अमेरिका को क्यों बनाना पड़ा जातिवाद के विरूध कानून..?

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अमेरिका के सिएटल शहर में जातिगत भेदभाव को प्रतिबंधित करने वाला पहला शहर बना गया है। जी हां 21 फरवरी यानी बीते मंगलवार को सिएटल सिटी काउंसिल ने शहर के भेदभाव-विरोधी कानून में जाति के आधार पर हो रहे भेदभाव को शामिल करने के पक्ष में मतदान किया। इतिहास में यह पहली बार है जब अमेरिका के किसी शहर ने जाति आधारित भेदभाव को दूर करने के खिलाफ कानून बनाया है।

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यह कदम विशेषकर शहर के दक्षिण एशियाई प्रवासियों, विशेष रूप से भारतीय और हिंदू समुदायों को प्राथमिकता देते हुए बनाया गया। इस विषय पर भारतीय-अमेरिकी सिएटल सिटी काउंसिल की सदस्य क्षमा सावंत ने कहा, जातिगत भेदभाव के खिलाफ लड़ाई सभी प्रकार के उत्पीड़न से जुड़ी हुई है।

 

 

जाति व्यवस्था हजारों साल पहले की है और उच्च जातियों को कई विशेषाधिकार देती है, लेकिन निचली जातियों का दमन करती है। दलित समुदाय भारतीय जाति व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर हैं। सावंत ने कहा, जातिगत भेदभाव केवल अन्य देशों में ही नहीं होता है, बल्कि इसका सामना दक्षिण एशियाई अमेरिकी और अन्य अप्रवासी कामकाजी लोगों को करना पड़ता है, जिसमें सिएटल और अमेरिका के अन्य शहर शामिल हैं।

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आपको बता दे कि भारत में जातिगत भेदभाव को 70 साल पहले गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था, लेकिन आज भी स्तिथि ज्यों की त्यों बनी हुई है और जातिगत पूर्वाग्रह बने हुए है। बीते कई अध्ययनों के अनुसार निम्न जातियों के लोगों को उच्च वेतन वाली नौकरियों में कम प्रतिनिधित्व मिला। सिएटल सिटी काउंसिल में क्षमा सावंत ने इस प्रस्ताव को पेश किया। जिसके बाद वोटिगं की प्रक्रिया की गई। वोटिंग में प्रस्ताव के पक्ष में 6 और विरोध में एक वोट पड़ा।
प्रस्ताव पास होने के बाद क्षमा सावंत ने कहा, “हमें ये समझने की जरूरत है कि भले ही अमेरिका में दलितों के खिलाफ भेदभाव उस तरह नहीं दिखता जैसा कि दक्षिण एशिया में दिखता है, लेकिन यहां भी भेदभाव एक सच्चाई है।”

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भारत में जाति प्रथा हजारों साल से जारी है. वैसे 1948 में ही भारत ने जातिगत भेदभाव को अपराध की श्रेणी में डाल दिया था और 1950 में लागू हुए संविधान में भी इस संबंध में कानून को शामिल किया गया. लेकिन भारत में जाति के आधार पर शोषण और भेदभाव की घटनाएं सरेआम होती हैं.
इतना ही नहीं, यह प्रथा अब भारत की सीमाएं पार कर यूरोप, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया तक भी पहुंच चुकी है. अमेरिका में रहने वाला दक्षिण एशियाई समुदाय भी जातियों में बंटा हुआ है. दलित कार्यकर्ता कहते हैं कि भारतीय और अन्य दक्षिण एशियाई देशों के प्रवासियों में जाति प्रथा आम है जिसका असर सामाजिक संबंधों से लेकर घर किराये पर देने और शिक्षा व तकनीकी क्षेत्रों की नौकरियों तक में नजर आता है.

 

नफरत को मिटाने के लिए सिएटल में जातिगत भेदभाव पर प्रतिबंध लगाने के लिए हां में मतदान करने के लिए प्रेरित करता सिएटल सिटी का एक व्यक्ति (image : twitter)

 

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आपको बता दें कि अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों की आबादी अप्रवासियों में दूसरे नंबर पर है।माइग्रेशन पॉलिसी इंस्टीट्यूट के मुताबिक, 1980 में अमेरिका में 2,06,000 अप्रवासी भारतीय रहते थे, जिनकी संख्या 2021 में बढ़कर 27 लाख हो गई। अमेरिकन कम्युनिटी सर्वे में तो यह संख्या और भी ज्यादा बताई गई है। इस सर्वे के 2018 के आंकड़ों में अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों की संख्या करीब 42 लाख बताई गई थी। साउथ एशियन अमेरिकंस लीडिंग टुगेदर नामक संगठन के मुताबिक अमेरिका में इस वक्त करीब 54 लाख से भी अधिक दक्षिण एशियाई रहते हैं. इनमें से अधिकतर लोग बांग्लादेश, भूटान, भारत, श्रीलंका, नेपाल और पाकिस्तान से आते हैं.

 

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इक्विटी लैब्स नाम के एक संगठन के अमेरिका में रह रहे 1,500 दक्षिण एशियाई लोगों एक सर्वे के अनुसार 67 प्रतिशत दलितों को ऑफिस में जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा, वहीं करीब 40 प्रतिशत छात्रों को यह भेदभाव झेलना पड़ा। 40 प्रतिशत दलितों को पूजा स्थलों में जाने पर असहज महसूस कराया गया। ऐसे में जातिगत भेदभाव को खत्म करने के लिए यह कानून बनाना अति आवश्यक था। लेकिन सवाल यह है कि अमेरिका को यह कानून बनाने की जरुरत क्यों महसूस हुई आखिर यह जाति आधारित भेदभाव वहां कैसे और कहां से पहुंचा.

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