दलित-मुस्लिम एकता: एक अशराफ़ी टूल

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दलित-मुस्लिम एकता का मिथक दलित- मुस्लिम एकता की हकीकत इसके सिवा क्या है कि यह एक धोखा है जो दलितों और पसमांदा को एक साथ दिया जा रहा है। अशराफ एक तरफ तो दलितो के दिल मे यह बात बैठाने में कामयाब होता है कि इससे उसका अन्दोलन तेज़ होगी और माँगों में मजबूती आएगी और दलित-मुस्लिम एकता मुसलमानो से ज़्यादा दलितों के सत्ता के लिए ज़रूरी है और मुस्लिम तो सत्ता प्राप्ति के बाद उनके पीछे रहेगा। दूसरी ओर पसमांदा को धर्म और धार्मिक एकता के नाम पर यह झांसा देता है कि जब दलितों की मदद होगी तो हर जगह से अल्पसंख्यक होने के बाद भी मुसलमान आसानी से जीत दर्ज कर लेगा और इस प्रकार आरएसएस/ भाजपा को परास्त कर देगा। और इस समय पसमांदा के उत्थान से ज़्यादा ज़रूरी काम कौम को बचाना है।

अशराफ सदैव पसमांदा के सामने उसके उत्थान और जीवित रहने का विकल्प का धोखा देता है जिसमें पसमांदा अपनी कमजोरी, लाचारी और बेबसी के कारण आसानी से फंस जाता है और जीवित रहने को अपने उत्थान पर वरीयता देता है। यही धोखा अशराफ ने देश के विभाजन के समय पसमांदा के मन-मस्तिक में बैठाया था जिसका परिणाम सामने है कि अशराफ एक देश का तीन देश करके दो देश मे प्रत्यक्ष शासक है और तीसरे में भी अप्रत्यक्ष सत्ता में पकड़ बनाये हुए है जबकि पसमांदा तीनो देशों में अपने जीवन को बचाने के लिए वेंटिलेटर के इंतज़ार में अपनी उखड़ी सांसों को संभाले हुए है।

जब अशराफ के पास इस देश में प्रत्यक्ष सत्ता थी उस समय अशराफ मुस्लिम ने दलित-आदिवासी को हर तरह से दमन किया। भारत में अपने सदियों की सत्ता में दलित-पसमांदा का ना सिर्फ दोहन किया है बल्कि विपरीत परिस्तिथियों में भी जो दलित-पसमांदा किसी भी प्रकार से शासन सत्ता में पहुँच बना पाए थे उनको उनकी जाति की पहचान (इसके लिए बाकायदा निकाबत नाम एक विभाग हुआ करता था) करके सत्ता से बाहर कर दिया और फिर यह सुनिश्चित भी किया कि यह लोग शासन के करीब भी ना फटकें। अशराफ शासन काल में सिर्फ ग्यासुद्दीन तुगलक और उसके बेटे मुहम्मद तुग़लक़ (जउना, जिसके नाम पर जउनपुर है) ही ऐसे राजा रहें हैं जिन्होंने आदिवासी, दलित और पिछड़े और इनसे धर्म परिवर्तित कर मुस्लिम हुए पसमांदा को उनकी योग्यता के आधार पर राजनैतिक भागेदारी देना सुनिश्चित किया था, जिस कारण अशराफ उलेमा और राजनीतिज्ञ अप्रसन्न रहा करते थे आखिरकार इन दोनो की हत्या का कामयाब षड्यंत किया।

