दलित पैंथर: विचारधारा, बनने के कारण, ब्लैक पैंथर से प्रेरणा और मकसद।

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डॉ अम्बेडकर की विरासत का असली हकदार दलित पैंथर था
 
भारत में जब भी ज़मीनी स्तर पर सामाजिक बदलाव और सत्ता में बैठे हुकूमत को गहरी नींद में से उठाने की बात होती हैं तो दो विचारधारा याद आती हैं एक वामपंथी विचारधारा जिसने ज़मीन पर रहकर सामाजिक क्रान्ति की बागडोर संभाली और दुसरी विचारधारा हैं ‘दलित पैंथर’, कहने को तो ये एक क्रान्तिकारी संगठन था, लेकिन दलित पैंथर को एक विचारधारा इसलिए बोला जा सकता हैं क्योंकि इसने अम्बेडकर, फुले और मार्क्स के विचारों का संगम किया और उन्हीं के विचारों को मिलाकर दलित पैंथर का जन्म हुआ, दलित पैंथर के ज्यादातर युवाओं पर गौतम बुद्ध का भी प्रभाव था और वो प्रभाव संगठन में भी दिखता था। दलित पैंथर को एक विचारधारा के रूप में देखने का कारण एक ये भी हैं कि डॉ अम्बेडकर की मृत्यु के बाद डॉ अम्बेडकर के सपने और उनकी विचारधारा को सही मायनों में लागू करने का क्रान्तिकारी काम दलित पैंथर ने किया था और इसलिए दलित पैंथर को एक विचारधारा के रूप में देखना ग़लत नहीं होगा।
दलित पैंथर के बनने से पहले अम्बेडकरवादी संगठन डॉ अम्बेडकर की विरासत को संभालने में विफल साबित हों रहें थें और उस समय कई अम्बेडकरवादी संगठन स्थापित थें, लेकिन वो ज़मीनी स्तर पर पूर्ण रूप से सक्रिय नहीं थें वो सभी संगठन संसदीय राजनीति में घुल गए थें और अक्सर ऐसा देखा जाता हैं कि विरासत में मिलीं वस्तुओं का मोल नहीं किया जाता, लेकिन दलित पैंथर के कार्यकर्ता और प्रमुख नेता डॉ अम्बेडकर की विरासत को ज़मीन पर लागू कराना चाहते थें ताकि सही मायनों में सामाजिक बदलाव आ सकें। जब दलित पैंथर नहीं बना था तब जे. वि. पवार, जो दलित पैंथर के संस्थापकों में से एक थें, दुसरे अम्बेडकरवादी बहुजन संगठनों से जुड़े हुए थें। उस समय RPI यानी Republican party of India संसदीय राजनीति में काफ़ी सक्रिय था, जो डॉ अम्बेडकर द्वारा स्थापित Scheduled Cast Federation का हीं विकसित रूप था, RPI की स्थापना की घोषणा डॉ अम्बेडकर ने अपनी मृत्यु से पहले हीं कर दीं थीं, लेकिन 6 दिसम्बर 1956 को डॉ अम्बेडकर की मृत्यु हों जाती हैं, फिर बाद में RPI की स्थापना उनके समर्थकों और उनके अनुयायियों ने नागपुर में 3 अक्टूबर 1957 में की, शुरुआत में RPI का प्रदर्शन संसदीय राजनीति में काफ़ी बेहतरीन रहा और 9 लोग सांसद चुने गए दुसरी लोकसभा में, और यहीं से RPI की संसदीय राजनीति में पकड़ बनाने की शुरुआत हों चुकी थीं, लेकिन आगे जाकर RPI ज़मीनी संघर्ष में पकड़ नहीं बना पाई यानी देश में दलितों, महिलाओं आदि पर हों रहें अत्याचार का विरोध करना या पीड़ितों को न्याय दिलवाने के लिए ज़मीन पर उतरकर संघर्ष करना RPI का बस का नहीं रहा और ये हीं बात उस समय के कई अम्बेडकरवादी युवकों को नागवार गुजरती थीं और कईयों ने तो पार्टी को छोड़कर आगे जाकर अपने संगठन बना लिए थें और ऐसी हीं कुछ स्थिति आज बसपा और RPI अठावले (स्थापना 1999) जैसे आदि अम्बेडकरवादी संगठनों की हैं क्योंकि देश में आज भी जातिवादी घटना होती हैं, वंचितों और दलितों पर अत्याचार किए जाते हैं, कहीं मूंछें रखने पर मारा जाता हैं तो कभी सरकारी या सार्वजनिक नल से पानी पीने पर मारा जाता हैं, इन सब घटनाओं के बावजूद भी ये सभी दल इन जातिगत घटनाओं का विरोध करने ज़मीन पर दिखाई नहीं देते। एकाध नए युवा संगठन हैं जो ज़मीन पर दिखाई भी देते हैं और अन्याय का विरोध भी करते दिखते हैं लेकिन वो काफी नहीं हैं, ऐसी हीं कुछ स्थिति RPI की उस समय थीं। जैसे आज बसपा और RPI अठावले आदि संगठन संसदीय राजनीति में व्यस्त हैं वैसे हीं उस समय RPI भी व्यस्त था, कई कारणों में से एक ये भी कारण था कि दलित पैंथर की स्थापना की गई।

