अमेरिकी यूनिवर्सिटीज ने दलितों और मुसलमानों के लिए शिक्षा और नौकरियों का एलान करते हुए बड़ी गलती कर दी

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अमेरिकी यूनिवर्सिटीज ने दलितों और मुसलमानों के लिए शिक्षा और नौकरियों के दरवाज़े खोल रही हैं, ये ऐतिहासिक क्षण है हाल ही में जारी की गई जानकारी में केलिफोर्निया यूनिवर्सिटी ने दलितों और मुसलमानों को भविष्य में खास तौर पर स्थान देने की बात कही है।

अब सवाल यहीं इन शब्दों में है,जहां यूनिवर्सिटी प्रशासन एक तरफ तो दलितों को जगह दी रहा है और उनकी शिक्षा और नौकरियों के लिए जगह बना रहा है वहीं मुस्लिम शब्द लिख कर वो बराबरी के सिद्धांत से कोसो दूर जा रहा है।

अमेरिकन यूनिवर्सिटी शायद ये नहीं जान पाई की भारत में पिछड़े “मुसलमान” नही हैं बल्कि पसमांदा मुसलमान हैं,जी हां पसमांदा यानी जो पीछे रह गए हों,भारतीय समाज की तरह ही भारत के मुसलमान भी कई तरह से बंटे हुए हैं। इनमें भी सैकड़ों जातियां हैं। और इनके भी अलग अलग आधार हैं, जो आपस में शादियां करने से रोकते हैं। जबकि धार्मिक तौर पर सब बराबर हैं।

 

image : google screnshort

भारत में बहुजन राजनीति के सबसे बड़े नामों में से एक मान्यवर कांशीराम साहब ने कहा था “राजनीति चलें न चलें,सरकार बने या न बनें,सामाजिक परिवर्तन की गति किसी कीमत पर भी नहीं रुकनी चाहिए”।

सामाजिक परिवर्तन यानी समाज में मौजूद ऊंच नीच के खिलाफ कार्य,दलित समाज इससे सालों से जूझता आया है, लेकिन पिछड़े होने की वजह से बदतर स्थिति में पहुंच चुके पसमांदा मुसलमानों की स्थिति भी बहुत खराब है। वो भी शिक्षा,राजनीति और समाज में भी पिछड़ गया है।

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कौन हैं पसमांदा मुसलमान?

पसमांदा मुसलमान यानी वो जो पीछे रह गए हैं,जिनकी संख्या देश भर में मौजूद करीबन 15 फीसदी मुसलमानों में से 85 फीसदी हैं जो मजदूरी,खेती और छोटे मोटे काम करके अपना गुज़ारा करते हैं वहीं हैरानी की बात ये है कि इस आबादी और इनसे जुड़े मुद्दों पर चर्चा करने और राजनीतिक दखल रखने की जिम्मेदारी अशराफ मुस्लिमों पर है।

वहीं पसमांदा मुसलमान यानी वो मुसलमान जिनमे अरजाल और अरजाल मुसलमान शामिल हैं जो सामाजिक और राजनीतिक तौर पर पिछड़े हुए हैं और बदतरीन स्थिति में भी हैं।

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अमेरिकन यूनिवर्सिटी को अब क्या करना चाहिए?

अमेरिकन यूनिवर्सिटी की अब ये जिम्मेदारी बनती है की वो मुस्लिम की जगह “पसमांदा” मुसलमान शब्द का इस्तेमाल करें और सामजिक की सही परिभाषा को अपनी यूनिवर्सिटी में लागू करें तब कहीं जाकर उनकी बराबरी की धारणा सही मायनों में सिद्ध हों पाएगी।

वरना अगर यूनिवर्सिटी ने दलितों को ध्यान में रख कर जिस बराबरी की बात की है वो “मुस्लिमों” में लागू नहीं कर पाएगी। क्योंकि जब तक समस्या खत्म ही नहीं हो पाएगी या हम उसे जान ही नहीं पाएगी तो ये कैसे मुमकिन है कि उसको लेकर कार्य किया भी जा सके?

अब देखना ये है की इस महत्वपूर्ण मुद्दे के खबरों में आने के बाद यूनिवर्सिटी कब और कैसे अपने इस नए प्लान में बदलाव करते हुए सुधार करती है क्योंकि अगर सिद्धांत ही बराबरी का नहीं होगा तो बराबरी होगी? सवाल ये है।

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