देश के आजादी से पूर्व मुस्लिम लीग और जोगेंद्र नाथ मण्डल के प्रकरण से भी सीख लिया जा सकता है। जोगिंद्रनाथ मण्डल को अशराफ ने लिखो-फेको कलम की तरह यूज़ किया। मुस्लिम लीग के डायरेक्ट एक्शन प्लान से लेकर बंगाल की मुस्लिम लीग की सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव में समर्थन करने तक मण्डल ने खुल कर इनका साथ दिया। सिलहट के जनमत में जहां हिन्दू मुस्लिम की जनसंख्या बराबर थी तो जिन्ना ने मण्डल को भेजा कि वहाँ जाकर दलितों को पाकिस्तान के फेवर में राय देने को कहें। और इस प्रकार मण्डल के सहयोग से सिलहट पाकिस्तान को मिला। पाकिस्तान बनने के बाद अशराफ लीडरशिप द्वारा अनुसूचित जाति के पृथक निर्वाचन की लगातार अनदेखी की कपटपूर्ण नीति और अन्य भेदभाव पूर्ण व्यवहार से मण्डल पर अशराफ का धोखा खुल गया जिससे व्यथित और छुब्ध मण्डल भारत लौट आते हैं लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी अशराफ उनकी नैतिक, राजनैतिक और वैचारिक हत्या कर चुका होता है जबकि शारीरिक रूप से वो 1968 तक जीवित रहें। मात्र 64 साल की आयु में दलितों का एक शानदार नेतृत्व कोलकाता में गुमनामी की हालत में दुनिया से चला जाता है।

बटवारे के समय अशराफ ने दलितों के भारत की ओर होने ने वाले स्थानांतरण को इस लिए बाधित किया कि इनके जाने के बाद इनसे सम्बंधित कार्यो यथा पाखाना साफ करना, झाड़ू लगाना आदि को कौन करेगा।

पाकिस्तान में आज भी ये दलित-आदिवासी के साथ अपना पूर्वर्ती नीति अपनाये हुए हैं, पाकिस्तान के दलित आंदोलन को देखकर आसानी से यह बात समझी जा सकती है। पाकिस्तान में सवर्णों से ज़्यादा दमन अशराफ मुस्लिम आज भी कर रहें हैं। आये दिन पाकिस्तान से दलितों के बलात्कार और अत्याचार की खबरे आती रहती हैं। उनका जबदस्ती धर्मांतरण आखिर वहाँ कौन रहा है।

आज भी पाकिस्तान में अशराफ ज़मींदारों द्वारा बन्धुआ मज़दूरी के नाम पर गुलामी प्रथा जीवित है। जहाँ पूरे परिवार का अपहरण कर बन्धुआ मज़दूर बना लिया जाता है। इस तरह के बहुत सी घटनाएं आये दिन सामने आते रहते है और यह बात वहाँ के लिए आम है। अपहरण करते वक़्त कभी कभी तो उस समय मौजूद रिश्तेदार को भी उठा लेते हैं डिटेल के लिए मनु भील का केस देखा जा सकता है। इस तरह की बहुत सी घटनाएं सुनने में आती हैं कि दलित लड़कियों को बहला फुसला कर धर्मांतरित कर के किसी मुसलमान की बीबी बना दिया जाता है फिर कुछ महीनो बाद वो किसी दूसरे व्यक्ति को दे दी जाती है फिर वो किसी दूसरे को दे देता है इस तरह कुछ समय के बाद वो सड़क पर आ जाती है ना तो उसे मुस्लिम ही अपनाते हैं और ना ही दलित। क्या वहाँ दलितों को पहले से मिल रहे आरक्षण को रहने दिया गया या खत्म कर दिया गया है जवाब नाकारात्मक में मिलेगा। वहाँ दलितों के उत्थान के लिए सरकार की कौन कौन सी योजनाएं चल रही हैं? पाकिस्तान के उदाहरण से दलित-मुस्लिम एकता ही हक़ीक़त को और आसानी से समझा जा सकता है जहाँ अशराफ पूरी तरह सत्ताधारी है और उसके पास उनके उत्थान के लिए प्रयाप्त सामर्थ भी है। भारत में अगर अशराफ दलितों के अधिकारों को लेकर इतना ही चिंतित है तो वो अपने संगठनों में दलितों को भागेदारी क्यों नही देता? अशराफ के किसी भी राजनैतिक और सामाजिक संगठनों के मुख्य पोस्ट पर आपको दलित नहीं मिलेंगे जबकि दलितों के राजनैतिक और सामाजिक संगठनों में अशराफ आपको बड़े पदों पर आराम से मिल जायेंगे ये असंतुलित दलित-मुस्लिम एकता का कैसा व्यवहार है?

