इतिहास के पन्नों में जब भी भारत की आज़ादी की बात होती है तो 1857 का युद्ध सबसे पहले पन्ने पर आता है और आए भी क्यों न आखिर 1857 के युद्ध ने ही तो भारतवासियों में आज़ादी का अलख जगाया था। भारत के इस पहले स्वतंत्रता संग्राम के योद्धाओं की फेहरिस्त में मंगल पाण्डे, तात्या टोपे और रानी लक्ष्मी बाई समेत अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों के नाम शामिल हैं। लेकिन मातादीन वाल्मीकि एक ऐसा नाम है जिसे इस फेहरिस्त में शामिल करने में एक लंबा समय लगा। हालांकि मातादीन वाल्मीकि को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का सिर्फ सेनानी कहना ठीक नहीं होगा क्योंकि मातादीन वाल्मीकि ही थे जो प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के असली सूत्रधार थे।
वर्तमान समय तकनीक और सोशल मीडिया का है। आज किसी भी सवाल का जवाब गूगल पर मौजूद है। अगर आप मातादीन वाल्मिकि या मातादीन भंगी शब्द गूगल पर सर्च करेंगे तो कई प्रख्यात न्यूज़ वेबसाइट्स आपको ऐसी मिल जाएगी जिन्होंने 1857 के युद्ध का जनक मातादीन वाल्मीकि को ही बताया है।
मेरठ में हुआ था जन्म:
मातादीन वाल्मीकि का जन्म ब्रिटिश हुकूमत वाले मेरठ के एक भंगी परिवार में हुआ था। रोज़ी रोटी के लिए उनका परिवार यूपी के कई हिस्सों की खाक छान चुका था। उस समय की जाति व्यवस्था में भंगियों को पढ़ने का अधिकार नहीं था इसलिए मातादीन कभी स्कूल नहीं जा पाए। उनका परिवार शुरू से ही अंग्रेज़ों के संपर्क में रहा इसलिए मातादीन को अंग्रेंज़ों की सरकारी नौकरी मिलने में ज्यादा दिक्कत भी नहीं हुई। कलकत्ता से 16 किलोमिटर दूर स्थित बैरकपुर छावनी में उन्हें खलासी की नौकरी मिल गई। इस छावनी में सिपाहियों के लिए कारतूस बनाए जाते थे। वहीं बैरकपुर छावनी में ही सेना की एक टुकड़ी “34वी बंगाल इंफेंट्री” का मार्गदर्शन मंगल पाण्डे करते थे।
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ऐसे रखी थी स्वतंत्रता संग्राम की नीव:
सेना में काम करते हुए मंगल पाण्डे औऱ मातादीन की खासी पहचान हो चुकी थी। मंगल पाण्डे ये भी जानते थे कि मातादीन भंगी है। एक दिन जब मातादीन को ज़ोरो से प्यास लगी तो उन्होंने मंगल पाडेय से पीने के लिए पानी मांग लिया लेकिन मंगल पाडेय ने इसे मातादीन का दुस्साहस समझा और यह कहकर उन्हें पीने के लिए पानी नहीं दिया कि ‘अरे भंगी, मेरा लोटा छूकर तू इसे अपवित्र करेगा क्या?
