ दिया जाता है। एक फिल्म में दिखाया जाता है कि एक लड़की (नायिका) प्यार करती है और लड़का (नायक) धोखा देता है और यहां तथाकथित समाज वाले उस लड़की को भला—बुरा कहते हैं और उसे इस तरह बेज्जत किया जाता है कि लड़की को लगता है उसकी गलती है और रोते-बिलखते, बेचारगी का अहसास लिए, खुद को लाचार मानकर हुए कुंए में कूदकर जान देने जाती है और फिर नायक आता है और उसे बचाता है। लड़की से शादी करने के लिए कहता है और इस तरह से लड़की उसके अहसानों तले दब जाती है। शादी के बाद चाहे कुछ भी हो चुपचाप सह लेती है।

यहां गौर करने वाली बात यह है कि लड़की की गलती न होते हुए भी ये पुरुषवादी सोच वाला समाज उसे ही गलत साबित करता है, और लड़का गलत होते हुए भी सही साबित हो जाता है। दूसरी बात शादी के बाद यहाँ भी एक लड़की को लाचार, कमजोर दिखाया जाता है। ऐसा दिखाया जाता है कि लड़के ने लड़की के ऊपर बहुत बड़ा अहसान किया हो। मतलब साफ है दोनों स्थितियों में पुरुष को ही प्रबल रूप में दिखाया गया है, जो पुरुषवादी सोच को बकायदा जाहिर करता है। इतना ही नहीं ऐसे बहुत सी फिल्में ऐसी हैं, जिनमें आपको देखने को मिलता है और गानों में भी महिलाओं को पुरुष की गुलाम के रूप में दिखाया जाता है। महिलाओं के साथ कितना भी अत्याचार और शोषण हो, लेकिन उनको चुपचाप रहना चाहिए और पति की पूजा करनी चाहिए।

उदाहरण के लिए नसीब फिल्म का एक गाना है, “भला है बुरा है जैसा भी है, मेरा पति मेरा देवता है…” गाना तो 4—5 मिनट में खत्म हो जाता है मगर समाज को बुरी तरह प्रभावित करता है। मनुवादी सोच वाले लोग यही तो चाहते हैं। ग्रामीण परिवेश में आज भी महिलाएं इस गाने को सिर्फ मनोरंजन की नजर से नहीं देखती हैं, बल्कि उसे अपनी निजी जिंदगी में पालन करने लगती हैं।

अब बात करें आज के समय की फिल्म जैसे ‘मर्दानी 2’ की। यह फिल्म 2019 में रिलीज़ हुई थी और इसमें रानी मुखर्जी को पुलिस अधीक्षक के रूप में दिखाया गया है। इस फिल्म में हिंसा, यौन शोषण और पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर सवाल उठाया गया है। इस फिल्म में नायिक को इतना बहादुर और समझदार दिखाया गया है कि वह समाज में घटित हर अपराध को सुलझा लेती है। लेकिन यदि आप ध्यान देंगे तो फिल्म की सबसे बड़ी खामी इसके नाम में है। फिल्म का नाम ‘मर्दानी’, जिसका अर्थ है एक आदमी। इसके नाम में ही पितृसत्तात्मकता साफ साफ दिखाई देता है और सबसे दुर्भाग्य की बात है कि यह उस समय महिलाओं के सशक्तीकरण पर बनाई जाने वाली फिल्म थी। जहाँ एक तरफ दिखाने की कोशिश की गयी है कि महिला कुछ भी कर सकती हैं, लेकिन इसका नाम इसके मकसद और पितृसत्ता को खत्म करने की थीम पर प्रश्न चिन्ह लगा देता है?

