मनुस्मृति ऐसा हिंदू ग्रंथ है, जो जाति उत्पीड़न को संस्थागत बनाता था. निचली जातियों, विशेषकर दलितों और महिलाओं के शोषण और भेदभाव को उचित ठहराता था.
Manusmriti controversy in delhi University : दिल्ली यूनिवर्सिटी (DU) के फैकल्टी ऑफ लॉ ने अपने अंडरग्रैजुएट प्रोग्राम में ‘मनुस्मृति’ को शामिल करने का प्रस्ताव रखा था। ‘मनुस्मृति’ एक प्राचीन धार्मिक ग्रंथ है, जिसे हिन्दू धर्म के एक महत्वपूर्ण शास्त्र के रूप में माना जाता है। परंतु इसके कई श्लोक महिलाओं और पिछड़े समुदाय के प्रति आपत्तिजनक माने जाते हैं। इस प्रस्ताव के विरोध के बाद, विश्वविद्यालय ने इसे वापस ले लिया है।
कुलपति योगेश सिंह का बयान
दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर योगेश सिंह ने एक वीडियो बयान में कहा कि फैकल्टी ऑफ लॉ के प्रस्ताव को काफी विचार के बाद रिजेक्ट कर दिया गया है। उन्होंने बताया,
“आज दिल्ली विश्वविद्यालय को फैकल्टी ऑफ लॉ का एक प्रस्ताव आया था जिसमें न्याय शास्त्र (Jurisprudence) के पेपर में थोड़े से बदलाव किए गए थे। इनमें से एक बदलाव ‘मेधातिथि- कॉन्सेप्ट ऑफ स्टेट एंड लॉ’ को शामिल करने का था। इसको पढ़ाने के लिए ‘मनुस्मृति विद द मनुभाष्य’ और ‘कमेंट्री ऑफ मनुस्मृति’ दो टेक्स्ट दिए गए थे। यह प्रस्ताव दिल्ली विश्वविद्यालय ने खारिज कर दिया है।”
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कुलपति योगेश सिंह ने यह स्पष्ट किया कि दिल्ली विश्वविद्यालय में ऐसा कुछ भी नहीं पढ़ाया जाएगा जो समाज के किसी भी वर्ग के प्रति आपत्तिजनक हो। उन्होंने यह भी कहा कि फैकल्टी ऑफ लॉ के प्रस्ताव को बहुत सोच-समझकर खारिज कर दिया गया है।
फैकल्टी ऑफ लॉ पढ़ाना चाहता है मनुस्मृति :
पिछले महीने फैकल्टी ऑफ लॉ की कोर्स कमिटी की बैठक में इस प्रस्ताव का निर्णय लिया गया था। इस बैठक की अध्यक्षता फैकल्टी ऑफ लॉ की डीन प्रोफेसर अंजू वाली टिकू ने की थी। इस संशोधित सिलेबस को 12 जुलाई को यूनिवर्सिटी की एकेडेमिक काउंसिल के सामने पेश किया जाना था।
क्यों हुआ विरोध :
फैकल्टी ऑफ लॉ के इस प्रस्ताव का कड़ा विरोध हुआ। सोशल डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट (SDTF) ने डीयू के कुलपति योगेश सिंह को पत्र लिखा था और मनुस्मृति के विचारों को महिलाओं और पिछड़े समुदाय के प्रति आपत्तिजनक बताया। SDTF का मानना था कि यह प्रस्ताव प्रगतिशील शिक्षा व्यवस्था के खिलाफ है और इसे तुरंत वापस लिया जाना चाहिए। उनके अनुसार, मनुस्मृति के कई श्लोक महिलाओं की शिक्षा और समान अधिकारों के खिलाफ लिखे गए हैं, और इसे लागू करना भारतीय संविधान के सिद्धांतों के खिलाफ होगा।
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SDTF ने अपने पत्र में कहा था कि “मनुस्मृति के किसी भी हिस्से को लागू करना भारतीय संविधान के सिद्धांतों के खिलाफ है। हम मांग करते हैं कि इस प्रस्ताव को तुरंत वापस लिया जाए और इसे एकेडेमिक काउंसिल की मीटिंग में मंजूरी नहीं मिलनी चाहिए।”
मनुस्मृति को विवादित क्यों माना जाता है?
