MP: बीजेपी के अधूरे वादों के तलें दबा बहुजन समाज

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चुनावी सालों में बीजेपी का फोकस आदिवासी, अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग पर जाने लगता है। और जाए भी क्यों न? ये वर्ग किसी भी राजनीतिक दल के लिए वोटबैंक के लिहाज से अहम होते हैं। बात मध्य प्रदेश की की जाए तो मध्य प्रदेश का एक बड़ा वोटर तबका इसी वर्ग से आता है – 1 करोड़ 53 लाख 16 हज़ार की जनजातीय आबादी यानी राज्य की कुल आबादी का 21% है।

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लेकिन यहां सवाल ये हैं कि क्या केवल वोट बैंक की राजनीति अहम है? इन वर्गों की समस्याओं की तरफ सरकार और राजनीतिक दलों का कितना ध्यान है? ये सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि इन वर्गों की समस्याओं को दूर करने के लिए जो राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग गठित हुआ हैं उनमें पिछले तीन से चार सालों से मुखिया और मुख्य कर्ताधर्ताओं के पद खाली ही पड़े हुए हैं। कागजी खानापूर्ति कार्यालयों में बाबू निपटा रहे हैं। यानी कामकाज तो हो रहा है मगर जनता के लिए किसी काम के नहीं। इसी तरह संस्थान में सरकारी खर्च तो हो रहा है लेकिन पीड़ितों की समस्याएं दूर नहीं हो पा रही है। राजनैतिक पार्टियों की रस्साकस्सी के बीच फंसे ये आयोग सफेद हाथी बन चुके हैं। मगर सरकार का इस तरफ ध्यान नहीं है।

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दि सूत्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक मध्य प्रदेश राज्य अनुसूचित जनजातीय आयोग में सालभर में करीब 1000 शिकायतें दर्ज हुई लेकिन अब भी सुनवाई का इंतज़ार हैं।

मध्यप्रदेश राज्य अनुसूचित जनजातीय आयोग खाली पड़ा है। राज्य की 21 फीसदी आबादी आदिवासी है, पर फिर भी आयोग में न अध्यक्ष है और न ही सदस्य हैं। दफ्तर तो रोज खुलता है, लेकिन यहां केवल बाबू और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी ही मिलते हैं। फ़िलहाल, बस सचिव के तौर पर विक्रमादित्य सिंह यहाँ पदस्थ हैं।

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आयोग में मौजूद कर्मचारी ने द सूत्र को बताया कि आयोग में हर महीने करीब 50 के आसपास शिकायतें आती है, यानी सालभर में 1000 के करीब। इनमें से ज्यादातर शिकायतें दलित प्रताड़ना, अनुसूचित जनताइयों के लोगों के जमीन से जुड़ी समस्याओं की होती हैं, जैसे- पट्टा न मिलना, आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएँ, सरकारी योजना का फायदा न मिलना, भूमि धोखे से किसी और को बेच दिया जाना।

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बता दे कि साल 2021 में नरेन्द्र मरावी के अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष पद से हटने के बाद से आज तक नए अध्यक्ष की नियुक्ति नहीं हो पाई है। यह सोचनीय विषय है कि पिछले 2 साल से एक सरकारी विभाग बिना अध्यक्ष काम कर रहा है और सरकार का कोई ध्यान नहीं ….

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आयोग के एक वरिष्ठ कर्मचारी ने द सूत्र को बताया कि अध्यक्ष की मौजूदगी में करीब 2500 शिकायतें तक हो जाती थी लेकिन अभी केवल 50 शिकायते भी नही आती. इसका कारण है कि आदिवासी ज्यादा पढ़े-लिखे न होने के कारण सीधे आयोग में अपनी शिकायतें दर्ज़ कराने की जागरूकता नहीं रखते हैं। और अगर आयोग का अध्यक्ष रहता है तो वो अपने कार्यकाल में आदिवासी क्षेत्रों में दौरे-यात्राएँ करते है और जनशिकायत के कैम्प्स लगाते हैं। इससे आदिवासियों को मौका मिलता है अधिकारियों तक अपनी शिकायतें पहुंचाने का। और शिकायतें फास्ट्रैक तरीके से सुनी जाती हैं। पर अध्यक्ष और सदस्यों के अभाव में ऐसा नहीं हो पा रहा है। अभी जो शिकायतें देखी जाती हैं, वो कलेक्टर-SP लेवल पर दर्ज़ होती हैं।

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यानी शिकायतें तो आ रही हैं पर अध्यक्ष के अभाव में लम्बे समय तक उनपर कार्यवाही नहीं हो पा रही हैं। एक ताज़ा मामला तो राजधानी भोपाल का ही है, जहाँ भोपाल स्थित एक अनुसूचित जनजाति युवक का परिवार पिछले 37 सालों से अपनी जमीन के हक़ के लिए लड़ रहा हैं ….

