महाड़ आंदोलन जिसने जातिवाद की जड़ें हिला दी

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कहा जाता है कि अगर तीसरा विश्वयुद्ध हुआ तो वो यकीनन पानी को लेकर होगा. वही पानी जो आज आसानी से पीने के लिए तो मिल ही जाता है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि आज से लगभग सौ साल पहले पानी की भी जातियाँ हुआ करती थीं. पानी के साथ ये मानसिकता जोड़ दी गई थी कि कौन सा पानी कौन सी जाति पीएगी और कौन सी नहीं. उस दौर में एक विशेष जाति के लोगों के लिए पानी भी दुर्लभ हुआ करता था. एक जाति के लोगों के पास पानी की कोई कमी नहीं थी, जबकि दूसरी जाति बूँद-बूंद के लिए मोहताज थी. ये जाति थी अछूत वही अछूत जिनके लिए ब्राह्मणवादियों ने पानी में भी बँटवारा कर दिया था.

एक तालाब जिससे कुत्ते-बिल्ली से लेकर गाय-भैंस तक पानी पी सकते थे लेकिन किसी दलित को पानी पीने का हक़ नहीं था. लेकिन इस मनुवादी सोच को खत्म करने के लिए बाबा साहब अंबेडकर ने ऐसा विद्रोह किया कि ब्राह्मणवादियों की जड़ें हिल गई.

 

 

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बात साल 1924 की है भारत में अंग्रेज़ी शासन काल था और इसी वक्त महाराष्ट्र के समाज सुधारक एस. के. बोले ने बम्बई विधानमंडल में एक विधेयक पारित करवाया जिसमें सरकार द्वारा संचालित संस्थाओं जैसे अदालत, स्कूल, हॉस्पिटल, पनघट, तालाब जैसे सार्वजनिक स्थानों पर अछूतों को प्रवेश और उनका उपयोग करने का आदेश दिया गया. लेकिन कोलाबा जिले के महाड में स्थित चवदार तालाब में विधेयक पारित होने के बावजूद जातिवादी सवर्ण हिंदु अछूतों को सार्वजनिक तालाबों और कुओं से पानी नहीं पीने देते थे.

 

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बाबा साहेब अंबे़कर की गोद में बैठे सीके बोले.. (तस्वीर : गूगल)

 

इस समय 36 साल के युवक डॉ बी आर अंबेडकर के एक कथन ने अछूतों के बीच सामाजिक बराबरी और मानव अधिकारों के प्रति अलख जगा दिया। डॉ आंबेडकर ने कहा था कि ‘अधिकार माँगने से नहीं मिलते बल्कि अपने अधिकारों को छीनना पड़ता है इसीलिए बाबा साहब अधिकार माँगने की जगह अपने अधिकार को छीनने के लिए निकल पड़े थे.

मार्च 1927 की बात है जब बाबा साहब के पास रोज़ ढेरों लोगों के पत्र आते थे. जिनमें अछूतों पर होने वाले अत्याचार का जिक्र होता था. एक दिन महाड़ से एक ऐसा ही पत्र उनके पास आया, जिसमें लिखा था कि वहां अछूतों को चावदार तालाब से पानी नहीं लेने दिया जाता. एक बार कुछ अछूतों ने वहां से पानी लेने की कोशिश की तो उन्हें बहुत मारा गया, घर जला दिए गए, और परिवार वालों को जूतों से पीटा गया. आंबेडकर ने महाड़ जाने का निश्चय किया. 19 और 20 मार्च को डॉक्टर आंबेडकर ने कोलाबा में अछूतों की बैठक बुलाई.

 

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आंबेडकर ने यहां अपने सम्बोधन में कहा,

“भाइयों, ऐसा प्रयत्न करो, जिससे तुम्हारे बच्चे तुमसे अच्छी हालत में जिन्दगी बिता सकें. अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते, तो फिर तुम मनुष्य कहलाने योग्य न रहोगे.’