मनुस्मृति एक प्राचीन हिन्दू धर्मशास्त्र है, जिसे मनु ने लिखा था। यह ग्रंथ हिन्दू समाज के लिए धार्मिक और सामाजिक नियमों का संग्रह है। मनुस्मृति को विवादित इसलिए माना जाता है क्योंकि इसमें वर्ण व्यवस्था और जाति आधारित भेदभाव को समर्थन दिया गया है। इसके कई श्लोक महिलाओं और निम्न जातियों के प्रति अपमानजनक माने जाते हैं। उदाहरण के लिए, इसमें महिलाओं को पुरुषों के अधीन बताया गया है और उनके स्वतंत्र अधिकारों पर पाबंदी लगाई गई है। निम्न जातियों के लोगों को भी अपमानित और शोषित करने के प्रावधान हैं।
डॉ. भीमराव अंबेडकर और मनुस्मृति
डॉ. भीमराव अंबेडकर, जो भारतीय संविधान के निर्माता थे और दलितों के अधिकारों के प्रखर समर्थक थे, ने 25 दिसंबर 1927 को अपने समर्थकों के साथ मनुस्मृति का दहन किया था। यह घटना महाराष्ट्र के महाड में हुई थी। इस दहन का उद्देश्य जातिवाद और सामाजिक अन्याय के खिलाफ विरोध करना था। अंबेडकर का मानना था कि मनुस्मृति में वर्णित नियम और कानून दलितों और महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन करते हैं और भारतीय समाज में विषमता और भेदभाव को बढ़ावा देते हैं।
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संविधान और मनुस्मृति
भारत के संविधान ने मनुस्मृति में वर्णित भेदभावपूर्ण प्रावधानों को स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया है। संविधान ने सभी नागरिकों को समान अधिकार प्रदान किए हैं और जाति, धर्म, लिंग, और अन्य किसी भी प्रकार के भेदभाव को असंवैधानिक घोषित किया है। इसके बावजूद, मनुस्मृति के प्रभाव को पूरी तरह से समाप्त करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य रहा है। समाज में जाति आधारित भेदभाव और महिलाओं के अधिकारों के उल्लंघन के मामले अभी भी सामने आते रहते हैं।
मनुस्मृति दहन दिवस
अंबेडकर के अनुयायी हर साल 25 दिसंबर को ‘मनुस्मृति दहन दिवस’ के रूप में मनाते हैं। इस दिन वे मनुस्मृति की प्रतियों को जलाते हैं और जातिवाद और सामाजिक अन्याय के खिलाफ अपने विरोध को प्रकट करते हैं। यह दिवस उनके लिए समाज में समानता और न्याय की स्थापना के प्रति अपने संकल्प को दोहराने का एक अवसर होता है।
मनुस्मृति के प्रति विरोध और इसकी आलोचना आज भी जारी है। कई सामाजिक संगठनों और दलित समूहों ने मनुस्मृति के विचारों के खिलाफ आवाज उठाई है और इसे पूरी तरह से खारिज करने की मांग की है। वे मानते हैं कि जब तक समाज मनुस्मृति जैसे ग्रंथों के विचारों से मुक्त नहीं होता, तब तक वास्तविक सामाजिक न्याय और समानता स्थापित नहीं की जा सकती।
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राजस्थान उच्च न्यायालय में मनु की मूर्ति
राजस्थान उच्च न्यायालय में मनु, जो मनुस्मृति के निर्माता माने जाते हैं, की एक मूर्ति स्थापित है। यह मूर्ति भी विवाद का कारण बनी हुई है। कई सामाजिक और दलित संगठनों ने इसे हटाने की मांग की है क्योंकि वे इसे जातिवाद और भेदभाव का प्रतीक मानते हैं। उनका मानना है कि इस मूर्ति की उपस्थिति न्याय के मंदिर में असमानता और अन्याय के विचारों को स्थापित करती है। अब देखना यह है कि उस मूर्ति के लिए क्या फैसला निकला जाता है।
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