दलित अत्यचार के ये आंकड़े UP सरकार के दलित हितैषी होने के दावे की खोल रहे हैं पोल

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इस वक्त योगी आदित्यनाथ शासित उत्तर प्रदेश दलितों के लिए एक ऐसा राज्य बन चुका है, जहां दलित होना ही उनका सबसे बड़ा गुनाह बन चुका है। कदम कदम पर उन्हें न सिर्फ दलित होने का अहसास कराया जाता है, बल्कि अपने अधिकारों—हकों और बराबरी की चाहत रखने की कीमत उन्हें अपनी जान देकर भी चुकानी पड़ती है।

ताजा मामला रामपुर से सामने आया है, जहां एक दलित बच्चे की हत्या कर दी गयी, वजह भी दो समुदायों के बीच हुआ विवाद और विवाद का कारण था ग्राम समाज की भूमि पर बाबा साहेब अंबेडकर पर लगी मूर्ति। जातिवादियों को दलितों के मसीहा बाबा साहेब की तस्वीर इतनी खली कि दबंगों ने पुलिस को भी अपने पक्ष में कर लिया और पुलिस पहुंच गयी मौकास्थल पर बुल्डोजर लेकर, क्योंकि दलित वहां अंबेडकर पार्क बनाना चाहते थे। इसी विवाद के बाद पुलिस की गोली का शिकार हो गया 10वीं में पढ़ने वाला दलित छात्र सुमेश।

हालांकि लोगों का गुस्से को देख खानापूर्ति के लिए उप जिलाधिकारी समेत 25 पर FIR दर्ज कर दी गयी है, मगर जिन पुलिसवालों का नाम लेकर मृतक का भाई और उसके परिजन गोली चलाने की बात कह रहे हैं उस पर कोई भी एक्शन नहीं लिया गया है, ना ही प्रशासन से सवाल किया गया है कि आखिर क्यों फायरिंग की गयी और किसके कहने पर की गयी।

यूपी में दलित उत्पीड़न पहली बार नहीं हो रहा है, न ही किसी दलित की जान को इतना सस्ता पहली बार समझ लिया गया है, बल्कि उन्हें इंसान ही नहीं समझा जाता। योगी के यूपी में एक इलाका ऐसा भी है, जहाँ पिछले 6 सालों में दलित उत्पीड़न के जितने मामले सामने आए हैं, शायद ही देश के किसी अन्य इलाके में सामने आये हों।

हम बात कर रहे हैं यूपी के कानपुर की, जहां बीते दो महीने में दलित उत्पीड़न के आंकड़ों ने चौका कर रख दिया है। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक इस साल 27 फरवरी तक कानपुर में 582 दलित उत्पीड़न के मामले सामने आ चुके हैं। वहीं अगर कानपुर का पिछले 5 से 6 सालों का रिकॉर्ड देखें तो 2017 से 2018 में 172 मामले, 2018 से 2019 में 422 मामले, 2019 से 2020 में 498 मामले, 2020 से 2021 में 398 मामले, 2021 से 2022 में 461 मामले, 2022 से 2023 में 621 मामले, और 2023 से 2024 में 562 मामले दलित उत्पीड़न के सामने आ चुके हैं।

सबसे ज्यादा झेलना पड़ता है भेदभाव

बता दें कि दलित उत्पीड़न के मामलों में समाज कल्याण विभाग द्वारा मदद राशि दी जाती है, लेकिन सवाल ये है कि क्या ये मदद राशि इस भेदभाव को कितना कम करती है कि जो रोज देश में कहीं न कहीं दलित यानी अनुसूचित समाज का व्यक्ति झेलता है। हमारे देश में सबसे ज्यादा भेदभाव जाति देखकर किया जाता है। इस भेदभाव में छुआछूत, जातिसूचक गालियाँ देना, साथ में न बैठने देना, छुआ हुआ पानी ना पीना या अपने नल से पानी ना पीने देना जैसी घटनाएं हैं।
हालांकि इन सभी को रोकने के लिए जरूरी कानून बनाए गए हैं जैसे कानून के समक्ष समानता, भेदभाव का निषेध, अवसर की समानता, अस्पृश्यता उन्मूलन, शैक्षणिक और सामाजिक आर्थिक हितों को बढ़ावा देना, अनुसूचित जाति के दावे, विधानमंडल में आरक्षण और स्थानीय निकायों में आरक्षण देने का प्रावधान किया है, लेकिन दुख की बात ये है कि इतने कानून होने के बाद भी दलित उत्पीड़न और अत्याचार लगातार बढ़ता जा रहा है।

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