इस पर मातादीन वाल्मिकि ने मंगल पांडे को उनकी पंडाताई याद दिलाते हुए कहा, “पंडत, तुम्हारी पंडिताई उस समय कहा चली जाती है जब तुम और तुम्हारे जैसे चुटियाधारी गाय और सूअर की चर्बी लगे कारतूसों को मुंह से काटकर बंदूकों में भरते हो।“
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ये सुनकर मंगल पांडे का माथा ठिनक गया। क्योंकि बात अब उनकी पंडताई पर आ गई थी। बात मंगल पांडे तक ही नहीं रूकी औऱ एक के बाद एक सेना की सभी टुकड़ियों में इस बात के चर्चे होने लगे कि जिस कारतूस को वो मुंह से छीलते हैं, वो गाय औऱ सूअर की चर्बी से बना हुआ है।
विद्रोह करने वाले पहले व्यक्ति थे मातादीन:
मातादीन की गाय औऱ सूअर की चर्बी वाली बात सुनकर मंगल पांडे ने ब्रिटिश हुकुमत के खिलाफ विद्रोह कर दिया। 1 मार्च 1857 की सुबह परेड मैदान में मंगल पाण्डे ने लाइन से बाहर निकल कर अंग्रेज़ सैनिकों को कहा कि तुम गोरे लोग हमसे गाय और सूअर की चर्बी लगे कारतूसों का इस्तेमाल करवाकर हमारे धर्म औऱ इमान के साथ खिलवाड़ कर रहे है। इसके बाद मंगल पांडे ने ब्रिटिश अधिकारियों को गोलियों से भूनना शूरू कर दिया। जिसके बाद पूरे उत्तर भारत में विद्रोह की ज्वाला भड़क गई। मातादीन वाल्मिकि ने सच्चे सिपाही की तरह अंग्रेज़ो के खिलाफ इस युद्ध को लड़ा था। हालांकि 1857 का ये युद्ध अंग्रेज़ी हुकुमत को जड़ से उखाड़ तो नहीं पाया लेकिन इस युद्ध ने अंग्रेज़ी हुकुमत की जड़े ज़रूर हिला दि थीं।
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इसके बाद अंग्रेज़ो ने विद्रोह करने वालों की लिस्ट तैयार की जिसमें पहला नाम मातादीन वाल्मीकि का था। मंगल पांडे का कोर्ट मार्शल कर उन्हें सैनिकों की टुकड़ियों के सामने फांसी पर पहले ही लटका दिया था। विद्रोह को चिंगारी देने के लिए अंग्रेज ऑफिसरों ने मातादीन वाल्मीकि को गिरफ्तार कर उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। अंग्रेज़ी हुकुमत के खिलाफ़ विद्रोह करने वाले और इस लड़ाई को लड़ने वाले मातादीन वाल्मिकि पहले व्यक्ति थे। बैरकपुर छावनी में काम करने वाले भी अधिकतर लोग दलित थे। इस युद्ध में ना जाने कितनी ही दलित महिलाओं ने भाग लिया था। इनमें झलकारीबाई, अवंतीबाई, पन्नाधई, उदादेवी और महाविरीदेवी के नाम शामिल हैं।
दलितों के लिए ये लड़ाई उनके जल, जंगल और ज़मीन की लड़ाई थी जब्कि मंगल पाण्डे का विरोध उस व्यवस्था को लेकर था जिससे उनके धर्म पर आंच आ रही थी। ये उनकी धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाली बात थी। ये ब्राह्मणवादी नियमों को खतरें में डालता था। मंगल पांडे एक ब्राह्मण थे और गाय औऱ सुअर की चर्बी वाले कारतूसों को मुंह से काटने का मतलब था उनका ब्राह्मण से अछूत हो जाना। क्योंकि जब किसी को ये पता चलता कि मंगल पांडे ने गाय और सूअर की चर्बी को मुंह लगाया है तो न तो कोई उनके साथ खाना खाता, ना उन्हे छूता औऱ शायद मरने के बाद उनका अंतिम संस्कार भी नहीं करता। मंगल को यही डर था जब ये बात सभी में फैल जाएगी तो उनके साथ अछूतों जैसा व्यवहार किया जाएगा।
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संजीव नाथ ने अपनी पुस्तक “1857 की क्रांति के जनक नागवंशी मातादीन हेला” में मातादीन को 1857 की क्रांति का जनक बताया है। साथ ही नाथ ने अपनी पुस्तक में इस बात को भी उद्धृत किया है कि यह उस समय की व्यवस्था की बात है जब ब्राह्मण सैनिक अपने मुंह से चर्बी वाले कारतूस काटते थे लेकिन एक प्यासे व्यक्ति को पानी देने से मना कर देते थे सिर्फ इसलिए क्योंकि वह उनके लिए अछूत था।
मातादीन भंगी वो भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने 1857 के विद्रोह से पहले की घटनाओं में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उसके बाद 1857 के युद्ध में देश की ख़ातिर फांसी के फंदे पर झूल गए लेकिन इसके बावजूद इतिहास के पन्नों में मातादीन वाल्मीकि को वो दर्ज़ा कभी नहीं दिया गया जिसके वह असली हकदार थे।
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