ईडब्ल्यूएस यानी सवर्ण गरीबों के आरक्षण को बीजेपी अपनी बड़ी उपलब्धि के तौर पर देखती है. 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले ईडब्ल्यूएस आरक्षण लाकर बीजेपी ने सवर्ण तुष्टीकरण का बड़ा दांव चला था, जो सफल भी रहा. लेकिन ईडब्ल्यूएस यानी गैर- SC/ ST/ और OBC गरीबों को दिए गए इस आरक्षण की तह तक जाएंगे तो पता चलेगा कि इसका आधार कांग्रेस ने बनाया था.
दरअसल, आर्थिक रूप से कमजोर सामान्य वर्ग के लोगों को 10% आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को मुहर लगा दी। इस फैसले का फायदा सामान्य वर्ग के लोगों को शिक्षा और सरकारी नौकरी में मिलेगा। 5 न्यायाधीशों में से 3 ने इकोनॉमिकली वीकर सेक्शन (EWS) रिजर्वेशन पर सरकार के फैसले को संवैधानिक ढांचे का उल्लंघन नहीं माना।
लेकिन क्या सवर्ण आरक्षण बिल संवैधानिक है? इस सवाल का जवाब देने से पहले यह जान लेते हैं की कैसे सवर्ण आरक्षण का आधार कांग्रेस शासन में तैयार हुआ और आखिर क्या है सिन्हो कमीशन की रिपोर्ट –
साल 2006 में यूपीए सरकार के अर्न्तगत एसआर सिन्हो आयोग का गठन किया गया था। इसने 2010 में अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि कुछ राज्यों में सामान्य श्रेणी और ओबीसी की निरक्षरता दर ‘लगभग समान’ है।
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हालांकि सामान्य जातियों में अशिक्षा की स्थिति SC /ST/OBC की तुलना में कम है। जबकि सामान्य वर्ग की सामाजिक-आर्थिक स्थिति SC-ST से बहुत आगे थी और OBC से बेहतर थी। सिन्हो आयोग की रिपोर्ट के आधार पर कैबिनेट नोट में कहा गया कि शिक्षा, व्यवसाय, भूमि जोत, स्वास्थ्य और आवास जैसे कई मापदंडों पर औसत ओबीसी की तुलना में सामान्य वर्ग की स्थिति या तो उसके बराबर है या उससे खराब है।
पांच न्यायधिशो में से 2 ने सवर्ण आरक्षण को अवैध और गैरबराबरी वाला बताया। तो वहीं जस्टिस रविंद्र भट्ट ने 2006 में सामान्य जातियों में आर्थिक पिछड़ेपन को स्टडी करने के लिए बनाए गए मेजर सिन्हो कमीशन के आधार पर बताया कि 2001 की जनगणना में कुल SC आबादी का 38% और कुल ST आबादी का 48% गरीबी रेखा से नीचे था।’
आर्थिक बदहाली या आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर दिए जा रहे इस आरक्षण से SC, ST और OBC जैसे वर्गों को बाहर रखना बराबरी के अधिकार के खिलाफ है। क्योंकि सबसे ज्यादा गरीब इन्हीं वर्गों में है। इसे मंजूर नहीं किया जा सकता क्योंकि समानता हमारे संविधान का मूल आधार है।
सामान्य वर्ग को आर्थिक आधार पर सरकारी नौकरियों व उच्च शिक्षा में 10 फीसदी आरक्षण देकर सरकार ने उस बंधन को तोड़ दिया जो इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के फैसले में सुप्रीम कोर्ट की 9 सदस्यीय संविधान पीठ ने खड़ा किया था।
संविधान में आर्थिक पिछड़ापन आरक्षण का आधार नही हो सकता और न ही संविधान में 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण का प्रावधान है। अपितु स्पष्ट तौर पर यह सरकार का चुनावी पैंतरा था।संविधान में 50 फीसदी आरक्षण की सीमा इसलिए लगाई गई थी ताकि कोई भी सरकार महज चुनाव जीतने के लिए आरक्षण की सीमा बढ़ाने का फैसला न ले सके।
संविधान में दलित आदिवासियों व पिछड़ो के लिए आरक्षण का प्रावधान इसलिए किया गया था ताकि जो समाज हजारों सालों से उपेक्षा व जातिगत दुर्भावना का शिकार रहा है वो अन्य समाज की तुलना में बराबरी पर आ सकें और आर्थिक सामाजिक शैक्षणिक व राजनीतिक तौर पर सक्षम हो सकें! सरकार ने सवर्ण आरक्षण के लिए संविधान में संशोधन कर गरीबी रेखा व आयकर की सीमा को 8 लाख करके गरीबों के साथ मजाक ही किया है!
हालांकि साल 2011 में हुई जनगणना की जातीय सरंचना की रिपोर्ट आना अभी बाकी है। इस रिपोर्ट के आने के बाद विभिन्न जातियां द्वारा अपने प्रतिशत के हिसाब से सरकारी व निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग उठनी ही है ! इसके बाद जो घमासान मचेगा वह सरकार के लिए झेलना आसान नही होगा! अगर चुनावी लाभ के लिए इसी प्रकार संविधान संशोधन कर आरक्षण की सीमा बढ़ाई जाने लगी तो संविधान के मूल का अस्तित्व क्या बचेगा? हो सकता है कि आने वाली सरकारें भी अपने राजनीतिक फायदे के लिए फिर संविधान संशोधन कर आरक्षण की सीमा को 100 फीसदी ही कर दे ?
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