(दलित पैंथर की बैठक)

अमेरिका में ब्लैक पैंथर और भारत में दलित पैंथर
‘दलित पैंथर’ एक क्रान्तिकारी आन्दोलन था जिसका मकसद था सामाजिक सुधार और सामाजिक बदलाव और जाति-व्यवस्था पर आक्रमकता से प्रहार करना इसलिए दलित पैंथर के संस्थापकों ने इस संगठन की स्थापना करने के लिए प्रेरणा ली अमेरिका के ब्लैक पैंथर संगठन से। ये संगठन मार्क्स, लेनिन और माओ के विचारों पर आधारित एक आक्रमक कम्युनिस्ट संगठन था, जो काले लोगों के अधिकारों की वकालत करता था, इसकी स्थापना काॅलेज के छात्रों द्वारा 1966 में की गई थीं। इस संगठन मकसद था काले लोगों पर हों रहें अत्याचार, झुठे एन्काउन्टर, पुलिस के नस्लवादी रवैए आदि को खत्म करना।

(ब्लैक पैंथर के संस्थापक नेता)

(ब्लैक पैंथर के दस्ते)

(ब्लैक पैंथर के एक प्रमुख नेता का कथन)

(ब्लैक पैंथर के दस बिंदू प्रोग्राम)

ब्लैक पैंथर के दस्ते सड़कों पर हथियार और पैंथर का झंडा लेकर उतरते और मार्च करते और काले लोगों की सुरक्षा करते वहां की पुलिस से जो काले लोगों पर अत्याचार करती थीं। ब्लैक पैंथर के कार्यकर्ता लोगों को खाना बांटते थें और शिक्षा के प्रति जागरूक भी करते थें, ब्लैक पैंथर से कई देश के लोगों ने प्रेरणा ली उनमें से एक जे. वि. पवार भी थें, फर्क बस इतना था कि ब्लैक पैंथर एक आक्रमक वामपंथी दल था और दलित पैंथर पर ज्यादातर प्रभाव खासकर डॉ अम्बेडकर के विचारों (अम्बेडकरवादी संगठन) का था, जिसका मेन मकसद था भारत में जाति और वर्ण आधारित भेदभाव को मिटाना। सही मायनों में देखा जाएं तो डॉ अम्बेडकर की मृत्यु के बाद दलित पैंथर हीं था जिसने आक्रमकता से जाति-व्यवस्था पर हमला किया और दलित व वंचितों, किसानों, महिलाओं आदि के हकों की वकालत की। दलित पैंथर के कार्यकर्ता संघर्ष के लिए गांव-गांव घुमते थें और दलित वर्ग की समस्याओं पर गहन विचार करते और उन्हें कम करने की भी कोशिश करते।
इल्यापेरूमल समिति, दलितों पर बढ़ते अत्याचार और दलित पैंथर की स्थापना
 
