कोंकणा सेन ने महिलाओं के प्रति फिल्म इंडस्ट्री के व्यवहार को लेकर भी खुलकर अपनी बात कही और बताया कि कैसे महिलाओं को फर्नीचर की तरह इस्तेमाल किया जाता है। वही दूसरी ओर फिल्म सेट पर कौन कहां बैठेगा, किसे क्या खाना मिलेगा, किसका बाथरूम कहां होगा, यह सब जातिगत और वर्गीय पहचान पर आधारित होता है।
कोंकणा सेन शर्मा के द्वारा फिल्म इंडस्ट्री में जातिगत और लैंगिक भेदभाव को लेकर किए गए खुलासे ने एक बार फिर इस कड़वी सच्चाई को सामने ला दिया है कि भारतीय समाज के हर क्षेत्र में, चाहे वह कला और सिनेमा जैसा रचनात्मक उद्योग ही क्यों न हो, जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। खासकर दलित समुदाय के लोग, जिनका अस्तित्व सदियों से सामाजिक अन्याय और उत्पीड़न के बीच बंधा हुआ है, आज भी इस भेदभाव का सामना कर रहे हैं। यानी हम कह सकते है कि ये भेदभाव दलित समुदाय सदियों से झेल रहा है।
हर क्षेत्र में दलित उत्पीड़न
फिल्म इंडस्ट्री, जो कि बाहरी तौर पर ग्लैमर और चमक-दमक से भरी नजर आती है, उसके भीतर के अंधकारमय पहलू में भी वही पितृसत्तात्मक सोच और जातिगत भेदभाव की जड़ें दिखाई देती हैं, जिनका सामना दलित समुदाय लंबे समय से कर रहा है। कोंकणा का यह बयान केवल फिल्म इंडस्ट्री तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पूरे समाज में फैली उस मानसिकता की ओर इशारा करता है, जो जाति और वर्ग के आधार पर लोगों के साथ भेदभाव करती है।
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बॉलीवुड में जातिगत भेदभाव कोई नई बात नहीं है, लेकिन इस पर बात करना अब भी समाज के कई वर्गों में वर्जित माना जाता है। दलित समुदाय के लोग इस उद्योग में प्रवेश तो पाते हैं, लेकिन मुख्यधारा के सामने अपनी पहचान बनाना उनके लिए एक बड़ी चुनौती होती है। उन्हें अक्सर साइड रोल्स या निम्न श्रेणी के कामों तक ही सीमित रखा जाता है, और उनकी पहचान उनकी प्रतिभा के बजाय उनके जातिगत आधार पर की जाती है। जब कोंकणा सेन शर्मा ने इंडस्ट्री में जातिगत और वर्ग आधारित भेदभाव की बात की, तो उन्होंने इस सच्चाई को उजागर किया कि बॉलीवुड, जो बाहर से ग्लैमर और चमक-धमक का प्रतीक माना जाता है, भीतर से पितृसत्तात्मक और जातिगत भेदभाव से भरा हुआ है।
सब जातिगत और वर्गीय पहचान पर आधारित
इस भेदभाव की गहरी जड़ें फिल्म निर्माण प्रक्रिया में भी देखने को मिलती हैं। फिल्म सेट पर कौन कहां बैठेगा, किसे क्या खाना मिलेगा, किसका बाथरूम कहां होगा, यह सब जातिगत और वर्गीय पहचान पर आधारित होता है। यह समस्या केवल फिल्म सेट तक ही सीमित नहीं है, बल्कि पूरी इंडस्ट्री में एक अनकहा नियम बन चुका है। उच्च जाति के कलाकारों और तकनीशियनों को अधिक सम्मान और सुविधाएं दी जाती हैं, जबकि निम्न जाति या दलित समुदाय से आने वाले लोगों को हाशिए पर धकेल दिया जाता है। कई बार तो दलित कलाकारों को अपने नाम और पहचान छिपाने पर मजबूर होना पड़ता है, ताकि उन्हें काम मिल सके।
फिल्म इंडस्ट्री में महिलाओं को फर्नीचर की तरह इस्तेमाल किया जाता है