असल में सच्चाई यह है कि अशराफ भारत को विजित प्रदेश समझता है और जब देखा कि यह देश हाथ से निकल रहा है तो मुस्लिम सम्प्रदायिकता की नीति अपना कर एक बड़े भूभाग पर अपनी सत्ता स्थापित किया फिर भारत मे भी अपनी पूर्ण सत्ता के वापसी के लिए प्रयासरत है। कश्मीर का आतंकवाद हो या देश के भीतर हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता की राजनीति इनका ध्येय एक है कि बचे हुए भारत देश में सत्ता में पकड़ बनी रहें और जल्द से जल्द पूर्ण सत्ता की प्राप्ति हो। इस मक़सद के लिए उन्हें सिपाही चाहिए जिसके लिए वो दलित-पसमांदा को मानसिक रूप से को तैयार करते हैं। जहाँ दलितों का सवर्णो द्वारा उनके जातिगत उत्पीड़न की सच्चाई को और बुरा बनाकर उभारते हैं और खुद को उनका हमदर्द और हितैसी बनाकर पेश करते हैं। दूसरी ओर पसमांदा को धर्म और धार्मिक एकता की रणनीति में फांसतें है। इस्लाम और मुसलमानो के अस्तित्व पर खतरा दिखा कर आरएसएस/ भाजपा से डरा कर उनको उर्दू माध्यम के मदरसों और दर्जनभर तथाकथित धार्मिक संगठनों जैसे जमाते इस्लामी, तब्लीगी जमात आदि द्वारा इस्लाम की रक्षा के नाम पर मानसिक रूप से अपना सिपाही बना लेने में कामयाब होते आएं हैं।

एक बात यह भी है कि हिन्दुओ ने अपने दलितों और पिछड़ों को मुख्य धारा में लाने के लिए बहुत से आंदोलन और जागरूकता अभियान चलाया जिसके नतीजे में आज उनके हालात पहले से बहुत अच्छे हुए है। लेकिन आज तक मुस्लिमों ने अपने आदिवासी, दलितों और पिछडो को लिए कोई आंदोलन चलाया है? कभी किसी उच्च वर्ग/शोरफा ने एक बयान तक दिया है दलित और पिछड़े मुस्लिमो के लिए? बल्कि ये सरकार को ये कह के गुमराह करते रहते है कि मुस्लिमो में कोई दलित और पिछड़ा नहीं है। वो तो भला हो मण्डल आयोग का जिसने ओबीसी में पसमांदा मुस्लिमो को सम्मिलित किया। याद रखे मण्डल कमीशन में एक भी मुस्लिम मेंबर नहीं था, अगर होता तो उच्च वर्ग का ही होता और क्या पता मुस्लिमो को ओबीसी आरक्षण में भी नहीं आने देता। अशराफ पाकिस्तान में जहां वो सर्वे सर्वा है अपने सहधर्मी अछूतो (मुसल्ली, चूड़ा, चानगर, कम्मी, भील, खटाने, मिरासी) को आजतक मुख्य धारा में नही ला पाया है तो विधर्मी अछूतो और वंचितों के लिए क्या किया होगा और क्या करेगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।

मुख्तारन माई और गजाला शाहीन के केस से अशराफ का चरित्र पूरी तरह उजागर हो जाता है। जिसमें पंचायत द्वारा इनको सामूहिक दुष्कर्म की सजा सिर्फ इस लिए सुनाई जाती है कि इनके भाई और चाचा ने नीच जाति के होने के बावजूद ऊंची जाति अशराफ की लड़की से प्रेम किया था।

अशराफ का यह दोहरा रवैय्या है उसकी असल मंशा अपनी सत्ता और वर्चस्व को बनाये रखना है। उनको दलित-आदिवासी के उत्थान से कुछ लेना देना नही है। इनकी नियत इनके इतिहास से आसानी से समझा जा सकता है।

इस देश के बहुजन/दलित/पिछड़े/आदिवासी अंदोलन को अशराफ मुस्लिमो से होशियार रहना चाहिए। और वंचित पसमांदा को लेकर चलना चाहिए जो उनके भाई ही है भले ही उनकी आस्था बदल गयी हो लेकिन समस्या जस की तस बनी हुई है।

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