सिनेमा का लोगों के दिमाग और समाज पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है, इसलिए हर सामाजिक मुद्दों पर विचार करना उसकी नैतिक जिम्मेदारी बन जाती है। देखा जाए तो पितृसत्तात्मक समाज पर बहुत अधिक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। इससे न सिर्फ महिलाओं के मान सम्मान हक-अधिकारों की प्राप्ति कठिन हो जाती है। यह महिलाओं के विकास में मुख्य बाधा है, क्योंकि यह पुरुष वर्चस्व को बढ़ावा देता है। हमारी संस्कृति पर निस्संदेह पितृसत्ता की छाप है, लेकिन इसके प्रभावों के बारे में हम सभी को जागरूकता फैलानी होगी। इस आधुनिक समाज से पितृसत्ता को ख़त्म करना होगा और इसको जड़ से खत्म करना हर नागरिक की (खासकर महिला समाज) भागीदारी से हो सकता है।

महिला अस्मिता को तार तार करते फिल्मों के आइटम सांग
आज के समय ही नहीं बल्कि अस्सी वाले दशक से फिल्मों के आइटम सांग में महिलाओं के शरीर को प्रदर्शित करने के साथ-साथ उनको एक कामुक और एक वस्तु प्रतीक के रूप में स्थापित किया गया है। जैसे – मुन्नी बदनाम हुई, शीला की जवानी, फेबिकोल से, जलेबीबाई.. समेत तमाम अश्लील गाने ऐसे हैं, जो महिला अस्मिता को कटघरे में खड़ा कर देते हैं।

महिलाओं को इसका विरोध करना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि महिलाएं खुद ऐसे गानों पर नाचती हैं, जबकि बात इनके ही स्वाभिमान अस्मिता को ये गाने तार—तार करते नजर आते हैं, फिर भी महिलायें गुलामों की तरह जीना पसंद करती है। दुख होता है ऐसा देखकर जब महिलाएं ऐसे मामलों पर चुप रहती हैं। जहाँ इनको ही एक वस्तु के रूप में तो कभी कामुकता की देवी के रूप में प्रदर्शित करते हैं। अब सवाल यहां आता है कि सिर्फ महिला ही क्यों? पुरूष को आइटम नंबर व गाने में पेश क्यों नहीं किया जाता है?

अस्सी के दौर में भी ऐसी फिल्में बनी हैं जिसमें परिवार के टूटने का कारण, भाई भाई के बीच झगड़ा करने का कारण सिर्फ एक महिला को दिखाया जाता है मतलब महिला को आग लगाने वाले के रूप में दिखाया जाता है, जिससे हमारे समाज का महिलाओं के प्रति देखने का नजरिया बदल जाता है। और जब ऐसी घटना होती है तो सबसे पहले जिम्मेदार उस घर की महिला को माना जाता है। इन फिल्मों के द्वारा महिला को गलत रूप में लोगों को दिखाया जाता ,है जिसमें महिलाओं के चरित्र हनन के साथ साथ उनको कमजोर, लाचार के रूप में स्थापित किया जाता है और दूसरी तरफ हम टीवी में एड में हो या विज्ञापन के क्षेत्र में महिलाओं को एक वस्तु व कामुक रूप में दिखाया व स्थापित किया जा रहा है।

उदाहरण के लिए कार के विज्ञापन में दो महिलाओं को अश्लील कपड़ों में खड़े करके लोगों के सामने दिखाना, जबकि वहां लड़की को ऐसे कपड़ों में दिखाने का कोई मतलब नहीं है। इससे ये पता चलता है कि मनुवादी सोच महिला को एक वस्तु व कामुक रुप में प्रदर्शित करना चाहती है। इतना ही नहीं टीवी एड के माध्यम से महिलाओं के रंग को भी कटघरे में खड़ा किया जाता है। बात करें फेयरनेस क्रीम के विज्ञापन की तो ये स्थापित किया गया है कि समाज में सिर्फ गोरे रंग वाले की अहमियत है। एड में दिखाया जाता है कि एक लड़की जो काली है वो नौकरी के लिए इन्टरव्यू देने जाती है, लेकिन काले होने की वजह से नौकरी नहीं मिलती है फिर उसे एक फेयरनेस क्रीम के बारे में पता चलता है उसे लगते ही एक सप्ताह में वो गोरी हो जाती है और दोबारा जाती है नौकरी के लिए तो उसे नौकरी मिल जाती है। इस एड के माध्यम से रंगभेद को बढावा दिया जा रहा है, जबकि सभी को इसका विरोध करना चाहिए।