दलित महिलाओं के लिए तो यह स्थिति और भी विकट है। वे न केवल जातिगत भेदभाव का शिकार होती हैं, बल्कि लैंगिक उत्पीड़न का भी सामना करती हैं। कोंकणा सेन ने महिलाओं के प्रति फिल्म इंडस्ट्री के व्यवहार को लेकर भी खुलकर अपनी बात कही और बताया कि कैसे महिलाओं को फर्नीचर की तरह इस्तेमाल किया जाता है। अगर वे सीनियर एक्ट्रेस नहीं हैं, तो उनके साथ अत्यधिक उपेक्षापूर्ण और अमानवीय व्यवहार किया जाता है। दलित महिलाएं तो इस दोहरे उत्पीड़न का शिकार होती हैं – एक ओर उन्हें उनकी जाति के आधार पर दमन सहना पड़ता है और दूसरी ओर लिंग के आधार पर। वे फिल्म सेट पर सबसे अधिक असुरक्षित महसूस करती हैं, जहाँ उनके साथ बुरा बर्ताव करने वालों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं होती।
अपराधों की सही से रिपोर्टिंग नहीं होती
कोंकणा ने इस भेदभाव को रेखांकित करते हुए एक और महत्वपूर्ण पहलू पर रोशनी डाली, और वह है यौन उत्पीड़न के मामलों की अनदेखी। उन्होंने कहा कि सेट पर यौन उत्पीड़न के कई मामले दर्ज ही नहीं किए जाते, क्योंकि लोग डरते हैं। दलित महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न के मामले भी इसी प्रकार के होते हैं। अक्सर उनके साथ होने वाली हिंसा को नजरअंदाज कर दिया जाता है, क्योंकि उनका कोई प्रभावशाली समर्थन नहीं होता। उनके खिलाफ होने वाले अपराधों की सही से रिपोर्टिंग नहीं होती और न ही न्याय मिलता है।
हेमा समिति की रिपोर्ट ने किया सब स्पष्ट
मलयालम फिल्म इंडस्ट्री में हेमा समिति की रिपोर्ट के बाद यह और भी स्पष्ट हो गया है कि फिल्म उद्योग में यौन हिंसा और लैंगिक असमानता बड़े पैमाने पर मौजूद हैं। इस रिपोर्ट ने दिखाया कि किस तरह बड़े स्टार्स और शक्तिशाली लोग इस हिंसा में शामिल होते हैं और उनके खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं की जाती। इसी तरह, बॉलीवुड में भी दलित महिलाओं के खिलाफ हो रहे अत्याचारों को लेकर चुप्पी साधी जाती है। यह चुप्पी केवल इंडस्ट्री के भीतर ही नहीं, बल्कि पूरे समाज में व्याप्त है, जहाँ जातिगत भेदभाव को सामाजिक ढांचे का एक अनिवार्य हिस्सा माना जाता है।
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इस तरह के मुद्दों पर खुलकर बोलना बेहद महत्वपूर्ण
हालांकि, दलित समुदाय की संघर्ष की यह कहानी केवल दर्द और उत्पीड़न तक सीमित नहीं है। दलितों ने अपने अधिकारों के लिए हमेशा संघर्ष किया है और आज भी कर रहे हैं। उन्होंने शिक्षा, कला, राजनीति, और सामाजिक आंदोलनों के माध्यम से अपनी आवाज बुलंद की है। कई दलित कलाकारों ने अपने संघर्षों के बावजूद अपनी पहचान बनाई है और समाज के सामने यह साबित किया है कि प्रतिभा जाति की मोहताज नहीं होती। उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री में अपने योगदान के माध्यम से इस भेदभाव के खिलाफ लड़ाई लड़ी है और दूसरों को प्रेरित किया है।
कोंकणा सेन शर्मा जैसे लोगों का इस तरह के मुद्दों पर खुलकर बोलना बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे यह साबित होता है कि भले ही इंडस्ट्री में जातिगत और लैंगिक भेदभाव गहराई से व्याप्त है, लेकिन इसे चुनौती देने वाले लोग भी मौजूद हैं। यह जागरूकता और समर्थन ही दलित समुदाय और महिलाओं को सशक्त बनाएगा और इस उद्योग में बदलाव लाने में मदद करेगा।
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