भारत का राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग एक स्वायत्त विधिक संस्था है। इसकी स्थापना 12 अक्टूबर 1993 को हुई थी। इसकी स्थापना मानवाधिकार सरक्षण अधिनियम, 1993 के अन्तर्गत की गयी। यह आयोग देश में मानवाधिकारों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है।
राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की वेबसाइट के अनुसार भारत में साल 2021 मानवाधिकार उल्लंघन के एक लाख से ज़्यादा मामले दर्ज किए गए जो की गत वर्ष 2020 में दर्ज मामलों से 41.24 प्रतिशत ज़्यादा हैं।
पिछले पाँच सालों में दर्ज अपराध:
साल 2017 – 82,006 मामले
साल 2018 – 85,950 मामले
साल 2019 – 76,585 मामले
साल 2020 – 75,064 मामले
साल 2021 – 1,06,022 मामले
मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों में तेज़ी से हो रही वृद्धि चिंता का विषय है, लगातार मानव अधिकारों के हनन से लोगों से क़ानून और संविधान के प्रति असंतोष की स्थिति पैदा होती है। मानव के अधिकारों के उल्लंघन में पुलिस द्वारा जनता के अधिकारों की रक्षा ना किया जाना, जनता में पुलिस के प्रति असम्मान और भय को बढ़ावा दे रहा है। बहुत से राज्यों में पुलिस थानों में लोगों की हत्याओं के मामले सामने आना पुलिस की कार्य शैली पर सवालिया निशान लगा रही है।
उत्तर प्रदेश में सबसे ज़्यादा :
एनएचआरसी (NHRC) के अनुसार अकेले उत्तर प्रदेश में साल 2021 में चालीस हज़ार से ज़्यादा मामले दर्ज किए गए, जो किसी भी राज्य में दर्ज मामलों में सबसे ज़्यादा हैं। उत्तर प्रदेश की सरकार को इस तरफ़ ध्यान देने की ज़्यादा ज़रूरत है।
भारतीय संविधान सभी नागरिकों के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से कुछ बुनियादी अधिकार देता है। इन मौलिक अधिकारों की छह व्यापक श्रेणियों के रूप में संविधान में गारंटी दी जाती है जो न्यायोचित और न्यायालय में वाद योग्य हैं। बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने संवैधानिक उपचारों के अधिकार (अनुच्छेद 32-35) को संविधान के हृदय और आत्मा की संज्ञा दी है।
क्या हैं संवैधानिक मूल अधिकार जिनकी रक्षा करता है संविधान:
- समता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)
- स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)
- शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
- धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)
- संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29-30)
- संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)
अधिकारों का निलंबन: राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान (अनुच्छेद 20 और 21 प्रत्याभूत अधिकारों को छोड़कर) इन्हें निलंबित किया जा सकता है।
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भारत का संविधान किसी व्यक्ति को उनके मौलिक अधिकार के उल्लंघन या प्रतिबंधित होने की स्थिति में उनके प्रवर्तन (एंफोर्समेंट) के लिए सीधे भारत के सर्वोच्च न्यायालय में जाने में सक्षम बनाता है। इस प्रकार मौलिक अधिकार न्यायोचित (जस्टिशिएबल) हैं।
लेखक – जितेन्द्र गौतम
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