क्रान्ति के लिए चिंगारी काफी होती हैं और वो चिंगारी थीं ‘इल्यापेरूमल समिति’ की रिपोर्ट। इस रिपोर्ट में दलितों पर हों रहें जातिगत अत्याचारों का लेखा-जोखा था और इसी रिपोर्ट को पढ़कर कई अम्बेडकरवादी युवक आग बबूला हुए और उनमें से कुछ युवकों में दलित पैंथर जैसे संगठन की स्थापना करने का सुझाव आया। ये समिति 1965 में सांसद इल्यापेरूमल (कांग्रेस के दलित नेता) के अध्यक्षता में बनी, ये समिति दलितों के साथ जातिगत भेदभाव और दलितों के लिए शिक्षा, आर्थिक, सामाजिक विकास पर केन्द्रित थीं। समिति ने सरकार को 1969 में रिपोर्ट सौंप दीं और फिर विपक्ष के कड़े विरोध के बाद 1970 में ये रिपोर्ट संसद में पेश की गई, रिपोर्ट में दलितों पर हों रहें अत्याचारों की कई घटनाओं का जिक्र था। इन घटनाओं में सम्मिलित था दलित महिलाओं के साथ सामूहिक दुष्कर्म, दलितों को होटल में घुसने की मनाही, बस स्टैंड पर खडे़ होने पर पिटा जाना, स्कूल में बच्चों को फर्श पर बैठने के लिए बोलना, मन्दिरों और चाय की दुकानों में प्रवेश करने की मनाही, अलग कप में चाय देना, दलितों के हाथ से प्रसाद लेने की मनाही, दलितों का गांव से दाना-पानी रोक देना व काम ढूंढने के लिए सड़कों पर चलने की मनाही (एक तरह से आर्थिक नाकेबंदी), दलित वर्ग के लोगों को पंचायत में चुनाव लड़ने से रोकना, नाई का दलितों के बाल काटने से मना करना, महिलाओं और मर्दों को गांव में नंगा घुमाना, दलितों को जिंदा जला देना, सार्वजनिक कुओं पर पानी पिने के कारण पिटा जाना, पुलिस द्वारा दलितों पर झूठे मुकदमे दर्ज करना व कस्टडी के दौरान आंखें निकाल लेना, दलित शिक्षक को कुर्सी पर बैठने की मनाही, सर्वणों की बस्तियों के आसपास की सड़कों पर चप्पल पहनकर चलने की मनाही आदि। ये सब दिल दहला देने वाली घटनाएं सिर्फ एक राज्य की नहीं थीं, बल्कि जम्मू-कश्मीर से लेकर केरल तक में दलितों के साथ ऐसी घटनाएं आम थीं। ऐसी घटनाओं के बावजूद भी RPI के प्रमुख नेता शांत बैठे रहें और ना इसके ख़िलाफ़ कोई ख़ास कदम उठाया गया और ये हीं रवैया कई लोगों को पसंद नहीं आया, उसमें से एक जे. वि. पवार भी थें (दलित पैंथर के संस्थापकों में से एक) कई अम्बेडकरवादी नेताओं की इसी चुप्पी के कारण जे. वि. पवार द्वारा 1972 में एक ब्यान जारी करते हुए कहा गया कि “महाराष्ट्र में जातिगत पूर्वाग्रह बेलगाम हों गए हैं और धनी किसान, सत्ताधारी और ऊंची जातियों के गुंडे जघन्य अपराध कर रहें हैं, इस तरह के अमानवीय जातिवादी तत्वों से निपटने के लिए मुंबई के विद्रोही युवकों ने एक नए संगठन ‘दलित पैंथर’ की स्थापना की हैं” (स्थापना: 29 मई 1972) इस क्रान्तिकारी संगठन में आगे जाकर कई युवक जुड़े, जिले स्तर पर अध्यक्ष चुने गए। दलित पैंथर जातिगत शोषण और महिला शोषण का विरोध प्रदर्शन करने में सबसे आगे रहता था, यहां तक कि जातिगत हिंसा का विरोध करने के कारण जेल जाने में भी इस दल के युवक नहीं डरते थें। दलित पैंथर के संस्थापकों की बात करे तो माना जाता हैं कि संस्थापक नामदेव ढसाल, अरूण कांबले, जे. वि. पवार और राजा ढाले थें, लेकिन जे. वि. पवार अपनी एक किताब में बताते हैं कि “कई लोगों ने आगे जाकर ‘दलित पैंथर’ के संस्थापक होने का दावा किया लेकिन सच तो ये है कि संगठन की नींव (स्थापना) मैंने (जे. वि. पवार) और नामदेव ढसाल ने रखी थीं।

(संघर्ष के दौरान जे. वि. पवार की गिरफ्तारी की एक           तस्वीर)

(राजा ढाले)

(नामदेव ढसाल)

(अरूण कांबले)

 अम्बेडकरवादियो और कम्युनिस्टों में मतभेद
 
अमेरिका में ब्लैक पैंथर की लड़ाई वर्ग संघर्ष की थीं और दलित पैंथर के प्रमुख नेताओं का कहना था कि हमारे लिए वर्ण संघर्ष अधिक महत्वपूर्ण हैं। आजादी से पहले की बात करें तो एस. ए. डांगे (एक कम्युनिस्ट नेता) और डॉ अम्बेडकर के बीच में विचारों को लेकर मतभेद थें। कम्युनिस्टों का मानना था कि श्रमिकों और किसानों का दुश्मन पूंजीवाद हैं लेकिन डॉ अम्बेडकर का मानना था कि श्रमिकों और किसानों के दो दुशमन हैं, ब्राह्मणवाद (ब्राह्मण लोग नहीं) और पूंजीवाद।
ऐसे हीं कई मतभेदों के कारण डॉ अम्बेडकर ने कम्युनिस्ट पार्टी या किसी और संगठन में ना जाकर अपनी पार्टी इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (ये हीं आगे जाकर Scheduled Cast Federation बना) की स्थापना की, आगे आजादी के बाद भी अम्बेडकरवादियों और कम्युनिस्टों में मतभेद जारी रहें लेकिन दलित पैंथर ने इन मतभेदों को पाटने की कोशिश जरूर की, यहां तक कि दलित पैंथर से कुछ कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट विचारधारा वाले बुद्धिजीवी लोग भी जुड़े हुए थें, इसके बावजूद भी दलित पैंथर और कम्युनिस्टों में विचारधारा के तहत् काफी मतभेद तो थें हीं, मतभेद पूरी तरह खत्म तो नहीं हुएं, लेकिन कम जरूर हुएं।
दलित पैंथर छात्रों, महिलाओं, किसानों और वंचितों का मसीहा था
 
