आज भी सामंतवाद में जकड़े हैं दलित और आदिवासी ?

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भारतीय संविधान को बने औऱ देश में लागू हुए 80 साल होने वाले हैं लेकिन देश के ग्रामीण इलाकों में भेदभाव औऱ जातिगत उत्पीढ़न कम होने का नाम नहीं ले रहा। आएं दिन सोशल मीडिया पर जातिगत उत्पीढ़न की ऐसी खबरें आती हैं कि उन्हें देख कर कोई भी सिहर उठे।

शुरूआत में संविधान की बात इसलिए कही गई है क्योंकि भारतीय संविधान ही एकमात्र ऐसा कानून हैं जो सभी को समान मानता है। हालांकि देश संविधान से चलता है वाले जुमलों से इतर बात की जाए तो देश की सबसे बड़ी आबादी यानी दलित औऱ आदिवासियों पर सामंतवाद वाली जकड़न आज भी जस की तस मौजूद हैं। जिसकी कल्पना संविधान लागू होने के बाद हमने तो बिलकुल भी नहीं की थी। मैं मानता हूं कि भारत मे उत्तर वैदिक काल से ही नीची कही जाने वाली जातियों पर  सवर्णों और उच्च वर्गों का सामन्ती रवैय्या कायम हो गया था। सामंती भी वे ही थे और जातिवादी भी वही।

कबीर का एक दौहा है कि “जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान, मोल करों तलवार का पढ़ा रहने दो म्यान” लोकिन यकीन मानिए..हम कुछ भी नकार सकते हैं लेकन जाति नहीं। इसलिए ही कहा जाता है कि ये जाति समाज में ऐसा नासूर बन कर स्थापित हो चुकी है जो कभी जाएगी ही नहीं।

यही कारण है कि सामजिक संरचना, मानवीय विकास औऱ राष्ट्र के विकास मे जाति एक अटूट बाधा है। जाति का एक ही तोड़ है कि लोगों को अधिक से अधिक शिक्षित किया जाए। उन्हें जागरूक किया जाए। सालों से जिन लोगों ने दलित, वंचित, शोषित और अल्पसंख्यक लोगों का  जीना हराम कर रखा है आज वे संवैधानिक ताक़तों के आगे नतमस्तक हो जाते है वे जान गए है कि जो पढ़ा है वो ही लड़ता है, सापेक्ष में कहें तो लड़ने के लिए पढ़ना लिखना बहुत जरूरी है। लड़ाई आज भी वही है, हक और अधिकार की लड़ाई लेकिन आज अधिकारों को छीनने वालों के पैंतरे बदल गए हैं।

उत्तर प्रदेश का हाथरस कांड, लखीमपुर खीरी कांड औऱ उन्नाव कांड तमाम ऐसे उदाहरण है जहाँ दलितों को न्याय के लिए दर-दर भटकना पड़ा लेकिन उन्हें न्याय नहीं मिला। आज जब दलितों को अवसर मिल रहें है, उनका एक अर्थिक आधार बन रहा है तो उन्हें परेशान किया जाता है।

ये चीजें साहित्य से भी नहीं छिपी हैं। महादेवी वर्मा, मुन्शी प्रेमचंद, संत रविदास, कबीर और भी प्रासंगिक लेखक व कवि ने इन मुद्दों को अपने किस्से, कहानियों और नाटकों के माध्यम से व्यक्त करते रहे है।

लेकिन जातिवाद और सामंतवाद की जड़े आज भी भारतीय जमीन में गढ़ी हुई हैं। उत्तरप्रदेश के गोंडा प्रतापगढ़ के मशहूर लेखक अदम गोंडवी सहाब ने अपनी रचना “चमारों की गली” में जातिवाद तथा सामंतवाद की खुली प्रदर्शनी की है।  लेकिन पूंजीवाद आने के बाद सामंतवाद कही पीछे छूटता दिख रहा है। पूंजीवाद ने स्थितियाँ बदली हैं। सामंतवाद को हराया है। इसलिए आज कहा जाए कि पूंजीवाद सामंतवाद पर भारी पड़ रहा है तो कोई अचरज की बात नहीं होगी।

 

लेखक: रवि भास्कर (यह लेखक के निजी विचार है)

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