“जननेता” जो मायावती का गॉडफादर बना..

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भारतीय राजनीति में हमारे पास जिस चीज़ की कमी है वो है “ईमानदारी” और इसके न होने ही कि वजह है कांशीराम साहब को हर बड़े नेताओं में शुमार करने से बचा जाता है,वजह बहुत कुछ हो सकती है लेकिन यह वो शख्सियत है जिसने भारत मे राजनीति का तरीका ही बदल दिया था।

पंजाब ज़िलें के रोपड़ में पैदा हुए मान्यवर कांशीराम शिक्षा पूरी करने के बाद एक सरकारी नौकरी में लग गए,लेकिन जब नियति को कुछ और ही मंजूर हो तो क्या कर सकते हैं। 1978 में दलितों,पिछड़ों और पीड़ितों की आवाज़ उठाने के लिए उन्होनें एक संगठन “बमसेफ” बनाया।

कई सालों तक उस संगठन के साथ संघर्ष करने कर बाद कांशीराम को ये समझ आने लगा कि जिस तरह की राजनीतिक महत्वकांक्षा वो रखते हैं। वो सब कुछ इस संगठन से पूरी नहीं हो सकती है। इसलिए उन्होंने एक नया संग़ठन बनाने की घोषणा की इसका नाम था “दलित शोषित संघर्ष समाज समिति” जो 14 अप्रैल 1984 तक रहा जब तक उन्होंने बसपा नहीं बना ली।

1984 में जब एक तरफ कांग्रेस अपनी बुलन्दी पर थी वही दूसरी तरफ भाजपा भी अपनी जड़े जमा रही थी उस वक़्त “जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी भागीदारी” का नारा देकर सियासत में भूचाल लाने वाली शख्सियत का नाम “कांशीराम” ही था। जो “बहुजन समाज पार्टी” के साथ देश की राजनीति को एक नया विकल्प देने के तैयारी कर रहा था।

राजनीतिक एक्सपेरिमेंट करते हुए राजनीति में हार का डर ख़त्म करने की कोशिश अगर किसी राजनेता ने की थी तो कांशीराम ही वो हस्ती थे जिन्होंने चुनाव हारने के डर को खत्म किया,जिन्होंने “वोट कटुवा” कहे जाने की सोच को बदला और दिखाया कि सियासी दांवपेंच किसे कहते है,कांशीराम साहब ने “पहला चुनाव हारने के लिए दूसरा हराने के लिए और तीसरा जीतने के लिए” वाला जज़्बा पैदा किया।

उनकी ये मेहनत रंग लाने लगी,उनकी पार्टी की युवा नेता मायावती जो 1985 का लोकसभा चुनाव बिजनोर(यूपी) लोकसभा से हार गई 1989 में वहां से चुनाव जीत गयी। इसी तरह धीरे धीरे बहुजन समाज पार्टी एक पार्टी ने होते हुए एक विचार बनते हुए बड़ी ताकत की तरह उभरी थी।

 

उनकी बनाई पार्टी बसपा तीसरी सबसे बड़ी ताकत बनने की तरफ थी,जो पंजाब, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश में बहुत मज़बूती कदम बढ़ाने लगी। गौर करने की बात है अपनी उम्र गुज़ार कर,अपना मिशन समझ कर “सियासत” में उतरने वाले कांशीराम “बहुजन नायक” बने और असल मायनो में वो बड़े नेताओं ही में शुमार भी है।

पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के “गॉडफादर” कांशीराम की पॉलिसीस की इस वक़्त उस समाज को ज़रूरत है जो “सियासत” में भागीदारी चाहता है,जो ये चाहता है हमें राजनीति में “हिस्सेदारी” चाहिए। इस शख्स ने वो भागीदारी ले कर दिखाई,राजनीति ताक़त बन कर देश भर में बहुजन समाज पार्टी को राष्ट्रीय दल का दर्जा दिलाया।

कांशीराम साहब भारतीय सियासत का एक अध्याय है,जिन्होंने सियासत में हिस्सेदारी को अहमियत दी और 1993 में समाजवादी पार्टी के साथ मिल कर सरकार बनाई तो 1995 में भाजपा से गठबंधन करते हुए 39 साल की मायावती को मुख्यमंत्री बनवा कर कोहराम मचा दिया। ये जलवा था उस शख़्स का था जिसने एक आइएएस की तैयारी करती हुई लड़की से वादा निभाया और उसे यूपी का सबसे युवा मुख्यमंत्री बनवा दिया।

ये कांशीराम ही थे जो सिर्फ 10 साल से कम समय ही में सत्ता हासिल कर,दलितों, पिछडों और बैकवर्ड लोगों को सत्ता तक ले आये थे,
जिन्होंने राजनीति में एक ऐसी राजनीतिक विचारधारा को जोड़ा जो चुनाव हारने का डर खत्म करती थीं। जिन्होंने अपने समाज के लिए काम करने की नीयत के लिए राष्ट्रपति बनने से भी इनकार कर दिया था।

 

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