दरअसल, भारत हेवी इलेक्ट्रिकल लिमिटेड यानी बीएचईएल में नौकरी करने वालों ने मिलकर 1985 में अपने अनुसूचित जाति-जनजाति कर्मचारी के लिए अनुसुचित जाति, जनजाति कर्मचारी गृह निर्माण सोसाइटी बनाई थी। केंद्र सरकार की अनुमति से जमीन भी आवंटित हुई, लेकिन राज्य सरकार और भोपाल का प्रशासन हकदारों को उनके प्लॉट पर कब्जा नहीं दिला पाया।

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अनुसूचित जाति-जनजाति के इन परिवारों के प्लॉटों पर झुग्गियां तन गई। गोविंदपुरा के सिद्दीकपुर में केंद्र सरकार ने इस सोसाइटी को 25 एकड़ जमीन दी थी। पिछड़ी जातियों के लिए बनी इस सोसाइटी का संघर्ष तो इतना लम्बा है कि कुछ परिवारों की तो तीसरी पीढ़ी संघर्ष कर रही है। बुद्ध मित्र नाम का ये युवक उनमें से ही एक है। बुद्ध मित्र के दादा ने इस सोसाइटी में प्लॉट लिया था। दो पीढ़ियां तो कब्जे के लिए संघर्ष करते हुए खत्म हो गई। परंतु अब बुद्ध मित्र ने ये बीड़ा उठाया है। लेकिन जिम्मेदार अधिकारियों के तर्क बुद्ध मित्र के गले नहीं उतरते। एसडीएम से लेकर कलेक्टर तक बस आश्वासन देते है। तो वहीँ अनुसूचित जनजाति आयोग में अध्यक्ष न होने से कोई सुनवाई ही नहीं है। 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार ने सोसाइटी को जमीन देने का फैसला किया था। तब से आज तक सोसाइटी के सदस्य हक के लिए भटक रहे है। बुद्धमित्र जैसे ऐसे करीब 28 अनुसूचित जाती-जनजाति परिवार हैं जो न्याय के लिए हर दर पर दस्तक दे चुके है। लेकिन कही कोई सुनवाई नहीं हो रही।

 

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पीड़ित बुद्ध मित्र का कहना है कि

“2019-2020 में अनूसूचित जाती आयोग और अनुसूचित जनजाति आयोग, दोनों में हमने शिकायत की थी। प्रकरण वहां पर चालू हैं, परन्तु अध्यक्ष नहीं होने की वजह से वहां पर सुनवाई नहीं हो पा रही हैं। जो कर्मचारी हैं, उनका कहना हैं की उनके पास इतनी पावर नहीं कि वो सम्बंधित तहसीलदार या कलेक्टर को शिकायतकर्ताओं की समस्या के निदान के आर्डर दे पाएं। कर्मचारी कहते हैं कि अगर अध्यक्ष होते तो हमारी समस्या का निराकरण जल्दी हो जाता।”

बुद्ध मित्र जैसे कई लोग है जो इंसाफ की आस में भटक रहे हैं। आयोग का दफ्तर बकायदा खुल रहा है, पर कामकाज के सिलसिले में ठप्प है। बहरहाल, इन सब के बीच आयोग का सालाना खर्चा पौने दो करोड़ (1.75 करोड़) के आसपास का है। ऐसा तब है जब NCRB की 2022 की रिपोर्ट के अनुसार मध्य प्रदेश में अनुसूचित जनजाति के विरुद्ध सबसे ज्यादा (2627) अपराध दर्ज़ हुए।

मंत्री कहती हैं जल्द होगी नियुक्तियां?

अब राज्य अनुसूचित जनजातीय आयोग में अध्यक्ष और सदस्य पदों पर नियुक्तियों को लेकर द सूत्र ने जब अनुसूचित जनजाति विभाग की मंत्री मीना सिंह से सवाल पूछा तो उनका कहना था नियुक्तियां जल्द ही की जाएंगी। पर सवाल हैं कब? अब तो सरकार का कार्यकाल ही चंद महीनों का बचा है।

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ऐसे में इस कार्यकाल में तो उम्मीद नहीं कि आयोग ठीक ढंग से काम करने लगे। इसीलिए एक सवाल और उठता हैं कि जब सरकार की नजर में इन आयोगों का कोई मतलब नहीं है तो फिर इन्हें बंद क्यों नहीं कर दिया जाता? सीढ़ी बात हैं कि या तो राज्य महिला आयोग और अनुसूचित जनजाति आयोग जैसे इन आयोगों को ठीक तरह से चलाया जाए वरना जनता के टैक्स का पैसा बर्बाद करने से क्या मतलब!

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