एक बार फिर चर्चा में आई सूर्य की फिल्म जयभीम, ऑस्कर के यूट्यूब चैनल में बनाई जगह

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साल 2021 में रिलीज़ हुई फिल्म जयभीम ने लोगों के बीच काफ़ी लोकप्रिय रही थी जयभीम ने आते ही सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए थे। दर्शकों ने फिल्म की कहानी से लेकर इसके सभी कलाकारों को भी बेहद पसंद किया था। फिल्म जयभीम ने IMBD से लेकर GOOGLE के सर्च इंजन में टॉप पर रहने के बाद जयभीम एक बार फिर चर्चा में आ गई है। फिल्म जय भीम ने ऑस्कर के यूट्यूब चैनल में अपनी जगह बना ली है। इस फिल्म को एकेडमिक अवार्ड के यूट्यूब चैनल पर दिखाया गया है। जय भीम पहली तमिल फिल्म है जिसे अकादमी द्वारा ऐसा सम्मान मिला है और सूर्या यह उपलब्धि हासिल करने वाले पहले तमिल प्रमुख स्टार और निर्माता दोनों बन गए हैं।

जैसे ही यह खबर सामने आई, सूर्या के प्रशंसकों ने फिल्म की टीम के लिए बधाई संदेशों के साथ ‘जय भीम’ ट्विटर पर ट्रेंड करने लगा। बता जयभीम ऐसी तमिल फिल्म है, जो हाशिए के लोगों की वास्तविक जीवन की कठिनाइयों पर केंद्रित है,साथ ही वर्ष की सबसे अधिक खोजी जाने वाली फिल्म भी रही है।

यह दूसरा सम्मान है जो जय भीम को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर मिला है, जब ‘सीन एट द एकेडमी’ ने दूसरे दिन अपने आधिकारिक यूट्यूब चैनल पर फिल्म की एक क्लिप दिखाने का फैसला किया। टीजे ज्ञानवेल द्वारा निर्देशित, और लिजोमोल जोस, राजिशा विजयन, के मणिकंदन, और सीन रोल्डन सहित अन्य अभिनीत, जय भीम एक ऐसी फिल्म है जो भारत में आदिवासी समुदायों के उत्पीड़न के बारे में बात करती है। कहानी वास्तविक जीवन की घटनाओं से प्रेरित है और सूर्या एक वास्तविक जीवन वकील चंदू का किरदार निभाते हैं, जिन्होंने जीवन भर आदिवासी अधिकारों के लिए संघर्ष किया

जयभीम कहानी

‘जय भीम’ मद्रास हाईकोर्ट के जज रहे जस्टिस चंद्रा के उस चर्चित मामले पर आधारित है जो उन्होंने अपनी वकालत के दिनों में लड़ा। हालांकि, असल में ये मामला कुरवा जनजाति के लोगों के उत्पीड़न का था।फिल्म ‘जय भीम’ को अपनी असल कहानी पर आने में थोड़ा वक्त लगता है। फिल्म पहले आदिवासी जनजाति के लोगों की जीवन शैली की तरफ ध्यान खींचती है। ये लोग खेतो में फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले चूहों को पकड़ते हैं और घरों में निकले विषैले सांपों को पकड़कर वापस जंगलों में छोड़ देते हैं। घर में निकले एक सांप को पकड़ने गए एक आदिवासी पर उस घर के लोग चोरी का आरोप लगा देते हैं।

फिल्म शुरू होते वक्त दिखाया जाता है कि कैसे आपराधिक मामलों की कागजी खानापूर्ती करने के नाम पर पुलिस निर्दोष लोगों को जेल से रिहा होते वक्त ही फिर से पकड़कर हवालातों में डाल देती है। असरदार के घर चोरी को सुलझाने का दबाव पड़ने पर निर्दोषों की पुलिस हिरासत में बेरहमी से पिटाई होती है और एक दिन पुलिस हिरासत से तीन लोग लापता हो जाते हैं। लापता होने वाले एक आदिवासी की गर्भवती पत्नी अपने पति को खोजते खोजते एक ऐसे वकील के पास पहुंच जाती है जिसके लिए कानून वह इकलौता हथियार है जिसके जरिये शोषितों और वंचितों का इंसाफ दिलाया जा सकता है।

कहानी का नायक एक ऐसे सिस्टम के खिलाफ जंग छेड़ता है जहां इन आदिवासियों के वोटर कार्ड तक बन पाना दूभर है। मामला परत दर परत खुलना शुरू होता है तो थाने से लेकर पुलिस महानिदेशक तक सबकी कुर्सी हिलने लगती है। पीड़ित को खरीदने की कोशिश होती है। वकील पर दबाव पड़ता है लेकिन मार्क्स और लेनिन के विचारों को मानने वाला अंबेडकर का ये अनुयायी अपनी लड़ाई जारी रखता है।

काफी उतार चढ़ाव के बाद आखिरकार जस्टिस चंद्रू की जीत हुई और सेंगई को न्याय मिल गया. 2006 में मद्रास हाईकोर्ट ने राजकन्नू की मौत के लिए पांच पुलिसकर्मियों को दोषी करार दिया. ये भी साबित हुआ कि पुलिस डायरी में दर्ज रिपोर्ट बदल दी गई थी और पुलिस ने जाली दस्तावेज़ तैयार किए थे. इस केस पर फैसला आने और दोषियों को सजा मिलने में 13 साल का समय लग गया. दोषी पुलिसकर्मियों को आजीवन कारावास और एक डॉक्टर जिसने पुलिस के कहने पर झूठी गवाही दी थी, को तीन साल जेल की सज़ा सुनाई गई।

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