बसपा सुप्रीमो मायावती ने उपचुनाव में पार्टी की करारी हार की समीक्षा के लिए 30 दिसंबर को अहम बैठक बुलाई है। इसमें संगठन को मजबूत करने, खिसकते दलित वोट बैंक को वापस लाने और बड़े पदाधिकारियों पर कार्रवाई की संभावनाओं पर चर्चा होगी। आजाद समाज पार्टी के बढ़ते प्रभाव ने बसपा के लिए चुनौती खड़ी कर दी है, जिससे मायावती अब जमीनी स्तर पर संगठन को पुनर्जीवित करने पर जोर दे रही हैं।
UP News: उत्तर प्रदेश की राजनीति में कभी अपनी मजबूत पकड़ रखने वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) इन दिनों अपने सबसे कठिन दौर से गुजर रही है। चार बार प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने वाली बसपा प्रमुख मायावती की पार्टी अब अपने पारंपरिक दलित वोट बैंक को भी बचाने में संघर्ष कर रही है। हाल ही में नौ विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में बसपा का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा। पार्टी एक भी सीट जीतने में सफल नहीं हो पाई, जिससे बसपा प्रमुख मायावती की नेतृत्व क्षमता और पार्टी की रणनीति पर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं। यह स्थिति तब और गंभीर हो गई जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) ने बसपा से बेहतर प्रदर्शन कर दिखाया। इससे दलित वोट बैंक के बंटने और बसपा की राजनीतिक ताकत को चुनौती मिलने का संकेत मिलता है। मायावती ने इसे खतरे की घंटी के रूप में देखा है और अब पार्टी को पुनर्जीवित करने की रणनीति बनाने में जुट गई हैं।
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30 दिसंबर की अहम बैठक: जनाधार बचाने की कवायद
बसपा प्रमुख मायावती ने उपचुनाव की हार के कारणों पर विचार करने और संगठन की कमजोरियों को दूर करने के लिए 30 दिसंबर को पार्टी कार्यालय में एक महत्वपूर्ण बैठक बुलाई है। इस बैठक में प्रदेश स्तर के पदाधिकारी, मंडलीय कोऑर्डिनेटर और बामसेफ के जिलाध्यक्ष शामिल होंगे। सूत्रों के मुताबिक, बैठक का मुख्य एजेंडा बूथ स्तर पर संगठन को मजबूत करना और खिसकते जनाधार को वापस पाना है। मायावती मानती हैं कि पार्टी का आधार सिर्फ मजबूत संगठन से ही बचाया जा सकता है। यह भी संभावना है कि बैठक के बाद कुछ बड़े पदाधिकारियों पर कार्रवाई की जाएगी और नए चेहरों को जिम्मेदारियां सौंपी जाएंगी।
भविष्य की रणनीति: उपचुनावों से दूरी और संगठन पर जोर
उपचुनाव में मिली हार के बाद बसपा प्रमुख मायावती ने तुरंत यह एलान किया कि पार्टी भविष्य में कोई भी उपचुनाव नहीं लड़ेगी, जब तक कि चुनाव आयोग मतदान प्रक्रिया में सुधार के लिए ठोस कदम नहीं उठाता। उनका मानना है कि बार-बार हार से पार्टी के कार्यकर्ताओं और समर्थकों का मनोबल गिरता है। इसलिए, बसपा अब अपनी पूरी ऊर्जा 2027 के विधानसभा चुनावों और 2024 के लोकसभा चुनावों पर केंद्रित करेगी। इसके साथ ही, पार्टी ने हाल ही में प्रदेश के कई मंडल कोऑर्डिनेटरों को बदलकर संगठनात्मक बदलाव की प्रक्रिया शुरू कर दी है।
आजाद समाज पार्टी का प्रभाव: दलित वोट बैंक पर बढ़ती चुनौती
बसपा की मौजूदा स्थिति के लिए सबसे बड़ी चुनौती आजाद समाज पार्टी का उभरना है। चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में यह पार्टी तेजी से दलित समुदाय के बीच लोकप्रिय हो रही है। उपचुनावों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई क्षेत्रों में आजाद समाज पार्टी का प्रदर्शन बसपा से बेहतर रहा। इससे स्पष्ट होता है कि दलित वोट बैंक में सेंधमारी हो रही है. बहन जी के लिए यह स्थिति चिंताजनक है क्योंकि दलित वोट बैंक बसपा की राजनीति की रीढ़ माना जाता है।
बहन जी की नई भूमिका: संगठन की नई दिशा
इस बदले हुए राजनीतिक परिदृश्य में मायावती ने खुद पार्टी संगठन को मजबूत करने की जिम्मेदारी ली है। उन्होंने संकेत दिया है कि पार्टी अब जमीनी स्तर पर काम करेगी और बूथ स्तर पर कार्यकर्ताओं को सक्रिय बनाएगी। इसके लिए मंडल स्तर से लेकर बूथ स्तर तक पार्टी के ढांचे में बदलाव किया जाएगा। इसके साथ ही, पार्टी अपनी पारंपरिक रणनीतियों की समीक्षा कर नए तरीके अपनाने पर विचार कर रही है।
भविष्य की राह: चुनौती भरा सफर
बसपा के लिए यह वक्त बेहद नाजुक है। एक तरफ दलित वोट बैंक का विभाजन, दूसरी तरफ कमजोर संगठन और लगातार चुनावी हार ने पार्टी को बैकफुट पर ला दिया है। बहन जी के सामने अब न सिर्फ पार्टी के पुराने जनाधार को वापस पाने की चुनौती है, बल्कि नए वोटर्स को जोड़ने की भी जरूरत है। 30 दिसंबर की बैठक इस दिशा में पहला बड़ा कदम साबित हो सकती है। हालांकि, यह देखना बाकी है कि बहन जी की रणनीति कितना असर दिखा पाएगी और बसपा अपनी खोई हुई राजनीतिक ताकत को दोबारा हासिल कर पाएगी या नहीं।
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