रजनीकान्त इन्द्रा ने एक बहुत ही उम्दा बात कही थी, “देश में गोरे होने की फेयरनेस क्रीम का साम्राज्य संदेह से परे यह साबित करता है कि लोग कितने रंगभेदी हैं! दुनिया के लगभग सभी देशों में रंगभेद खत्म हो चुका है, लेकिन भारत में बाकायदा बिजनेस के तौर पर न सिर्फ काबिज है, बल्कि लगातार बढ़ता ही जा रहा है लेकिन फिर भी ये हमारे यहाँ “देशहित का मुद्दा” नहीं है!

उन्होंने आगे कहा, “नारी आज भी अपनी आजादी के लिए संघर्ष कर रही है, लेकिन इस दरमियान आज की पढी-लिखी नारी अनपढ़ नारी को हेय दृष्टि से क्यों देख रही है? आज की नारी भी बंटी हुई है! पहले जाति के आधार पर! दूसरे, अमीरी-गरीबी के आधार पर! तीसरे, रंग के आधार पर! चौथे, धर्म के आधार पर! पांचवे, नस्ल के आधार पर! इनकी भी आजादी आसान नहीं है!”

यह बातें बिल्कुल सही हैं। समाज में बाकायदा यह सब देखने को मिलता है। गोरेपन के ऐसे विज्ञापनों पर रोक लगा देनी चाहिए जो समाज में रंगभेद को बढ़ रही हैं।

अब आगे बात करें सिनेमा और धारावाहिकों की तो अगर आप किसी लड़की के साथ लफंगे जैसा बर्ताव करंगे तो वह आपसे इम्प्रेस हो जायेगी और पट जाएगी। लड़की के मना करने के बावजूद उसके पीछे भागना या पाने की जिद करना हीरोइज्म की निशानी है। लड़कियों के शरीर पर जोक्स बनाना या कमेंट पास करना आम बात है। ऐसा करने पर लड़कियां खुश होती हैं। प्यार को अश्लीलता के रूप में दिखाना आम बात हो चुकी है। ऐसा करने से लगता है कि लड़की मान जाती है। असल जिंदगी में इसके बहुत बुरे परिणाम लड़कियों को भुगतने पड़ते हैं। फिल्मों की तरह मजनूंगिरी करने वाले लड़कों को लड़की की ना रास नहीं आती और रिजल्ट एसिड अटैक जैसे भयानक रूप में सामने आता है।

इससे हम सोच और समझ सकते हैं कि महिलाओं को कैसे एक वस्तु के रूप में मीडिया, फिल्म और विज्ञापनों द्वारा समाज में दिखाया जाता है, जिसका असर समाज में देखने को मिलता है। मनुवादी सोच वाले लोगों ने महिलाओं एक गुलाम के रूप में या वस्तु के रूप में दिखाया और माना हैं। इतना ही नहीं, वो हर तरह के गलत या नकारात्मक रूप में पाखंड, कर्मकांड और यहां तक अंधविश्वास भूत-प्रेत में भी सिर्फ महिलाओं को ही दर्शाते और दिखाते हैं।

महिलाएं इन्हीं सीरियलों और फिल्मों के कारण अंधविश्वास के कुचक्र में बुरी तरह फंस जाती हैं। फिल्मों—धारावाहिकों में दिखाये जाने वाले तमाम तरह के अंधविश्वास का अपने जीवन में अनुसरण करने लगती है। अगर यू कहें कि मनुवादी व्यवस्था में अंधविश्वास, पाखंड, कर्मकांड रीति-रिवाज परम्परा काल्पनिक देवी-देवताओं की कहानी आदि को बढ़ावा सबसे ज्यादा टीवी सीरियल और फिल्मों द्वारा मिल रहा है तो यह बिल्कुल सही होगा।

