महाराष्ट्र में जातिगत भेदभाव बड़े पैमाने पर दिखने लगा है और यह भेदभाव संवेदनशील होता नजर आ रहा है. जबकी हमारे भारतीय संविधान में दलितों की सुरक्षा के लिए संवैधानिक सुरक्षा और कानून बनाए गए हैं. इसके बावजुद भी उनके मौलिक हक का उल्लंघन बड़े पैमाने पर होता हुआ नजर आ रहा है. पहले की बात करें तो जातिय भेदभाव सामान्य था. पहले दलितों को लोग अछुत मानते थे. उनसे किसी प्रकार का कोई व्यवहार नहीं रखा जाता था. अछुत जाति को गांव से बहार निकाल दिया जाता था. उनके बच्चों को शिक्षा ग्रहण करने की अनुमति नहीं थी. बड़े पैमाने पर भेदभाव देखने को मिलता था.
उनके घरो में बिजली और पानी जैसी सुविधाओ पर पाबंदी थी. उच्च जातियों के लोग उनके साथ क्रुर व्यवहार करते थे। उनसे मजदुरों जैसा काम काराया जाता था. सड़कों की स्वच्छता, वृक्षारोपन, सड़कों की सफाई, चमडे के कार्य आदि तक सिमित थे. किंतु भारत सरकार ने अस्पृश्यता को दूर करने के लिए कई कानून बनाए की भारत के सभी नागरीकों को समान अधिकार मिले.
भारत के संविधान के अनुच्छेद 14,15,16,17 और 18 में समान अधिकारों के बारे में विस्तार से प्रकाश डाला गया है. फिर भी कई उच्च जातियों के लोग दलितों के साथ दुर्व्यवहार करते नजर आते हैं. कुछ महिनो पहले महाराष्ट्र के लातूर जिले गांव में दलितों का मंदिर में प्रवेश करने पर विरोध किया गया. कुछ सोशल मीडिया पोस्ट में दावा किया जा रहा था की यह विवाद तब शुरू हुआ जब दो दलित युवाओं ने हनुमान मंदिर में प्रवेश किया था. इस बात पर पुलिस से जब सवाल किया गया तब पुलिस ने कहा की ऐसा लोगों की नासमझी से हुआ और यह विवाद को सुलझा दिया गया है.
किंतु अब भी ऐसी कई बातें हैं जो होती हुई नजर आती है न केवल महाराष्ट्र में किंतु संपूर्ण भारत में आज भी जातिय भेदभाव को माना जाता है. संविधान निष्कर्ष निकालने के लिए सामानता का अधिकार केवल कागजों पर ही नहीं रहना चाहिए. इस अधिकार का ठीक से पालन किया जाना चाहिए. सरकार द्वारा आज भी जातिय भेदभाव व्यवस्था को दूर करने के लिए कई प्रयास किए जा रहे हैं और सभी लोगों को भी समानता को अपनाने में सरकार का सहयोग करना चाहिए की सभी को समान अधिकार प्राप्त हो.
लेखक – सिद्धि कनौजिया
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