सही मायनों में देखा जाएं तो दलित पैंथर ने दलित शब्द, जो जाति के लिए इस्तेमाल किया जाता था, को उस वर्ग के रूप में स्थापित किया जो वर्षों से पीड़ित हैं। दलित शब्द का अर्थ होता हैं ‘टूटा हुआ’ और दलित पैंथर ने उन सब के लिए काम किया जो राजनीतिक शोषण और सामाजिक शोषण के कारण टूटे हुए थें। दलित पैंथर ने गरीब कामगार, वंचित लोग, भूमिहीन, गरीब किसान, छात्रों, सरकारी कर्मचारियों, महिलाओं और उन सब के लिए काम किया जो धर्म आधारित शोषण, बड़े जमींदार, पूंजीपति, साहूकार आदि लोगों से पीड़ित थें। दलित पैंथर महिलाओं के शोषण का कट्टर विरोधी था, जब किसी महिला से छेड़छाड़ की ख़बर आती तो जे. वि. पवार और उनके पैंथर पीड़िता से मिलते और पुलिस पर गुंडों के खिलाफ कार्यवाही करने का दबाव तक बनाते और कार्यवाही ना होने पर विरोध प्रदर्शन करने की धमकी भी देते। जब पुलिस द्वारा काले लोगों पर हिंसा होती तो ब्लैक पैंथर पुलिस को उसी की भाषा में जवाब देता था वैसे हीं दलित पैंथर भी जैसे को तैसा देना जानता था, “यानी ईंट का जवाब पत्थर से”।

( जे. वि. पवार और ब्लैक पैंथर की पूर्व नेता एंजेला             डेविस)

एक बार एक वंचित किसान की भूमी पर कब्जा कर लिया जाता हैं तथाकथित उच्च जाति के लोगों द्वारा, दलित पैंथर को इस बात का पता चलते हीं दलित पैंथर के कार्यकर्ता उस गांव में पहुंचते हैं और गांव में पहुंचते हीं, वहां पर गांव के लोग क़ब्जे करने वाले के समर्थन में आ जाते हैं और फिर दलित पैंथर के कार्यकर्ता बोलते हैं कि “अगर दोपहर तक उसने जमीन पर कब्जा नहीं छोड़ा तो दलित पैंथर उस ज़मीन को जबरदस्ती छीनकर उसके असली मालिक को सौंप देगा और किसी ने रोकने की कोशिश की तो उससे होने वाले नुक़सान का जिम्मेदार वो खुद होगा” दलित पैंथर अन्याय के खिलाफ हर वो हर पैंतरा इस्तेमाल करता था जो उसे ठीक लगता था, जैसे पुलिस को FIR लिखने के लिए दवाब डालने से लेकर मुख्यमंत्री को ज्ञापन सौंपने और विरोध व्यक्त करने के लिए चुनावों का बहिष्कार करने तक, दलित पैंथर का हर विरोध संविधान और लोकतंत्र के दायरों में हीं होता था।
दलित पैंथर ने अपने जीवनकाल में कई कारनामें किए महिलाओं, छात्रों, किसानों, वंचितों की हकों की लड़ाई लड़ी। अफसोस दलित पैंथर का जीवनकाल 5 साल का हीं रहा “ब्लैक पैंथर भी ज्यादा समय तक नहीं चल पाया” ब्लैक पैंथर के नेताओं में मतभेद उभरे और यहीं कारण दलित पैंथर के समाप्ति का भी था। दलित पैंथर के नेताओं में मतभेद होने के कारण संगठन को बन्द करना पड़ा, जिस समय दलित पैंथर सक्रिय था उस समय कांग्रेस सत्ता में थीं और उस समय भी दलितों व वंचितों पर अत्याचार काफ़ी होते थें और आज जब भाजपा सत्ता में हैं तो आज भी दलितों और वंचितों पर अत्याचार बिल्कुल भी रूकें नहीं हैं और इसी कारण आज भी कई लोगों की मांग रहतीं हैं कि काश दलित पैंथर आज भी सड़कों पर अन्याय के खिलाफ संघर्ष करते दिखाई देता, सही मायनों में देखा जाएं तो डॉ अम्बेडकर के सपनों को सच बनाने की पुरजोर कोशिश दलित पैंथर ने की थीं।

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