उदाहरण के लिए यहां कुछ सीरियलों के नाम गिनाते हैं, जैसे डायन, विषकन्या, दिव्यदृष्टि, नजर, कयामत, इच्छाधारी नागिन, नागिन 3, गंगा जैसे तमाम सीरियल अंधविश्वास, भूत-प्रेत, पाखंड, कर्मकांड, रीति-रिवाज, परम्परा और काल्पनिक कहानियों को बढ़ावा दे रहे हैं। इन सीरियलों में एक बात ध्यान देने वाली यह है कि ज्यादातर अंधविश्वास में महिलाओं को लिया गया है, सिर्फ एक महिला ही डायन, विषकन्या आदि हो सकती है, लेकिन पुरुष नहीं। इससे महिलाओं पर तो असर पड़ेगा ही, लेकिन बच्चों पर इसका कितना गहरा और गलत प्रभाव पड़ता है इस विचार करने की जरूरत है।

होना तो यह चाहिए था कि ऐसे टीवी सीरियलों को बंद कर दिया जाये, मगर मनुवादी व्यवस्था का प्रचार प्रसार कैसे होगा? इसका प्रभाव हमारे समाज के लोगों पर पड़ता है, फिर गलत चीज चाहे अंधविश्वास पाखंड कर्मकांड आदि को भी लोग अपने जीवन में अनुसरण करने लगाते हैं। उदाहरण के तौर पर मैंने बचपन से अपने गांव में महिलाओं को कभी भी करवाचौथ का व्रत करते नहीं देखा। तब गांव में तीन—चार घरों में ही टीवी था, लेकिन अब टीवी के साथ साथ हर हाथ में स्मार्टफोन हैं। अब गांवों में सब महिलाएं करवाचौथ का व्रत रखती हैं। इससे हम अंदाजा लगा सकते हैं कि टीवी सीरियल और फिल्म के द्वारा अंधविश्वास, पाखंड, कर्मकांड, रूढ़िवादी सोच मनुवादी रीति-रिवाजों और पितृसत्तात्मक सोच को कैसे बढावा दे रही है।

दुख की बात है कि महिला समाज इन महिलाविरोधी मुद्दों का विरोध करने के बजाय ऐसी अंधविश्वास, पाखंड, कर्मकांड, रूढ़िवादी परम्पराओं, रीति-रिवाजों को बढावा दे रहा है। यही हम महिलाओं की गुलामी का असल कारण भी है।

महात्मा ज्योतिबा फूले जी ने कहा था “गुलाम को गुलामी का एहसास करा दो, वह स्वयं क्रांति कर देगा।” लेकिन दुर्भाग्य की बात है महिलाएं अपनी गुलामी को खुद बढ़ा रही हैं, जबकि बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने महिला समाज के अधिकार, स्वाभिमान के लिए और इस मनुवादी व्यवस्था से आजाद कराने के लिए अपना सबकुछ कुर्बान कर दिया था। जरूरत है महिला समाज को महात्मा ज्योतिबा फूले, माता सावित्री बाई फूले, बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर, मान्यवर कांशीराम, आदि और बहुजन महानायकों और महानायिकाओं और वर्तमान में सामाजिक परिवर्तन की महानायिका मायावती जैसे महान विचारकों और समाज सुधारओं को पढ़ने की और समझने की, ताकि आने वाली पीढ़ियां इस मनुवादी व्यवस्था के गुलामी से आजाद हों और बुद्ध-अम्बेडकरमय युग में आजादी के साथ अपने जीवन में स्वाभिमान के साथ आगे बढ़ सकें।

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