बैठक में निर्णय लिया गया कि अगली सुबह से सत्याग्रह शुरू होगा.

 

20 मार्च 1927 का दिन था दोपहर के समय सूरज की किरणें तालाब के पानी पर पड़ती और चमक उठती. एक भीड़ तालाब की सीढ़ियों से नीचे उतर रही थी. सबसे पहले डॉ अम्बेडकर उतरे और उन्होंने नीचे झुककर तालाब के पानी को अपने हाथ से स्पर्श किया. इसी ऐतिहासिक पल ने एक क्रांति को जन्म दिया.

 

 

 

डॉ आंबेडकर ने अपने सहयोगियों के साथ 19-20 मार्च 1927 को महाड के चवदार तालाब को मुक्त कराने के लिए सत्याग्रह करने का फैसला किया. महाड़ कूच करने से पहले बाबा साहब ने कहा था ‘तीन चीजों को तुम्हें छोड़ना होगा. उन कथित गंदे पेशों को छोड़ना होगा जिनके कारण तुम पर लांछन लगाये जाते हैं. दूसरे, मरे हुए जानवरों का मांस खाने की परम्परा को भी छोड़ना होगा और सबसे अहम है कि तुम उस मानसिकता से मुक्त हो जाओ कि तुम ‘अछूत’ हो’.

 

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उन्होंने पीने के पानी पर सबके समान हक़ की बात दोहराते हुए कहा ‘क्या यहां हम इसलिये आये हैं कि हमें पीने के लिए पानी मयस्सर नहीं होता है ? क्या यहां हम इसलिये आये हैं कि यहां के जायकेदार कहलाने वाले पानी के हम प्यासे हैं ? नहीं, दरअसल इन्सान होने का हमारा हक़ जताने हम यहां आये हैं.’

पहली बार इतनी बड़ी संख्या में लोगों का नेतृत्व करते हुए बाबा साहब ने अपने अधिकारों की मांग की थी. जातिवादियों को इस बात से काफी मिर्ची लगी और उन्होंने अफवाह फैलाई कि चवदार तालाब को अपवित्र करने के बाद अछूतों की ये टोली विरेश्वर मंदिर में भी दाखिल होने वाली है.और डॉ आंबेडकर के साथ आए लोगों पर लाठियों से हमला कर दिया। महिलाओं से लेकर बच्चे और बुजुर्गों तक किसी को नहीं बक्शा. डॉ आंबेडकर ने अपने लोगों को शांत रहने की सलाह दी. जिसके बाद अपवित्र हुए चवदार तालाब का शुद्धिकरण करने के लिए जातिवादियों ने तालाब में गोबर और गौ मूत्र डलवाया और मंत्रों के ज़रिए तालाब को शुद्ध करने का ढोंग किया.

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लोगों को गौमूत्र पीने से कोई दिक्कत नहीं लेकिन किसी दलित के छुए पानी से दिक्कत है. क़रीब 100 साल बीत जाने के बाद भी आज भी न जाने कितने लोग छुआछूत के इस जंजाल में उलझे है. ये लोग आज भी अपने आप को जन्म के आधार पर ऊँचा और दूसरों को नीचा मानते है. महाड़ सत्याग्रह डॉ आंबेडकर के जीवन की निर्णायक घटना थी. इस आंदोलन के बाद उन्होंने अपना पूरा जीवन वंचितों के उद्धार के लिए लगा दिया.

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आज अछूत 20 रुपये की पानी की बोतल से लेकर 200 रुपये तक की पानी की बोतल ख़रीद सकते हैं. लेकिन इसके लिए बाबा साहब ने बहुत संघर्ष किया. इसलिए हमारी हर घूँट बाबा साहब और उनके असंख्य सहयोगियों के संघर्ष की क़र्ज़दार है। जिसके लिए हमें बाबा साहब का शुक्रिया अदा करना चाहिए.

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